ढ़ेर सारी बातों को सहेज रखा था
क्या-क्या कहना है, सोच रखा था
सोचा था, भावनायों को उड़ेल देंगे
हर दर्द, शब्दों में कुछ यूं पिरो लेंगे
उलझने भी कहेंगे, सुलझने भी कहेंगे
पल-पल, क्षण-क्षण को कुछ यूँ बयाँ करेंगे
बिखरने लगे शब्द, विरोध करने लगे
मुँह से निकले नहीं, खामोश करने लगे
फिर सभी एहसासों को कुछ यूँ दवाकर
झूठी सी एक मुस्कान चेहरे पे लाकर
मौन समझ ले शायद, काश ऐसा हो
इतना ही कह सके बस, सुनो! कैसे हो?