स्वामी विवेकानंद की विख्यात किताब राजयोग का यह दूसरा अध्याय है। स्वामी जी इस अध्याय में योग-साधना के शुरुआती सोपानों पर प्रकाश डाल रहे हैं। साथ ही प्राणायाम और प्राण के मूल अर्थ को भी इसमें बड़ी सुंदरता के साथ समझाया गया है।
राजयोग आठ अंगों में विभक्त है। पहला है यम–अर्थात् अहिंसा, सत्य, अस्तेय (चोरी का अभाव), ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह। दूसरा है नियम–अर्थात् शौच, संतोष, तपस्या, स्वाध्याय (अध्यात्म-शास्त्रपाठ) और ईश्वर-प्रणिधान अर्थात् ईश्वर को आत्म-समर्पण। तीसरा है आसन–अर्थात् बैठने की प्रणाली। चौथा है प्राणायाम। पाँचवाँ है प्रत्याहार–अर्थात् मन की विषयाभिमुखी गति को फेरकर उसे अन्तर्मुखी करना। छठा है धारणा अर्थात् एकाग्रता। सातवाँ है ध्यान और आठवाँ है समाधि अर्थात् ज्ञानातीत अवस्था। हम देख रहे हैं, यम और नियम चरित्र-निर्माण के साधन हैं। इनको नींव बनाए बिना किसी तरह की योग-साधना सिद्ध न होगी। यम और नियम के दृढ़प्रतिष्ठ हो जाने पर योगी अपनी साधना का फल अनुभव करना आरम्भ कर देते हैं। इनके न रहने पर साधना का कोई फल न होगा। योगी को चाहिए कि वे तन-मन-वचन से किसी के विरुद्ध हिंसाचरण न करें। मनुष्य ही नहीं, वरन् अन्य प्राणियों के विरुद्ध भी हिंसा का भाव न रहे, दया मनुष्य-जाति में ही आबद्ध न रहे, वरन् वह और भी फैलकर मानो सारे संसार का आलिंगन कर ले।
यम और नियम के बाद आसन आता है। जब तक बहुत उच्च अवस्था की प्राप्ति नहीं हो जाती, तब तक रोज़ नियमानुसार कुछ शारीरिक और मानसिक क्रियाएँ करनी पड़ती हैं। अतएव जिससे दीर्घकाल तक एक भाव से बैठा जा सके, ऐसे एक आसन का अभ्यास आवश्यक है। जिनको जिस आसन से सुभीता मालूम होता हो, उनको उसी आसन पर बैठना चाहिए। एक व्यक्ति के लिए एक प्रकार से बैठकर सोचना सहज हो सकता है, परन्तु दूसरे के लिए, सम्भव है, वह बहुत कठिन जान पड़े। हम बाद में देखेंगे कि योग-साधना के समय शरीर के भीतर नाना प्रकार के कार्य होते रहते हैं। स्नायविक शक्तिप्रवाह की गति को फेरकर उसे नए रास्ते से दौड़ाना होगा, तब शरीर में नए प्रकार के कम्पन या क्रिया शुरू होगी, सारा शरीर मानो नए रूप से गठित हो जायेगा। इस क्रिया का अधिकांश मेरुदण्ड के भीतर होगा, इसलिए आसन के सम्बन्ध में इतना समझ लेना होगा कि मेरुदण्ड को सहज भाव से रखना आवश्यक है–ठीक सीधा बैठना होगा–वक्ष, ग्रीवा और मस्तक सीधे और समुन्नत रहें, जिससे देह का सारा भार पसलियों पर पड़े। यह तुम सहज ही समझ सकोगे कि वक्ष यदि नीचे की ओर झुका रहे, तो किसी प्रकार का उच्च चिंतन करना संभव नहीं। राजयोग का यह भाग हठयोग से बहुत-कुछ मिलता जुलता है। हठयोग केवल स्थूल देह को लेकर व्यस्त रहता है। इसका उद्देश्य केवल स्थूल देह को सबल बनाना है। हठयोग के संबंध में यहाँ कुछ कहने की आवश्यकता नहीं, क्योंकि उसकी क्रियाएँ बहुत कठिन हैं। एक दिन में उसकी शिक्षा भी संभव नहीं। फिर, उससे कोई आध्यात्मिक उन्नति भी नहीं होती। डेलसर्ट और अन्यान्य