दिन के साढ़े तीन बजे होंगे जब स्कूल की आख़िरी कक्षा चल रही थी। आगे क्या होने वाला हैं इसका आभास तो हो चला था मुझे क्योंकि अब से एक दिन पूर्व ही तो भैया ने प्रधानाध्यापक से मिलकर वो सभी बातें कही थी जो कि मैं नही चाहता था।
दस से पंद्रह मिनट गुजर गए मगर प्रधानाध्यापक जिस खामोशी से लकड़ी की कत्थई कुर्सी पर आश्वस्त धंसे हुए थे उससे तो यही ज़ाहिर हो रहा था मानो वो मेरी शिकायत को कल ही भूला बैठे हो या फिर अभी अचानक याद आ जाये तो मुझे रिमांड पर लेले; कुछ कहा नही जा सकता था।
एकाएक उनके शरीर मे ज़ुम्बिश हुई और उन्होंने अपना ऐनक आंख पर चढ़ाते हुए जो कि नाक के बिल्कुल किनारे पर सरक कर आ गया था ; सभी विद्यार्थियों पर एक सरसरी निगाह डाली जो कि मुझे संशय में डालने के लिए काफी था। आखिरकार उनकी गोल बटन जैसी आंखे मेरे चेहरे पर आकर ठहर ही गयी, उनके इस ठहराव में मेरा जैसे सब कुछ ठहर सा गया।
मुझे ठीक से याद हैं उनकी वो रोबीली आवाज़ जिसमे मेरे लिए एक आदेश था कि मैं बाँस के ठूंठ से एक पतली छड़ी काट कर लाऊ उस जाने-पहचाने नश्तर से जो कि उनकी केबिन में उनके टेबल पर लेटा मन्द-मन्द मुस्कुराता रहता था। उस नश्तर ने ना जाने कितने ही भावनाओं का हाय लिया होगा और उसे हाय देने वालो में आज मेरा भी नाम जुड़ने वाला था।
वातावरण में एक मूर्धन्य ख़ामोशी और जिज्ञासा ने घर बना लिया, खामोशी को मेरा भरपूर समर्थन था एवं जिज्ञासा तो कक्षा के विद्यार्थियों में कूट-कूट कर भरी थी। मैं अनमने मन से उठा और उनके आदेश का पालन करते हुए पांच-छः मिनट के अंतराल में एक हरे रंग की बाँस की छरहरी सी सिटकुन (छड़ी) ले आया और उनको सुपुर्द कर दिया।