5thMarch,2016 स्थान- बिझौली (रुड़की), जगह-गेहूं के खेत । लहलहाते गेहूं की
हरी-हरी बालियों, बरसीम की हरयाली व खाली हुए गन्ने के खेत की मेंढ पर बैठे हुए न जाने कब मै विचारों में खो गया, पता ही न चला । सोचने लगा- सनातन( हिन्दू) धर्म में 100 वर्ष की आयु को क्रमशः ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ व संन्यास में बांटा गया है। जीवन की दो अवस्था पार होने को है। बिटिया का C.A.
(Final) यदि C.A. May,2016 में आयोजित होने वाली परीक्षा में हो जाता है, तो मैं वानप्रस्थ में
प्रवेश कर, समाज की उन्नति में तुच्छ योगदान देते हुए थोड़ा सा ऋण
चुकाने का प्रयास करूंगा। खंडहर में तब्दील हो चुका गाँव का पुस्तैनी मकान जो वर्ष 1989 में कच्छा-बनियान गिरोह दवरा पिताश्री की हत्या के बाद से खाली पड़ा है। सुरक्षा के अभाव, रोजगार, पढ़ाई
आदि के कारण घर के लोग शहर पलायन कर गए। उसी मकान में रहकर फिर से नये
पपीते के पेड़ लगाउँगा। गाय की सेवा करते हुए खंडहर हो
चुके मकान में फिर से प्राण फूकूंगा। यही रह कर पुरानी बचपन की यादों के बीच कुछ दिन गुजारूँगा। दादा-बाबा श्री, माता-पिता
श्री की आत्मा जिस बची खुची दो-चार बीघा खेती की जमीन में बसी है, से जुड़ कर जमीन से जुड़ा आदमी बन वानप्रस्थ जीवन की शुरूआत करूंगा। यही रहकर कॉमर्स पोस्ट
ग्रेजुएशन तक मस्ती भरे गुजरे बचपन की याद पुनः ताजा करूंगा।
विचारों का सिलसिला आगे
बढ़ने लगा, सोचने लगा- मनुंयों के अतिरिक्त भी अन्य जीवों में भी जन्मभूमि के प्रति प्रेम होता है। यह बात अलग
है कि आज कुछ नादान जन्मभूमि
की बर्बादी का नारा लगाते है, और पूर्वजों की आत्मा को कष्ट देते है। किसी को भारत माता की जयकार करने शर्म आती है। आखिर जन्मभूमि क्या है? इसका प्रेम क्या है? इससे बिछड़ने का दर्द क्या हैं? इससे बेदखल या बिछड़ने वाले आदमी से बेहतर भला कौन जान सकता है ? सुरक्षा का अभाव, पढ़ाई व रोजगार जैसे कारणों से गावं से पलायन का दर्द मुझे आज भी अंदर तक टीस
जाता है।
पाकिस्तान से आये
शरणार्थी , घर से बेघर हुए कश्मीरी पंड़ित , सुरक्षा के अभाव में दर-दर की ठोकर खाते , पलायन करते ग्रहयुद्ध में जूझ रहे अन्य देशों के लोग जैसे सीरियाई , आजादी के लिए लड़ते बलूचिस्तान के लोग ? इन सबसे पूछों जन्मभूमि क्या होती है ? उसका प्रेम क्या होता है? उससे बिछड़ने का क्या दर्द होता है ? उसकी बर्बादी की कितनी कीमत चुकानी पड़ती है ? जन्मभूमि का प्रेम ही सेमन (SALMON) मछली को पानी की
विपरीत धारा को चीरने ,शिकारियों
से लड़ने की प्रेरणा देता है। इसी प्रेम में वह अपना जीवन न्योछावर कर देती है। यही है जन्मभूमि , यही है मातृभूमि का प्रेम अर्थात “ जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी “।
मैं सुनसान जंगल में विचारों के समुंद्र की गहर्राई में नीचे और नीचे उतरता जा रहा था। तभी आवाज आयी- “अरे क्या सोच रहे हो “। घर नहीं चलना। विचार टूट चुके थे। खेत की मेंढ से उठते हुए मुहं से अनायस ही निकल पड़ा। चलो ! भारत माता की जय !