कवि-कथाकार, व्यंग्यकार. दुष्यंतकुमार पुरस्कार से विधर्मी उपन्यास के लिए सम्मानित.4 कहानी संग्रह और गीत,ग़ज़ल,व्यंग्य संग्रहप्रकाशित
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सिक्के खरे न खोटे होते; गर चमड़ी के मोटे होते. गर होते ऊँचे ओहदे पर; क़द-मद में क्यूं छोटे होते. तुम पर अँगुली कौन उठाता; पहने अगर मुखौटे होते. खूब लुढ़कते ढाल देखकर; गर बेपेंदे लोटे होते. गर न रीढ़ में हड्डी होती
रहता हूँ मैं झूठ के घर पर. कहता हूँ मैं कड़वा सच पर. बाहर सर्द सुबह हूँ लेकिन भीतर मैं हूँ तपती दुपहर.