व्यायाम-आचार्यों के ग्रन्थों में इन क्रियाओं के अनेक अंश देखने को मिलते हैं। उन लोगों ने भी शरीर को भिन्न-भिन्न स्थितियों में रखने की व्यवस्था की है। हठयोग की तरह उनका भी उद्देश्य दैहिक उन्नति है, आध्यात्मिक उन्नति नहीं। शरीर की ऐसी कोई पेशी नहीं, जिसे हठयोगी अपने वश में न ला सकें। हृदय-यंत्र उसकी इच्छा के अनुसार बंद किया या चलाया जा सकता है- शरीर के सारे अंश वह अपनी इच्छानुसार चला सकता है।
मनुष्य किस प्रकार दीर्घजीवी हो, यही हठयोग का एकमात्र उद्देश्य है। शरीर किस प्रकार पूर्ण स्वस्थ रहे, यही हठयोगियों का एकमात्र लक्ष्य है। हठयोगियों का यही दृढ़ संकल्प है कि मुझे और पीड़ा न हो और इस दृढ़ संकल्प के बल से उनको पीड़ा होती भी नहीं। वे दीर्घजीवी हो सकते हैं, सौ वर्ष तक जीवित रहना तो उनके लिए मामूली-सी बात है। उनकी 150 वर्ष की आयु हो जाने पर भी, देखोगे, वे पूर्ण युवा और सतेज हैं, उनका एक केश भी सफेद नहीं हुआ किन्तु इसका फल बस यहीं तक है। वटवृक्ष भी कभी-कभी 5000 वर्ष जीवित रहता है, किन्तु वह वटवृक्ष का वटवृक्ष ही बना रहता है। फिर वे लोग भी यदि उसी तरह दीर्घजीवी हुए, तो उससे क्या? वे बस एक बड़े स्वस्थकाय जीव भर रहते हैं। हठयोगियों के दो-एक साधारण उपदेश बड़े उपकारी हैं। सिर की पीड़ा होने पर, शय्या-त्याग करते ही नाक से शीतल जल पीएँ, इससे सारा दिन मस्तिष्क अत्यंत शीतल रहेगा और कभी सर्दी न होगी। नाक से पानी पीना कोई कठिन काम नहीं, बड़ा सरल है। नाक को पानी के भीतर डुबाकर गले में पानी खींचते रहो। पानी अपने-आप ही धीरे-धीरे भीतर जाने लगेगा।
आसन सिद्ध होने पर, किसी-किसी सम्प्रदाय के मतानुसार नाड़ी-शुद्धि करनी पड़ती है। बहुत से लोग यह सोचकर कि यह राजयोग के अन्तर्गत नहीं है, इसकी आवश्यकता स्वीकार नहीं करते। परन्तु जब शंकराचार्य जैसे- भाष्यकार ने इसका विधान किया है तब मेरे लिए भी इसका उल्लेख करना उचित जान पड़ता है। मै श्वेताश्वतर उपनिषद् पर उनके भाष्य1 से इस संबंध में उनका मत उद्धृत करूँगा – “प्राणायाम के द्वारा जिस मन का मैल धुल गया है वही मन ब्रह्म में स्थिर होता है। इसलिए शास्त्रों में प्राणायाम के विषय में उल्लेख है। पहले नाड़ी-शुद्धि करनी पड़ती है तभी प्राणायाम करने की शक्ति आती है। अँगूठे से दाहिना नथुना दबाकर बाँए नथुने से यथाशक्ति वायु अंदर खींचो फिर बीच में तनिक भी विश्राम किये बिना बाँयीं नासिका बंद करके दाहिनी नासिका से वायु निकालो फिर दाहिनी नासिका से वायु ग्रहण करके बाँयीं नासिका से निकालो। दिन भर में चार बार अर्थात उषा, मध्याह्न, सायाह्न और निशीथ इन चार समय पूर्वोक्त क्रिया का तीन बार या पाँच बार अभ्यास करने पर एक पक्ष या महीने भर में नाड़ी-शुद्धि हो जाती है। उसके बाद प्राणायाम पर अधिकार होगा।”
