यूंही अक्सर खामोश रहने लगे थे
जब से तुम बिछड़े शायद ही हम जिए थे
गुमसुम से रहने लगे थे भरी महफिल में हम
अपनों के बीच भी किसी को खोजते थे हम
पूंजी कोई बची थी वो थी तुम्हारी यादें
उन्हीं के बीच ही कभी रोते और मुस्कराते
यूंही अक्सर खामोश रहने लगे थे
जब से तुम बिछड़े शायद ही हम जिए थे
अकेले में जब बैठते तो खुद से ही बतियाते
पंछियों से पूंछते थे क्या उनके घर भी जाते
हवाएं जो बहती हैं, उनके घर से भी गुजरती होंगी
ये चाँद की रौशनी भी उनके घर में खिलती होगी
जब लहराती थी पतंगे आकाश में उड़ती थी
मन पूछने लगता था क्या तुम तक पहुंचती थी
यूंही अक्सर खामोश रहने लगे थे
जब से तुम बिछड़े शायद ही हम जिए थे