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स्वपन

22 अक्टूबर 2024

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जाग जाते हैं रोज एक स्वपन देखकर
देखते हैं  फिर अपने चारों और बेचैन होकर
रात के घने अंधियारे में झिलमिलाती आँखों से
उन रास्तों को तलाशते है जो छूटे हुए हैं वर्षों से
उन अपनों को खोजते जो बिछड़े एक अरसे से
उस मंजिल को जिसे पाने की कोशिश की शिद्दत से

जाग जाते हैं रोज एक स्वपन देखकर
देखते हैं फिर अपने चारों और बेचैन होकर
सदियां बीती फिर भी स्पष्ट से हैं चेहरे
समय की मलहम थी फिर भी घाव हैं गहरे
न मिलने की ख़ुशी , न बिछड़ने का गम
न कुछ हल चल है, बस शान्त सा है मन
पता नहीं इस भीड़ में ,किसे खोजने की आरजू
नहीं पता जाना कहां, क्यों दौड़ने की जुस्तजू

जाग जाते हैं रोज एक स्वपन देखकर
देखते हैं फिर अपने चारों और बेचैन होकर
मना करती है साथ चलने से परछाई देखो
अब किसका साथ ले इन लम्हों से पोंछो  
कहना है बहुत कुछ, पर शब्दों की कमियां
ख़ामोशी कौन समझे, शोर-गोल पसन्द दुनिया
कुछ अपनों ने छोड़ा, कुछ अपनों की खातिर
टूटे ख्वाब तो क्या, ख्वाब ही तो थे आखिर

जाग जाते हैं रोज एक स्वपन देखकर
देखते हैं फिर अपने चारो और बेचैन होकर
सूरज की किरणों पर, बदली का पहरा
बोझिल सी उम्मीदों पर, उदासी का डेरा
न जीतने का उल्लास, न हारने का गम
गंवा दिया सबकुछ, अब शांत सा है मन
शिकायत भी खुद से, सवाल भी खुद से
जवाब भी खुद से, सुझाव भी खुद से

जाग जाते हैं रोज एक स्वपन देखकर
देखते है फिर अपने चारों और बेचैन होकर
एक लंबी दूरी तय की , जिन रास्तों पर चलकर
मन्जिल तक नही पहुँचे, क्या मिला उन पर बढ़कर
एक खीज है दिल में, बड़े मन से चले हम
हर मोड़ ने गुमराह किया, फिर भी चलते रहे हम
मंजिल जब करीब थी तो धैर्य खो गए
मंजिल ने ही उलझाया,और हम ओझल हो गए

जाग जाते हैं रोज एक स्वपन देखकर

देखते हैं  फिर अपने चारों और बेचैन होकर
 

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