सदा अभ्यास आवश्यक है। तुम रोज़ देर तक बैठे हुए मेरी बात सुन सकते हो परन्तु अभ्यास किये बिना तुम एक कदम भी आगे नहीं बढ़ सकते। सब कुछ साधना पर निर्भर है। प्रत्यछ अनुभूति बिना इन तत्वों का कुछ भी समझ में नहीं आता। स्वयं अनुभव करना होगा;केवल व्याख्या और मत सुनने से न होगा। फिर साधना में बहुत से विघ्न भी हैं। पहला तो व्याधिग्रस्त देह है। शरीर स्वस्थ न रहे, तो साधना में बाधा पड़ती है। अतः शरीर को स्वस्थ रखना आवश्यक है। किस प्रकार का खान-पान करना होगा, किस प्रकार जीवनयापन करना होगा, इन सब बातों की ओर हमें विशेष ध्यान देना होगा। मन से सोचना होगा कि शरीर सबल हो–जैसा कि यहाँ के क्रिश्चियन साइंस2 मतावलम्बी करते हैं। बस, शरीर के लिये फिर और कुछ करने की ज़रूरत नहीं। यह हम कभी न भूलें कि स्वास्थ्य उद्देश्य के साधन का एक उपाय मात्र है। यदि स्वास्थ्य ही उद्देश्य होता, तो हम तो पशुतुल्य हो गए होते। पशु प्रायः अस्वस्थ नहीं होते।
दूसरा विघ्न है संदेह। हम जो कुछ नहीं देख पाते, उसके संबंध में संदिग्ध हो जाते हैं। मनुष्य कितनी भी चेष्टा क्यों न करे, वह केवल बात के भरोसे नहीं रह सकता। यही कारण है कि योगशास्त्रोक्त सत्यता के सम्बन्ध में संदेह उपस्थित हो जाता है। यह संदेह बहुत अच्छे आदमियों में भी देखने को मिलता है। परन्तु साधना का श्रीगणेश कर देने पर बहुत थोड़े दिनों में ही कुछ-कुछ अलौकिक व्यापार देखने को मिलेंगे, और तब साधना के लिए तुम्हारा उत्साह बढ़ जायेगा। योगशास्त्र के एक टीकाकार ने कहा भी है, “योगशास्त्र की सत्यता के संबंध में यदि एक बिल्कुल सामान्य प्रमाण भी मिल जाये, तो उतने से ही सम्पूर्ण योगशास्त्र पर विश्वास हो जायेगा।” उदाहरणस्वरूप तुम देखोगे कि कुछ महीनों की साधना के बाद तुम दूसरों का मनोभाव समझ सक रहे हो, वे तुम्हारे पास तस्वीर के रूप में आयेंगे, यदि बहुत दूर पर कोई शब्द या बातचीत हो रही हो, तो मन एकाग्र करके सुनने की चेष्टा करने से ही तुम उसे सुन लोगे। पहले-पहल अवश्य ये व्यापार बहुत थोड़ा-थोड़ा करके दिखेंगे। परन्तु उसी से तुम्हारा विश्वास, बल और आशा बढ़ती रहेगी। मान लो, नासिका के अग्रभाग में तुम चित्त का संयम करने लगे, तब तो थोड़े ही दिनों में तुम्हें दिव्य सुगंध मिलने लगेगी, इसी से तुम समझ जाओगे कि हमारा मन कभी-कभी वस्तु के प्रत्यक्ष संस्पर्श में न आकर भी उसका अनुभव कर लेता है। पर यह हमें सदा याद रखना चाहिए कि इन सिद्धियों का और कोई स्वतंत्र मूल्य नहीं, वे हमारे प्रकृत उद्देश्य के साधन में कुछ सहायता मात्र करती हैं। हमें याद रखना होगा कि इन सब साधनों का एकमात्र लक्ष्य, एकमात्र उद्देश्य ‘आत्मा की मुक्ति’ है। प्रकृति को पूर्ण रूप से अपने अधीन कर लेना ही हमारा एकमात्र लक्ष्य है। इसके सिवा और कुछ भी हमारा प्रकृत लक्ष्य नहीं हो सकता। मामूली सिद्धियों से संतुष्ट हो गए, तो पूरा न पड़ेगा। हम ही प्रकृति पर प्रभुत्व करेंगे, प्रकृति को अपने ऊपर प्रभुत्व न करने देंगे। शरीर या मन कुछ भी हम पर प्रभुत्व न कर सके। हम यह कभी न भूलें कि ‘शरीर हमारा है’–’हम शरीर के नहीं’।
