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अष्टम अध्याय – संक्षेप में राजयोग

24 अप्रैल 2022

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स्वामी विवेकानंद की प्रसिद्ध पुस्तक राजयोग का यह अंतिम अध्याय है। इससे पिछले अध्याय में वे आख़िरी दो अङ्गों–ध्यान और समाधि–को भली-भाँति समझा चुके हैं। यहाँ स्वामी जी संक्षेप में संपूर्ण राजयोग को निरूपित कर रहे हैं तथा उसके सभी आठों अंगों की सरल व्याख्या भी प्रस्तुत कर रहे हैं। अंत में नारद मुनि की कहानी के माध्यम से यह भी बताया गया है कि योग की साधना में किस तरह का भाव होना चाहिए।

योगाग्नि मनुष्य के पाप-पिंजर को दग्ध कर देती है। तब सत्त्वशुद्धि होती है और साक्षात् निर्वाण की प्राप्ति होती है। योग से ज्ञानलाभ होता है, ज्ञान फिर योगी की मुक्ति के पथ का सहायक है। जिनमें योग और ज्ञान दोनों ही वर्तमान है, ईश्वर उनके प्रति प्रसन्न होते हैं। जो लोग प्रतिदिन एक बार, दो बार, तीन बार या सारे समय महायोग का अभ्यास करते हैं, उन्हें देवता समझना चाहिए। योग दो प्रकार के हैं, जैसे–अभावयोग और महायोग। जब शून्य तथा सब प्रकार के गुण से रहित रूप से अपना चिन्तन किया जाता है, तब उसे अभावयोग कहते हैं। और जिस योग के द्वारा आत्मा का आनन्दपूर्ण, पवित्र और ब्रह्म के साथ अभिन्न रूप से चिन्तन किया जाता है, उसे महायोग कहते हैं। योगी इनमें से प्रत्येक के द्वारा ही आत्मसाक्षात्कार कर लेते हैं। हम दूसरे जिन योगों के बारे में शास्त्रों में पढ़ते या सुनते हैं, वे सब योग इस ब्रह्मयोग के–जिस ब्रह्मयोग में योगी अपने को तथा सारे जगत् को साक्षात् भगवत्स्वरूप देखते हैं–एक अंश के बराबर भी नहीं हो सकते हैं। यही सारे योगों में श्रेष्ठ है।

यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि–ये राजयोग के विभिन्न अंग या सोपान हैं। यम का अर्थ है–अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह। इस यम से चित्तशुद्धि होती है। शरीर, मन और वचन के द्वारा कभी किसी प्राणी की हिंसा न करना या उन्हें क्लेश न देना–यह अहिंसा कहलाता है। अहिंसा से बढ़कर और धर्म नहीं। मनुष्य के लिए जीव के प्रति यह अहिंसा-भाव रखने से अधिक और कोई उच्चतर सुख नहीं है। सत्य से सब कुछ मिलता है, सत्य में सब कुछ प्रतिष्ठित है। यथार्थ कथन को ही सत्य कहते हैं। चोरी से या बलपूर्वक दूसरे की चीज को न लेने का नाम है–अस्तेय। तन-मन-वचन से सर्वदा सब अवस्थाओं में मैथुन का त्याग ही ‘ब्रह्मचर्य’ है। अत्यंत कष्ट के समय में भी किसी मनुष्य से कोई उपहार ग्रहण न करने को ‘अपरिग्रह’ कहते हैं। अपरिग्रह-साधना का उद्देश्य यह है कि किसी से कुछ लेने से हृदय अपवित्र हो जाता है, लेने वाला हीन हो जाता है, वह अपनी स्वतंत्रता खो बैठता है और बद्ध एवं आसक्त हो जाता है।

