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दास्तान एक निकम्मे की

Yogendra

2 अध्याय
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प्रिय पाठकगण, अगर आप इस किताब को पढ़ना शुरू कर चुके हैं तो मैं शत-प्रतिशत दावे के साथ कह सकता हूँ कि आप कभी ना कभी निकम्मेपन का शिकार रह चुके हैं। निकम्मापन सिर्फ एक बीमारू शब्द ही नही हैं बल्कि ये अपने आप मे एक सम्पूर्ण सुनियोजित उपाधि हैं जो आप पर थोपा जाता हैं आपकी नाकामियों और आपके असहज करने वाले कार्यो के बनिस्बत। आप बहुत अच्छे कवि हो सकते हैं, संगीतकार हो सकते हैं...वरन और भी बहुत कुछ हो सकते हैं जैसे आपमे समाहित हो ईश्वर का छुपा हुआ वरदान कोई जैसे आप प्रेमी भी हो सकते हैं ; साहित्य-प्रेमी या मनुष्य-प्रेमी किंतु जो आप हैं उसे स्वीकार करना किसी भी समाज मे इतना आसान नही रहा हैं क़भी भी, कही भी। आसान शब्दों में कहू तो ये दास्तां हैं एक ऐसे शख़्स की जो निकम्मा न होता तो शायद एक बहुत बढ़िया सेल्समैन होता जो दस बाई पंद्रह की एक संकरी जगह में जूतों की दुकान खोल कर पड़ा रहता या फिर मुर्गियों के अंडे बेच रहा होता आपके शहर में या हो सकता हैं कि ठीक आपके घर के बाजू में। मुझे लगता हैं कि सभी प्रकार के निकम्मेंपन भी एक अवसर को जन्म देते हैं और ये बात मुझे उसी वक्त पता चल गई थी जब एक निबंध प्रतियोगिता में मैंने द्वितीय स्थान प्राप्त किया और तो और इसके पुरस्कार के साथ ये भी उपलब्धि जुड़ गयी कि इस निकम्मे के निकम्मेपन का समाचार-पत्र में भी एक 4 इंच की जगह में खबर प्रकशित कर दिया प्रतियोगिता के संचालकों ने जिसने मेरे निकम्मेपन में काफी इज़ाफ़ा किया और मैं दिन-ब-दिन और भी निकम्मा होता चला गया। पाठकों से अनुरोध हैं कि मेरे निकम्मेपन की दास्तान को तब तक अधूरा ना छोड़े जब तक कि मैं निकम्मेपन की हद ना पार कर जाऊ । पाठकगण को इत्तिला कर दु कि कुछ वृतांत आपको विचलित कर सकते हैं सो आप धीरज और संयम से दास्तान को पढ़े और मन की शांति को भंगुर ना होने दे। धन्यवाद  

dastan ek nikamme ki

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