एक देवता और एक असुर किसी महापुरुष के पास आत्म-जिज्ञासु होकर गए। उन्होंने उन महापुरुष के पास एक अरसे तक रहकर शिक्षा प्राप्त की। कुछ दिन बाद उन महापुरुष ने उनसे कहा, “तुम लोग जिसको खोज रहे हो, वह तो तुम ही हो।” उन लोगों ने सोचा, “तो देह ही आत्मा है।” फिर उन लोगों ने यह सोचकर कि जो कुछ मिलना था मिल गया, संतुष्ट- चित्त से अपनी-अपनी जगह को प्रस्थान किया। उन लोगों ने जाकर अपने-अपने आत्मीय जनों से कहा, “जो कुछ सीखना था, सब सीख आए। अब आओ, भोजन, पान और आनंद में दिन बिताएँ–हम ही वह आत्मा हैं, इसके सिवा और कोई पदार्थ नहीं।”
उस असुर का स्वभाव अज्ञान से ढका हुआ था, इसलिए इस विषय में उसने अधिक अन्वेषण नहीं किया। अपने को ईश्वर समझकर वह पूर्ण रूप से संतुष्ट हो गया, उसने ‘आत्मा’ शब्द से देह समझी। परन्तु देवता का स्वभाव अपेक्षाकृत पवित्र था। मैं भी पहले इस भ्रम में पड़ा था कि ” ‘मैं’ का अर्थ यह शरीर ही है, यह देह ही ब्रह्म है, इसलिए इसे स्वस्थ और सबल रखना, सुन्दर स्वच्छ वस्त्रादि पहनना और सब प्रकार के दैहिक सुखों का संभोग करना ही कर्तव्य है।” परन्तु कुछ दिन जाने पर उन्हें यह बोध होने लगा कि गुरु के उपदेश का अर्थ – यह नहीं हो सकता कि देह ही आत्मा है, वरन् देह से भी श्रेष्ठ कुछ अवश्य है। तब उन्होंने गुरु के निकट आकर पूछा, “गुरो, आपके वाक्य का क्या यह तात्पर्य है कि ‘देह ही आत्मा है परन्तु यह कैसे हो सकता है? सभी शरीर तो नष्ट होते हैं, पर आत्मा का तो नाश नहीं।’ आचार्य ने कहा, “तुम स्वयं इसका निर्णय करो, तुम वही हो–तत्त्वमसि।”
तब शिष्य ने सोचा, शरीर के भीतर जो प्राण है, शायद उनको लक्ष्य कर गुरु ने पूर्वोक्त उपदेश दिया था। वे वापस चले गए। परन्तु फिर शीघ्र ही देखा कि भोजन करने पर प्राण तेजस्वी रहते हैं और न करने पर मुरझाने लगते हैं। तब वे पुनः गुरु के पास आए और कहा, “गुरो, आपने क्या प्राण को आत्मा कहा है?” गुरु ने कहा, “स्वयं तुम इसका निर्णय करो, तुम वही हो।” उस अध्यवसायशील शिष्य ने गुरु के यहाँ से लौटकर सोचा, “तो शायद मन ही आत्मा होगा।” परन्तु वे शीघ्र ही समझ गए कि मनोवृत्तियाँ बहुत तरह की हैं, मन में कभी साधु-वृत्ति, तो कभी असत्-वृत्ति उठती है, अतः मन इतना परिवर्तनशील है कि वह कभी आत्मा नहीं हो सकता। तब फिर से गुरु के पास आकर उन्होंने कहा, “ मन आत्मा है, ऐसा तो मुझे नहीं जान पड़ता। आपने क्या ऐसा ही उपदेश दिया है?” गुरु ने कहा, “नहीं, तुम ही वह हो, तुम स्वयं इसका निर्णय करो।” वे देवपुंगव फिर लौट गए, तब उनको यह ज्ञान हुआ, “मैं समस्त मनोवृत्तियों के अतीत एकमेवाद्वितीय आत्मा हूँ। मेरा जन्म नहीं, मृत्यु नहीं, मुझे तलवार नहीं काट सकती, आग नहीं जला सकती, हवा नहीं सुखा सकती, जल नहीं गला सकता, मैं अनादि हूँ, जन्मरहित, अचल, अस्पर्श, सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान पुरुष हूँ। आत्मा शरीर या मन नहीं, वह तो इन सबके अतीत है।” इस प्रकार देवता में ज्ञान का उदय हुआ और वे तत्प्रसूत आनंद से तृप्त हो गए। पर उस असुर बेचारे को सत्यलाभ न हुआ, क्योंकि देह में उसकी अत्यंत आसक्ति थी।