तप, स्वाध्याय, संतोष, शौच और ईश्वरप्रणिधान–इन्हें नियम कहते हैं। ‘नियम’ शब्द का अर्थ है नियमित अभ्यास और व्रत-परिपालन। व्रतोपवास या अन्य उपायों से देह-संयम करना शारीरिक तपस्या कहलाता है। वेद-पाठ या दूसरे किसी मंत्रोच्चारण को सत्त्वशुद्धिकर ‘स्वाध्याय’ कहते हैं। मंत्र जपने के लिए तीन प्रकार के नियम हैं–वाचिक, उपांशु और मानस। वाचिक से उपांशु जप श्रेष्ठ है और उपांशु से मानस-जप। जो जप इतने ऊँचे स्वर से किया जाता है कि सभी सुन सकते हैं, उसे वाचिक-जप कहते हैं। जिस जप में ओठों का स्पंदन मात्र होता है, पर पास रहने वाला कोई मनुष्य सुन नहीं सकता, उसे उपांशु कहते हैं। और जिसमें किसी शब्द का उच्चारण नहीं होता, केवल मन-ही-मन जप किया जाता है और उसके साथ उस मन्त्र का अर्थ स्मरण किया जाता है, उसे मानसिक-जप कहते हैं। यह मानसिकजप ही श्रेष्ठ है। ऋषियों ने कहा है–शौच दो प्रकार के हैं–बाह्य और आभ्यन्तर। मिट्टी, जल या दूसरी वस्तुओं से शरीर को शुद्ध करना बाह्यशौच कहलाता है, जैसे–स्नानादि। सत्य एवं अन्यान्य धर्मों के पालन से मन की शुद्धि को आभ्यन्तरशौच कहते हैं। बाह्य और आभ्यन्तर दोनों ही शुद्धि आवश्यक है। केवल भीतर में पवित्र रहकर बाहर में अशुचि रहने से शौच पूरा नहीं हुआ। जब कभी दोनों प्रकार के शौच का अनुष्ठान करना संभव न हो, तब अभ्यन्तरशौच का अवलम्बन ही श्रेयस्कर है। पर ये दोनों शौच हुए बिना कोई भी योगी नहीं बन सकता। ईश्वर की स्तुति, स्मरण और पूजार्चनारूप भक्ति का नाम ‘ईश्वरप्रणिधान’ है।

यह तो यम और नियम के बारे में हुआ। उसके बाद है ‘आसन’। आसन के बारे में इतना ही समझ लेना चाहिए कि वक्षस्थल, ग्रीवा और सिर को सीधे रखकर शरीर को स्वच्छंद भाव से रखना होगा। अब प्राणायाण के बारे में कहा जायेगा। प्राण का अर्थ है अपने शरीर के भीतर रहने वाली जीवनी-शक्ति और आयाम का अर्थ है उसका संयम। प्राणायाम तीन प्रकार के हैं–अधम, मध्यम और उत्तम। वह तीन भागों में विभक्त है, जैसे–पूरक, कुम्भक और रेचक। जिस प्राणायाम में 12 सेकण्ड तक वायु का पूरण किया जाता है, उसे अधम प्राणायाम कहते हैं। 24 सेकण्ड तक वायु का पूरण करने से मध्यम प्राणायाम, और 36 सेकण्ड तक वायु का पूरण करने से उत्तम प्राणायाम कहते हैं। अधम प्राणायाम से पसीना, मध्यम प्राणायाम से कंपन और उत्तम प्राणायाम से उच्छ्वास अर्थात् शरीर का हल्कापन एवं चित्त की प्रसन्नता होती है। गायत्री वेद का पवित्रतम मंत्र है। उसका अर्थ है, “हम इस जगत् के जन्मदाता परम देवता के तेज का ध्यान करते हैं, वे हमारी बुद्धि में ज्ञान का विकास कर दें।” इस मंत्र के आदि और अंत में प्रणव लगा हुआ है। एक प्राणायाम में गायत्री का तीन बार मन-ही-मन उच्चारण करना पड़ता है। प्रत्येक शास्त्र में कहा गया है कि प्राणायाम तीन अंशों में विभक्त है–जैसे, रेचक अर्थात् श्वास-त्याग, पूरक अर्थात् श्वास-ग्रहण और कुम्भक अर्थात् स्थिति–भीतर में धारण करना। अनुभवशक्तियुक्त इन्द्रियाँ लगातार बहिर्मुखी होकर काम कर रही हैं और बाहर की वस्तुओं के सम्पर्क में आ रही हैं। उनको अपने वश में लाने को प्रत्याहार कहते हैं। अपनी ओर खींचना या आहरण करना–यही प्रत्याहार शब्द का प्रकृत अर्थ है।

