ऐ सहोदर द्वेष कैसा,प्रेम सरिता में बहो
मातृ निर्मल प्रेम को, कुछ मै गहू कुछ तुम गहो
पिता कुंठित रो रहा है, उसका गौरव खो रहा है।
टूट गया सपना सुनहरा, तू अभी तक सो रहा है।
मेरे अग्रज जनक हित, कुछ मै साहू कुछ तुम सहो
मातृ निर्मल प्रेम को, कुछ मै गहू कुछ तुम गहो
लगरहा है तुम्हें छल में प्रेम को दिखला रहा हूं
तुम्हे ठगने के लिए तेरा हृदय पिघला रहा हूं
आत्म चिंतन की डगर कुछ मै चालू कुछ तुम चलो
मातृ निर्मल प्रेम को, कुछ मै गहू कुछ तुम गहो
सत्रु की पहचान करना अब कठिन होने लगा है
भावना से खेलते हो धैर्य अब खोने लगा है।
मुझे ठग तुम कह रहे हो, निज हृदय को झाक लो
भाई को भाई ना समझे उसकी पीड़ा आंक लो
मातृ ऋण से बंधा हूं बस इसलिए मै मौन
और तुम बेआदब मुझसे पूछते हो मै कौन हूं
सत्य पथ पहचान कर कुछ मै बढूं कुछ तुम बढ़ो।
मातृ निर्मल प्रेम को, कुछ मै गहू कुछ तुम गहो