इस जगत में ऐसी असुर-प्रकृति के अनेक लोग हैं, फिर भी देवता-प्रकृतिवाले बिल्कुल ही न हों, ऐसा नहीं। यदि कोई कहे, “आओ, तुम लोगों को मैं एक ऐसी विद्या सिखाऊँगा, जिससे तुम्हारा इन्द्रिय-सुख अनंतगुना बढ़ जायेगा” तो अगणित लोग उसके पास दौड़ पड़ेंगे। परन्तु यदि कोई कहे, “आओ, मैं तुम लोगों को तुम्हारे जीवन का चरम लक्ष्य परमात्मा का विषय सिखलाऊँ” तो शायद उनकी बात की कोई परवाह भी न करेगा। ऊँचे तत्व की धारणा करने की शक्ति बहुत कम लोगों में देखने को मिलती है, सत्य को प्राप्त करने के लिए अध्यवसायशील लोगों की संख्या तो और भी विरली है। पर संसार में ऐसे महापुरुष भी हैं, जिनकी यह निश्चित धारणा है कि शरीर चाहे हजार वर्ष रहे या लाख वर्ष, अंत में गति एक ही होगी। जिन शक्तियों के बल से देह कायम है, उनके चले जाने पर देह न रहेगी। कोई भी व्यक्ति पल भर के लिए भी शरीर का परिवर्तन रोकने में समर्थ नहीं हो सकता। शरीर और है क्या? वह कुछ सतत्-परिवर्तनशील परमाणुओं की समष्टि मात्र है। नदी के दृष्टान्त से यह तत्व सहज बोधगम्य हो सकता है। तुम अपने सामने नदी में जलराशि देख रहे हो, वह देखो, पल भर में वह चली गई और उसकी जगह एक नयी जलराशि आ गई। जो जलराशि आई, वह सम्पूर्ण नयी है, परन्तु देखने में पहली ही जलराशि की तरह है। शरीर भी ठीक इसी तरह सतत् परिवर्तनशील है। उसके इस प्रकार परिवर्तनशील होने पर भी उसे स्वस्थ और बलिष्ठ रखना आवश्यक है, क्योंकि शरीर की सहायता से ही हमें ज्ञान की प्राप्ति करनी होगी। इसके सिवा और कोई उपाय नहीं।
सब प्रकार के शरीरों में, मानव-देह ही श्रेष्ठतम है, मनुष्य ही श्रेष्ठतम जीव है। मनुष्य सर्व प्रकार के निकृष्ट प्राणियों से–यहाँ तक कि देवादि से भी श्रेष्ठ है। मनुष्य से श्रेष्ठतर जीव और नहीं। देवताओं को भी शान-लाभ के लिए मनुष्य-देह धारण करनी पड़ती है। एकमात्र मनुष्य ही शान -लाभ का अधिकारी है, देवता भी इनसे वंचित हैं। यहूदी और मुसलमानों के मत में, ईश्वर ने, देवता और अन्यान्य समुदय सृष्टियों के बाद मनुष्य की सृष्टि करके, देवताओं से मनुष्य को प्रणाम और अभिनंदन कर आने के लिए कहा। इब्लिस को छोड़कर बाक़ी सबने ऐसा किया। अतएव ईश्वर ने इब्लिस को अभिशाप दे दिया। इससे वह शैतान बन गया। उक्त रूपक के अंदर यह महान सत्य निहित है कि संसार में मनुष्य-जन्म ही अन्य सबकी अपेक्षा श्रेष्ठ है। पशु आदि तिर्यक्-सृष्टि तम प्रधान है। पशु किसी ऊँचे तत्व की धारणा नहीं कर सकते। देवता भी मनुष्य जन्म लिए बिना मुक्ति-लाभ नहीं कर सकते। देखो, मनुष्य की आत्मोन्नति के लिए अधिक धन अनुकूल नहीं। फिर बिलकुल निर्धन होने पर भी उन्नति दूर रहती है। संसार में जितने महात्मा पैदा हुए हैं, सभी मध्यम श्रेणी के लोगों से हुए थे। मध्यम श्रेणी वालों में सब विरोधी शक्तियों का समन्वय रहता है।।