हृत्कमल में या सिर के ठीक मध्य देश में या शरीर के अन्य किसी स्थान में मन को धारण करने का नाम है “धारणा”। मन को एक स्थान में संलग्न करके, फिर उस एकमात्र स्थान को अवलम्बनस्वरूप मानकर एक विशिष्ट प्रकार के वृत्ति-प्रवाह उठाए जाते हैं, दूसरे प्रकार के वृत्ति-प्रवाहों से उनको बचाने का प्रयत्न करते-करते वे प्रथमोक्त वृत्ति-प्रवाह क्रमशः प्रबल आकार धारण कर लेते हैं, और ये दूसरे वृत्ति-प्रवाह कम होते-होते अंत में बिल्कुल चले जाते हैं। फिर बाद में उन प्रथमोक्त वृत्तियों का भी नाश हो जाता है और केवल एक वृत्ति वर्तमान रह जाती है। इसे “ध्यान” कहते हैं। और जब इस अवलम्बन की भी कोई आवश्यकता नहीं रह जाती, सम्पूर्ण मन जब एक तरंग के रूप में परिणत हो जाता है, तब मन की इस एकरूपता का नाम है “समाधि”। तब किसी विशेष प्रदेश या चक्र-विशेष का अवलम्बन करके ध्यान-प्रवाह उत्थापित नहीं होता, केवल ध्येय वस्तु का भाव (अर्थ) मात्र अवशिष्ट रहता है। यदि मन को किसी स्थान में 12 सेकण्ड धारण किया जाय, तो उससे एक धारणा होगी, यह धारणा द्वादश गुणित होने पर एक ध्यान, और यह ध्यान द्वादश गुणित होने पर एक समाधि होगी।

सूखे पत्तों से ढकी हुई ज़मीन पर, चौराहे पर, अत्यंत कोलाहलपूर्ण या डरावने स्थान में, दीमक के ढेर के समीप, अथवा जहाँ अग्नि या जल से किसी भय की आशंका हो, जहाँ जंगली जानवर हो, जो स्थान दुष्ट लोगों से भरा हो–ऐसे स्थानों में योग की साधना करना उचित नहीं। यह व्यवस्था विशेषकर भारत के बारे में लागू होती है। जब शरीर अत्यंत आलसी या बीमार मालूम होता हो अथवा जब मन अत्यंत दुःखपूर्ण रहता हो, तब भी साधना नहीं करनी चाहिए। किसी गुप्त और निर्जन स्थान में जाकर साधना करो, जहाँ लोग तुम्हें बाधा पहुँचाने न आ सकें। अपवित्र जगह में बैठकर साधना मत करना, वरन् सुन्दर दृश्य वाले स्थान में या अपने घर की एक सुन्दर कोठरी में बैठकर साधना करना। साधना में प्रवृत्त होने के पहले समस्त प्राचीन योगियों, अपने गुरुदेव तथा भगवान को प्रणाम करना और फिर साधना में प्रवृत्त होना।

