न जाने क्यों कुछ कविताएं पूरी नहीं होती हैं
सिमिट के रह जाती हैं क्यों कुछ पंक्तियों में
मुरझा जाती हैं क्यों बन्द होकर डायरियों में
जैसे बिखर गयी हों पतझर के पत्तो की तरह
कुम्हला गयीं हो किताब में रखे फूलों की तरह
न जाने क्यों कुछ कविताएं पूरी नहीं होती हैं
शायद डायरी के पृष्ठों में कहीं उलझ कर
या लिखने वाले की नजरों से ओझल होकर
संभव है , शायद नजर अंदाज कर दिया गया हो
या शायद , रचनाकार नयी कृति में रम गया हो
फिर भी पंक्तियां नज्म बनने की चाहत रखती हैं
न जाने क्यों कुछ कविताएं पूरी नहीं होती हैं
संभव था पूरी होकर शायद गजल बन जाती
या गीत बनकर किसी के होंठो पर गुनगुनाती
पर लिखने बाले ने कुछ यूं अधूरा छोड़ दिया
कागज था कोरा, यूँ ही बस कुछ लिख दिया
शायद नजर पड़े कभी, पंक्ति इंतजार करती हैं
न जाने क्यों कुछ कविताएं पूरी नहीं होती हैं