अब हम यथार्थ विषय पर आएँ। हमें अब प्राणायाम के सम्बन्ध में आलोचना करनी चाहिए। देखें, चित्तवृत्तियों के निरोध से प्राणायाम का क्या सम्बन्ध है? श्वास-प्रश्वास मानो देह-यंत्र का गतिनियामक मूल यंत्र (fly-wheel) है। एक बृहत् इंजन पर निगाह डालने पर देखोगे कि एक बड़ा चक्र घूम रहा है और उस चक्र की गति क्रमशः सूक्ष्म से सूक्ष्मतर यत्रों में संचारित होती है। इस प्रकार उस इंजन के अत्यंत सूक्ष्मतम् यंत्र तक गतिशील हो जाते हैं। श्वास-प्रश्वास ठीक वैसा ही एक गतिनियामक चक्र है। वही इस शरीर के सब अंगों में जहाँ जिस प्रकार की शक्ति की आवश्यकता है, उसकी पूर्ति कर रहा है और उस शक्ति को नियमित कर रहा है।
एक राजा के एक मन्त्री था। किसी कारण से राजा उस पर नाराज़ हो गया। राजा ने उसे एक बड़ी ऊँची मीनार की चोटी में क़ैद कर रखने की आज्ञा दी। राजा की आज्ञा का पालन किया गया। मंत्री भी वहाँ क़ैद होकर मौत की राह देखने लगा। मंत्री के एक पतिव्रता पत्नी थी। रात को उस मीनार के नीचे आकर उसने चोटी पर क़ैद हुए पति को पुकारकर पूछा, “मैं किस प्रकार तुम्हारी रक्षा करूँ?” मन्त्री ने कहा, “अगली रात को एक लंबा मोटा रस्सा, मज़बूत डोरी, एक बंडल सूत, रेशम का पतला सूत, एक गुबरैला और थोड़ा-सा शहद लेती आना।” उसकी सहधर्मिणी पति की यह बात सुनकर बहुत आश्चर्यचकित हो गई। जो हो, वह पति की आज्ञानुसार दूसरे दिन सब वस्तुएँ ले गई। मंत्री ने उससे कहा, “रेशम का सूत मज़बूती से गुबरैले के पैर में बाँध दो, उसकी मूँछों में एक बूँद शहद लगा दो और उसका सिर ऊपर की ओर करके उसे मीनार की दीवार पर छोड़ दो।” पतिव्रता ने सब आज्ञाओं का पालन किया। तब उस कीड़े ने अपना लंबा रास्ता पार करना शुरू किया। सामने शहद की महक पाकर मधु के लोभ से वह धीरे-धीरे ऊपर चढ़ने लगा, और अंत में मीनार की चोटी पर जा पहँचा। मंत्री ने झट उसे पकड़ लिया और उसके साथ रेशम के सूत को भी। इसके बाद अपनी स्त्री से कहा, “बंडल में जो सूत है, उसे रेशम के सूत के छोर से बाँध दो।” इस तरह वह भी उसके हाथ में आ गया। इस उपाय से उसने डोरा और मोटा रस्सा भी पकड़ लिया। अब कोई कठिन काम न रह गया। रस्सा ऊपर बाँधकर वह नीचे उतरा और भाग खड़ा हुआ। हमारी इस देह में श्वास-प्रश्वास की गति मानो रेशमी सूत है। इसका धारण या संयम कर सकने पर पहले स्नायविक शक्तिप्रवाहरूप (nervous currents) सूत का बंडल, फिर मनोवृत्तिरूप डोरी और अंत में प्राणरूप रस्से को पकड़ सकते हैं। प्राणों को जीत लेने पर मुक्ति प्राप्त होती है।
हम अपने शरीर के संबंध में बड़े अज्ञ हैं, कुछ जानकारी रखना भी हमें संभव नहीं मालूम पड़ता। बहुत हुआ तो हम मृत-देह को चीर-फाड़कर देख सकते हैं कि उसके भीतर क्या है और क्या नहीं? और कोई-कोई इसके लिए किसी जीवित पशु की देह ले सकते हैं। पर उससे हमारे अपने शरीर का कोई संबंध नहीं। हम अपने शरीर के संबंध में बहुत कम जानते हैं। इसका कारण क्या है? यह कि हम मन को उतनी दूर तक एकाग्र नहीं कर सकते, जिससे हम शरीर के भीतर की अति सूक्ष्म गतियों तक को समझ सकें। मन जब बाह्य विषयों का परित्याग कर देह के भीतर प्रविष्ट होता है और अत्यंत सूक्ष्मावस्था प्राप्त करता है, तभी हम उन गतियों को जान सकते हैं। इस प्रकार