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मौन संवाद

29 मई 2024

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मै शाम को बगीचे  में एक  बैंच पर खामोश बैठा हुआ था और मेरे सामने एक टूटी हुई जीर्ण हालत में  बैंच पड़ी  थी I अचानक उस बैंच पर एक चिड़िया आकर बैठी और फिर उड़ने लगी I  कुछ दूर उड़ने के बाद वह फिर वापस  आकर बैठ गयी I जैसे दोनों के मध्य मौन संवाद चल रहा हो I कुछ समय गुजरने के बाद जैसे ही उसने पुनः  उड़ना शुरू किया, न जाने कहाँ से पानी की एक बूंद  जमीन पर  गिरी I  मैने  उनके मध्य होने वाले  मौन संवाद को समझकर  शब्दों में पिरोने की  कोशिश की है I

सुनो! आते-जाते रहा करो-

अपनापन सा लगता है तुम सब से


जीर्ण-शीर्ण बाग में पड़ी बैंच ने आवाज दी

उड़ना शुरु ही किया था,

सुनहरी चिड़िया वापस आ फिर बैंच पर बैठ गयी

हैरान होकर वह इधर-उधर देखने लगी

जैसे ध्वनि को पहचानने का प्रयास करने लगी


सुनो! क्या याद है तुम्हें?

उस समय इसने बगीचे का रूप नहीं लिया था

कुछ छायादार पेड़ों के निकट,

विश्राम हेतु मुझे स्थापित किया गया था

ईंट, बालू और सीमेंट से मेरे स्तम्भ बनाकर

और उन स्तम्भों पर एक समतल चट्टान रोप कर

सीमेंट और बालू से बना मसाला बिछाया गया था

फिर सीमेंट में लाल रंग घोलकर,

आकर्षण हेतु, पतली सी परत से सजाया गया था


सुनो! क्या तुम्हें याद है?

तुम्हीं तो थे, जो सबसे पहले आकर बैठे थे

फिर शरारत करते हुए, हाल ही बनी हुई

मेरी आद्र सतह पर यहां से वहां खूब घूमे थे

शायद तुम पहचान पाओ,

कदमों के निशान आज भी बने हुए हैं

बस पहले से कुछ धुंधले हैं,

और धूल की चादर ओढ़े हुए हैं


सुनो! शायद तुम्हें याद हो!

मेरे जीवन का पहला बसंत,

तुम्हारा आकर यहां बैठना और चहकना

और हर तरफ संगीत का घुलजाना

ग्रीष्म ऋतु में दिन भर की तपन से राहत देने

संध्या में  मेरे पास आकर हंसी ठिठोली कर जाना


सुनो! मुझे याद है!

बारिश का होना,

और तुम्हारा मेरे पटल के नीचे छुप जाना

फिर भीगे बदन आकर बैठना,

और पंख झड़ा, उड़ जाना

शरद ऋतु में रात-भर की ठिठुरन के बाद,

कोहरे का छटना और सुबह की गुनगुनी धूप में,

तुम्हारा देर तक मेरे पास रहना, खेलना

इस छोर से उस छोर तक छोटी सी उड़ान भरना


सुनो! मुझे आज भी याद है! वो आखिर दिन!

कुछ अजनबी पंछियों के साथ तुम्हारा आना

देर तक मेरे पास रुकना और खेलना

और फिर मुझसे बिना कुछ कहे,

नये दोस्तों के साथ लंबी उड़ान पर निकल जाना


हर वो पल याद है, जो साथ-साथ गुजरा है

पत्थर हूँ , लिखा गया ,  जल्दी कहाँ मिटता है


धीरे-धीरे यह जगह बगीचे का रूप लेने लगी

नई  बेंचों , झूलों, फब्बारों से सजने लगी

बच्चों का आना, खेलना-कूदना और मुस्कराना

नये युगलों यहां बैठना और प्रेम के गीत गाना

युवायों का भविष्य के सुनहरे सपने सँजोना

बुजुर्गों का अतीत की सुखद यादों में जीना

सब कुछ तो मैने देखा और समझा है

पर न जाने क्यों अपनापन सा लगता है

तुम्हारी चहचहाट से, कदमों की आहट से

तुम से और तुमसे जुड़े हुए सभी अपनों से


न जाने क्यों मुझे लगता था,

जब कभी तुम वापसी की उड़ान भरोगी

यहाँ आकर, मेरी तलाश करोगी

कल कुछ लोग आपस में बात कर रहे थे

मुझे हटाकर नयी बेंच पर विचार कर रहे थे

जैसे ही सुनहरी चिड़िया उड़ने को हुई

कहीं से एक पानी बूंद जमनी पर गिरी


मेरी जिंदगी की साँझ ढलने तक

मुझे मलबे के ढ़ेर में बदलने तक

सुनो! आते-जाते रहा करो

अपनापन सा लगता है तुम सब से

मीनू द्विवेदी वैदेही

मीनू द्विवेदी वैदेही

बहुत सुंदर 👌 आप मेरी कहानी प्रतिउतर पर अपनी समीक्षा जरूर दें 🙏🙏

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