काव्य संग्रह
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खुले आसमान के तले, बिस्तर लगाकर सो जाना और सोने से पहले, चाँद को देर तक निहारना अब कहाँ संभव होता है? आसमान में केवल, एक सितारा देखकर डर जाना और फिर आकाश में चारों तरफ, अन्य सितारों को खोजना
ढ़ेर सारी बातों को सहेज रखा था क्या-क्या कहना है, सोच रखा था सोचा था, भावनायों को उड़ेल देंगे हर दर्द, शब्दों में कुछ यूं पिरो लेंगे उलझने भी कहेंगे, सुलझने भी कहेंगे पल-पल, क्षण-क्षण को कुछ यूँ ब
न जाने क्यों कुछ कविताएं पूरी नहीं होती हैं सिमिट के रह जाती हैं क्यों कुछ पंक्तियों में मुरझा जाती हैं क्यों बन्द होकर डायरियों में जैसे बिखर गयी हों पतझर के पत्तो की तरह कुम्हला गयीं हो किताब मे
मै शाम को बगीचे में एक बैंच पर खामोश बैठा हुआ था और मेरे सामने एक टूटी हुई जीर्ण हालत में बैंच पड़ी थी I अचानक उस बैंच पर एक चिड़िया आकर बैठी और फिर उड़ने लगी I कुछ दूर उड़ने के बाद वह फिर वापस आकर
बदरी को सरोवर की तरफ जाते हुए देखकर, मुस्कराते हुए चातक ने एक प्रश्न कर लिया किसी सोच में डूबी हो या भूल गयी हो तुम दिशा, हँसते हुए चातक ने एक व्यंग कर लिया न तो वहाँ तपती धरा, जो तुम्हारी प्र
जिस तलाश में निकले थे सुबह, शायद उसे पूरे करके या कुछ अधूरे ख्वाब के साथ, नयी सुबह में फिर से निकलने का वादा करके संध्या की झिलमिल रौशनी में, लौटते पंछी तेज उड़ान के साथ, आकाश को नापते पंछी
धरती माँ ने जैसे अपनी गोद में सुला लिया आकाश रूपी आँचल जैसे उसे उढ़ा दिया समझती हो जैसे, उसका बेटा थक गया पेड़ की टहनियों से माँ ने पंखा झल दिया पंछियों की चहचाहट जैसे लोरी सुना रही हो ठंडी हवा
पता नहीं इतना नीर कहाँ से लाती है ? जब खुश होते है तब भी नम होती है जब मन दुखी होता है तब भी बरस जाती है जैसे एहसासों को अच्छे से समझती हो, बिना कुछ बताए ही भर आती है पता नहीं इतना नीर कहाँ से
बस इतनी सी चाहत में जीवन गवां दिया रूठे न कोई हमशे पल-पल लगा दिया शिकायतों का पिटारा खाली न हो सका जो हमारे पास था, सब कुछ खपा दिया अंधियारी राहों को रोशन जो कर लिया साजिशन हवाओं ने दीपक ब
मै उस भारत से आता हूँ जहाँ मन्दिरों में प्रार्थना होती है, प्राणियों में सदभावना हो विश्व का कल्याण हो मै उस भारत से आता हूँ जहाँ वसुधैव कुटुम्बकम् , का पाठ पढ़ाया जाता है मै उस भारत से आता
जाने कितनी साँसे शेष? छूटते अपने टूटते सपने रह जाती यादें अवशेष जाने कितनी साँसे शेष? कैसा है ये बुरा दौर हर तरफ बिछड़न का शोर दुखद संदेशों से उदास मन अपनों के खोने से आँखे नम कल जीवन हो या
नौकर ही बनना सरकारी चाहे पद क्यों न हो चपरासी गणित में मास्टर डिग्री कैसे लाये मिडिल के सवाल न हल कर पाए खुद को न जिम्मेदार कहेंगे सरकार से सौ सवाल करेंगे स्वरोजगार से दूर हुए, कौशल विकास स
हाथ की लकीरों को, पढ़ने की कोशिश करते रहे कुछ पल सुकून के, इन लकीरो में तलाशते रहे बड़ी अदभुत ये लिपी है कुछ लाइनों में ही, पूरी जिंदगी सिमटी है कुछ सीधी, कुछ तिरछी लकीरें कभी एक दूसरे से मि
बदरा घिर आये लगा सावन है आया कुछ बूंदों ने गिरकर मिट्टी को महकाया मोर भी पंख फैलाकर नाचने लगे जैसे सोये हुए सपने जागने लगे ठंडी-ठंडी हवाएं भी चलने लगी तन-मन को शीतल करने लगी पर हवाओ ने यूं रुख
एलबम के कुछ पुराने चित्र, एक बाद एक पलटते गये और उन पुराने छायाचित्रों में, अपनी छवि तलाशते गये कुछ अपरचित सी लगने लगी पुरानी छवि जैसे हमसे, हास परिहास करने लगी मानो पूंछ रही हो हमसे, अपन
दो कदम बस साथ चल लेते दो पल ठहर, कुछ बात कर लेते जाने से कब रोका था हमने मिलोगे कब, बस यही पूंछा था हमने सुबह-शाम बस हाल ले लेते दो कदम बस साथ चल लेते रास्ते जीवन के कुछ ओझल हुए तेज आंधी में
यूंही अक्सर खामोश रहने लगे थे जब से तुम बिछड़े शायद ही हम जिए थे गुमसुम से रहने लगे थे भरी महफिल में हम अपनों के बीच भी किसी को खोजते थे हम पूंजी कोई बची थी वो थी तुम्हारी यादें उन्हीं के बीच ही
ऐ जिंदगी, जब हम तुम्हें ख्वाब में देखते हैं भागते हैं पीछे, और नम आँखें से तुम्हें रोकते हैं फिर अचानक, जाने कहाँ गुम हो जाते हो तुम और बैचेन होकर, हम यहाँ-वहाँ दौड़ते हैं जब नींद टूटती है,
जाग जाते हैं रोज एक स्वपन देखकर देखते हैं फिर अपने चारों और बेचैन होकर रात के घने अंधियारे में झिलमिलाती आँखों से उन रास्तों को तलाशते है जो छूटे हुए हैं वर्षों से उन अपनों को खोजते जो बिछड़े एक अ
बहुत याद आती हो उम्र के आखरी पड़ाव में दर्द की कराह में जब कोई पास न हो साथी भी कोई साथ न हो जीर्ण-शीर्ण हालत में पड़े हुये मन की व्यथा जब कोई न सुने व्याकुल हृदय की वेदना समझ काश हो, कि माँ आ ज
राम कृष्ण का देश है ये, केवट को गले लगाया जाता है प्यार का मूल्य है यहां, सबरी माता के जूठे बेरों को खाया जाता है हर कोई ज्ञानी हो सकता, वाल्मीकि रामायण की रचना करते हैं राम छत्रिय होकर भी, भ