सूक्ष्म अनुभूति संपन्न होने के लिए हमें पहले स्थूल से आरम्भ करना होगा। देखना होगा, सारे शरीर-यंत्र को चलाता कौन है और उसे अपने वश में लाना होगा। वह प्राण है, इसमें कोई संदेह नहीं। श्वास-प्रश्वास ही उस प्राण-शक्ति का प्रत्यक्ष परिदृश्यमान रूप है। अब, श्वास-प्रश्वास के साथ धीरे-धीरे शरीर के भीतर प्रवेश करना होगा। इसी से हम देह के भीतर की सूक्ष्म से सूक्ष्म शक्तियों के संबंध में जानकारी प्राप्त कर सकेंगे और समझ सकेंगे कि स्नायविक शक्तिप्रवाह किस तरह शरीर में सर्वत्र भ्रमण कर रहे हैं। और जब हम मन में उनका अनुभव कर सकेंगे, तब वे और उनके साथ देह भी हमारे अधिकार में आ जायेगी। मन भी इन सब स्नायविक शक्ति-प्रवाहों द्वारा संचालित हो रहा है। इसीलिए उन पर विजय पाने से मन और शरीर दोनों ही हमारे अधीन हो जाते हैं, हमारे दास बन जाते हैं। ज्ञान ही शक्ति है और यह शक्ति प्राप्त करना ही हमारा उद्देश्य है। अतएव स्नायुओं के भीतर जो शक्तिप्रवाह सतत् चल रहे हैं, उनके और शरीर के संबंध में ज्ञान प्राप्त कर लेना विशेष आवश्यक है। इसलिए हमें प्राणायाम से प्रारंभ करना होगा। इस प्राणायाम-तत्व की विशेष आलोचना के लिए दीर्घ समय की आवश्यकता है-इसको अच्छी तरह समझाते बहुत दिन लगेंगे। हम क्रमशः उसका एक-एक अंश लेकर आलोचना करेंगे।
हम क्रमशः समझ सकेंगे कि प्राणायाम के साधन में जो क्रियाएँ की जाती हैं, उनका हेतु क्या है और प्रत्येक क्रिया से देह के भीतर किस प्रकार की शक्ति प्रवाहित होती है। क्रमशः यह सब हमें बोधगम्य हो जायेगा। परन्तु इसके लिए निरंतर साधना आवश्यक है। साधना के द्वारा ही मेरी बात की सत्यता का प्रमाण मिलेगा। मैं इस विषय में कितनी भी युक्तियों का प्रयोग क्यों न करूँ? पर तुम्हें उस समय तक कोई भी उपादेय न जान पड़ेगी, जब तक तुम स्वयं प्रत्यक्ष न कर लोगे। जब देह के भीतर इन शक्तियों के प्रवाह की गति स्पष्ट अनुभव करने लगोगे, तभी सारे संशय दूर होंगे। परन्तु इसके अनुभव के लिए प्रत्यह कठोर अभ्यास आवश्यक है। प्रतिदिन कम-से-कम दो बार अभ्यास करना चाहिए और उस अभ्यास का उपयुक्त समय है–प्रातः और सायं। जब रात बीतती है और पौ फटती है तथा जब दिन बीतता है और रात आती है, इन दो समय में प्रकृति अपेक्षाकृत शांत भाव धारण करती है। ब्राह्ममुहूर्त और गोधूलि ये दो समय मन की स्थिरता के लिए अनुकूल हैं। इन दो समय शरीर बहुत-कुछ शान्तभावापन्न रहता है। इस समय साधना करने से प्रकृति हमारी काफी सहायता करेगी, इसलिए इन्हीं दो समयों में साधना करना आवश्यक है। यह नियम बना लो कि साधना समाप्त किए बिना भोजन न करोगे। ऐसा नियम बना लेने पर भूख का प्रबल वेग ही तुम्हारा आलस्य नष्ट कर देगा। भारतवर्ष में बालक यही शिक्षा पाते हैं कि स्नान-पूजा और साधना किए बिना भोजन नहीं करना चाहिए। कालान्तर में यह उनके लिए स्वाभाविक हो जाता है, उनकी जब तक स्नान-पूजा और साधना समाप्त नहीं हो जाती, तब तक उन्हें भूख नहीं लगती। |