ध्यान का विषय पहले ही कहा जा चुका है। अब ध्यान की कुछ प्रणालियाँ वर्णित की जाती हैं। सीधे बैठकर अपनी नाक के ऊपरी भाग पर दृष्टि रखो। तुम देखोगे कि उससे मन की स्थिरता में विशेष रूप से सहायता मिलती है। आँख के दो स्नायुओं को वश में लाने से प्रतिक्रिया के केन्द्र-स्थल को काफ़ी वश में लाया जा सकता है, अतः उससे इच्छाशक्ति भी बहुत अधीन हो जाती है। अब ध्यान के कुछ प्रकार कहे जाते हैं। सोचो, सिर के ऊर्ध्व देश में एक कमल है, धर्म उसका मूल-देश है, ज्ञान उसकी नाल है, योगी की अष्टसिद्धियाँ उस कमल के आठ दलों के समान हैं और वैराग्य उसके अंदर की कर्णिका है। जो योगी अष्टसिद्धियाँ आने पर भी उनको छोड़ सकते हैं, वे ही मुक्ति प्राप्त करते हैं। इसीलिए अष्टसिद्धियों को बाहर के आठ दलों के रूप में, तथा अन्दर की कर्णिका का परवैराग्य अर्थात् अष्टसिद्धियाँ आने पर भी उनके प्रति वैराग्य के रूप में वर्णन किया गया है। इस कमल के अंदर हिरण्मय, सर्वशक्तिमान्, अस्पृश्य, ओंकारवाच्य, अव्यक्त, किरणों से परिव्याप्त परमज्योति का चिन्तन करो। उस पर ध्यान करो।

और एक प्रकार के ध्यान का विषय बताया जाता है–सोचो कि तुम्हारे हृदय में एक आकाश है, और उस आकाश के अंदर अग्निशिखा के समान एक ज्योति उद्भासित हो रही है–उस ज्योतिशिखा को अपनी आत्मा के रूप में चिन्तन करो, फिर उस ज्योति के अंदर और एक ज्योतिर्मय आकाश की भावना करो वही तुम्हारी आत्मा की आत्मा है–परमात्मस्वरूप ईश्वर है। हृदय में उसका ध्यान करो। ब्रह्मचर्य, अहिंसा, महाशत्रु को भी क्षमा कर देना, सत्य, आस्तिक्य–ये सब विभिन्न व्रत हैं। यदि इन सब में तुम सिद्ध न रहो, तो भी दुःखित या भयभीत मत होना। प्रयत्न करो, धीरे-धीरे सब हो जायगा। विषय की लालसा, भय और क्रोध छोड़कर जो भगवान के शरणागत हुए हैं, उनमें तन्मय हो गए हैं, जिनका हृदय पवित्र हो गया है, वे भगवान के पास जो कुछ चाहते हैं, भगवान उसी समय उसकी पूर्ति कर देते हैं। अतः ज्ञान, भक्ति या वैराग्य योग से उनकी उपासना करो।

“जो किसी की हिंसा नहीं करते, जो सबके मित्र हैं, जो सबके प्रति करुणासम्पन्न हैं, जिनका अहंकार चला गया है, जो सदैव संतुष्ट हैं, जो सर्वदा योगयुक्त, यतात्मा और दृढ़-निश्चय वाले हैं, जिनका मन और बुद्धि मुझमें अर्पित हो गई है, वे ही मेरे प्रिय भक्त हैं। जिनसे लोग उद्विग्न नहीं होते, जो लोगों से उद्विग्न नहीं होते, जिन्होंने अतिरिक्त हर्ष, दुःख, भय और उद्वेग त्याग दिया है, ऐसे भक्त ही मेरे प्रिय हैं। जो किसी का भरोसा नहीं करते, जो शुचि और दक्ष हैं, सुख और दुःख में उदासीन हैं, जिनका दुःख चला गया है, जो निंदा और स्तुति में समभावापन्न हैं, मौनी हैं, जो कुछ पाते हैं, उसी में संतुष्ट रहते हैं, जिनका कोई निर्दिष्ट घर-बार नहीं, सारा जगत् ही जिनका घर है, जिनकी बुद्धि स्थिर है, ऐसे व्यक्ति ही मेरे प्रिय भक्त हैं।” (गीता, 12|13-19) ऐसे व्यक्ति ही योगी हो सकते हैं।