तुममें से जिनको सुभीता हो, वे साधना के लिए यदि एक स्वतंत्र कमरा रख सकें, तो अच्छा हो। इस कमरे को सोने के काम में न लाओ। इसे पवित्र रखो। बिना स्नान किए और शरीर-मन को बिना शुद्ध किए इस कमरे में प्रवेश न करो। इस कमरे में सदा पुष्प और हृदय को आनंद देने वाले चित्र रखो। योगी के लिए ऐसे वातावरण में रहना बहुत उत्तम है। सुबह और शाम वहाँ धूप और चंदन-चूर्ण आदि जलाओ। उस कमरे में किसी प्रकार का क्रोध, कलह और अपवित्र चिन्तन न किया जाय। तुम्हारे साथ जिनके भाव मिलते हैं, केवल उन्हीं को उस कमरे में प्रवेश करने दो। ऐसा करने पर शीघ्र वह कमरा सत्त्वगुण से पूर्ण हो जायेगा, यहाँ तक कि जब किसी प्रकार का दुःख या संशय आए अथवा मन चंचल हो, तो उस समय उस कमरे में प्रवेश करते ही तुम्हारा मन शांत हो जायेगा। मन्दिर, गिरजाघर आदि के निर्माण का सच्चा उद्देश्य यही था। अब भी बहुत से मन्दिरों और गिरजाघरों में यह भाव देखने को मिलता है परन्तु अधिकतर स्थलोंं में लोग इनका उद्देश्य तक भूल गए हैं। चारों ओर पवित्र चिंतन के परमाणु सदा स्पंदित होते रहने के कारण वह स्थान पवित्र ज्योति से भरा रहता है। जो इस प्रकार के स्वतंत्र कमरे की व्यवस्था नहीं कर सकते, वे जहाँ इच्छा हो वहीं बैठकर साधना कर सकते हैं। शरीर को सीधा रखकर बैठो। संसार में पवित्र चिंतन का एक स्रोत बहा दो। मन-ही-मन कहो–“संसार में सभी सुखी हों, सभी शांति लाभ करें, सभी आनंद पावें।” इस प्रकार पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण, चहुँ ओर पवित्र चिन्तन की धारा बहा दो। ऐसा जितना करोगे, उतना ही तुम अपने को अच्छा अनुभव करने लगोगे। बाद में देखोगे, “दूसरे सब लोग स्वस्थ हों”, यह चिन्तन ही स्वास्थ्य-लाभ का सहज उपाय है। दूसरे लोग सुखी हों, ऐसी भावना ही अपने को सुखी करने का सहज उपाय है। इसके बाद जो लोग ईश्वर पर विश्वास करते हैं, वे ईश्वर के निकट प्रार्थना करें–अर्थ, स्वास्थ्य अथवा स्वर्ग के लिए नहीं, वरन् हृदय में ज्ञान और सत्य-तत्व के उन्मेष के लिए। इसके छोड़ बाकी सब प्रार्थनाएँ स्वार्थ से भरीं हैं। इसके बाद भावना करनी होगी “मेरा शरीर वज्रवत् दृढ़, सबल और स्वस्थ है। यह देह ही मेरी मुक्ति में एकमात्र सहायक है। इसी की सहायता से मैं यह जीवन-समुद्र पार कर लूँगा।” जो दुर्बल हैं वह कभी मुक्ति नहीं पा सकता। समस्त दुर्बलताओं का त्याग करो। देह से कहो, “तुम खूब बलिष्ठ हो।” मन से कहो, “तुम अनंत शक्तिधर हो।” और स्वयं पर प्रबल विश्वास और भरोसा रखो।
“प्रणायामक्षपितमनिमलस्य चित्त ब्रह्मणि स्थित भवतीति प्राणायामों निर्दिश्यते। प्रथम नाड़ीशोधन कर्तव्यम्। तत प्राणायामे अधिकार। दक्षिण-नासिकपुटंगुल्यावष्टभ्य वामेन वायु पूरयेत् यथाशक्ति। ततोअनन्तरभुत्सृज्यैव दक्षिणेन पुटेन समुत्सृजेत्। सव्यमपि धारयेत्। पुनरदक्षिणेन पूरयित्वा सव्येन समुत्सृजेत् यथाशक्ति। त्रि पचकरितो व एव अभ्यस्यतः स्वचतुष्टयमपररात्रे मध्याह्ने पूर्वरात्रे अर्धरात्रे च पक्षांमाविशुद्धिर्भवति।” – श्वेताश्वतर उपनिषद शांकरभाष्य (द्वितीय अध्याय, अष्टम् श्लोक)