नारद नाम के एक पहुँचे हुए ऋषि थे। जैसे मनुष्यों में ऋषि या बड़े-बड़े योगी रहते हैं, वैसे ही देवताओं में भी बड़े-बड़े योगी हैं। नारद भी वैसे ही एक महायोगी थे। वे सर्वत्र भ्रमण किया करते थे। एक दिन एक वन में से जाते हुए उन्होंने देखा कि एक मनुष्य ध्यान कर रहा है। वह ध्यान में इतना मग्न है और इतने दिनों से एक ही आसन पर बैठा है कि उसके चारों ओर दीमक का ढेर लग गया है। उसने नारद से पूछा, “प्रभो, आप कहाँ जा रहे हैं?” नारदजी ने उत्तर दिया, “वैकुण्ठ जा रहा हूँ।” तब उसने कहा, “अच्छा, आप भगवान से पूछते आएँ, वे मुझ पर कब कृपा करेंगे? मैं कब मुक्ति प्राप्त करूँगा?” फिर कुछ दूर और जाने पर नारदजी ने एक दूसरे मनुष्य को देखा। वह कूद-फाँद रहा था, कभी नाचता था तो कभी गाता था। उसने भी नारदजी से वही प्रश्न किया। उस व्यक्ति का कण्ठस्वर, वाग्-भगी आदि सभी उन्मत्त के समान थे। नारदजी ने उसे भी पहले के समान उत्तर दिया। वह बोला, “अच्छा, तो भगवान से पूछते आएँ, मैं कब मुक्त होऊँगा?” लौटते समय नारदजी ने दीमक के ढेर के अंदर रहनेवाले उस ध्यानस्थ योगी को देखा। उस योगी ने पूछा, “देवर्षे, क्या आपने मेरी बात पूछी थी?” नारदजी बोले, “हाँ, पूछी थी।” योगी ने पूछा, “तो उन्होनें क्या कहा?” नारदजी ने उत्तर दिया, “भगवान ने कहा, ‘मुझको पाने के लिए उसे और चार जन्म लगेंगे।’” तब तो वह योगी घोर विलाप करते हुए कहने लगा, “मैंने इतना ध्यान किया है कि मेरे चारों ओर दीमक का ढेर लग गया, फिर भी मुझे और चार जन्म लेने पड़ेंगे!” नारदजी तब दूसरे व्यक्ति के पास गए। उसने भी पूछा, “क्या आपने मेरी बात भगवान से पूछी थी?” नारदजी बोले, “हाँ, भगवान ने कहा है, उसके सामने जो इमली का पेड़ है, उसके जितने पत्ते हैं, उतनी बार उसको जन्म ग्रहण करना पड़ेगा।” यह बात सुनकर वह व्यक्ति आनंद से नृत्य करने लगा और बोला, “मैं इतने कम समय में मुक्ति प्राप्त करूँगा!” तब एक दैववाणी हुई, “वत्स, तुम इसी क्षण मुक्ति प्राप्त करोगे।” वह दूसरा व्यक्ति इतना अध्यवसायसम्पन्न था! इसीलिए उसे वह पुरस्कार मिला। वह इतने जन्म साधना करने के लिए तैयार था। कुछ भी उसे उद्योग-शून्य न कर सका। परन्तु वह प्रथमोक्त व्यक्ति चार जन्मों की ही बात सुनकर घबरा गया। जो व्यक्ति मुक्ति के लिए सैकड़ों युग तक बाट जोहने को तैयार था, उसके समान अध्यवसायसम्पन्न होने पर ही उच्चतम फल प्राप्त होता है।

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रचनाएँ
राजयोग
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ऐतिहासिक जगत् के प्रारम्भ से लेकर वर्तमान काल तक मानव-समाज में अनेक अलौकिक घटनाओं के उल्लेख देखने को मिलते है! आज भी, जी समाज आधुनिक विज्ञान के भरपूर आलोक में रह रहे है, उनमें भी ऐसी घटनाओं की गवाही देनेवाले लोगो की कमी नहीं।
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