तीन मंजिला हवेली को मैं आते ही चंद मिनटों में नाप देता था।पीछे गली में झांक कर उधर रहने वालों को भी बता देता कि हम आ गए है।
नाना जी काफी पहले ही कैंसर से लड़ते हुए स्वर्ग सिधार चुके थे।नानी जी ने अकेले के दम पर पूरी खेती बाडी सम्हाली हुई थी।क्योंकि तीनों मामा क्रमश: औरंगाबाद,बुलढाणा और इगतपुरी में अपनी नौकरियों में व्यस्त थे।
नानी जी एक छोटे कद की महिला थी,लेकिन आत्मविश्वास ऊंचा था,स्वाभिमानी,दबंग ,स्पष्टवादी,पढ़ी लिखी विदुषी महिला थी। गांव में रहने के बावजूद मैंने कभी उन्हें ठेठ खानदेशी बोली बोलते नहीं देखा।वो हमेशा शुद्ध मराठी बोलती थी।हिसाब किताब की पक्की और मजदूरों से भी हिसाब से पुरा काम करा लेती थी।उस जमाने में आज की औरतों वाली पर्स नहीं होती थी। नानी शहर भी जाती तो एक छोटी सी बटुए नुमा थैली अपने नौवारी साड़ी में कमर पे खोंस लेती।बहुत चतुर और सतर्क महिला थी।दैनिक क्रिया से निवृत्त होकर चाय पीने के बाद ढोर कोठे की तरफ निकल जाता। नानी के यहां दो भैंसें और दो गाएं थी।एक सफेद गाय के सींग नीचे की तरफ होने से उसका नाम होंडी रखा था। मैं हमारे साल - दार एकनाथ दादा के साथ जाकर गाय भैंसों को चारा भी देता था।रास्ते में मुरलीधर आजोबा (नाना) ,गंगाधर आजोबा,नीलकंठ दादा,तुकाराम बुआ,माधव मामा आदि से दुआ सलाम करते हुए फिर घर पहुंच जाता।(सालदार : एक ऐसा नौकरदार जो साल भर के लिए निर्धारित कर दिया जाता है)।
बचपन में मैंने जो गांव का माहौल देखा,आज भी आंखों में बसा है।हम सभी ममेरे फुफेरे भाई बहन मोहल्ले के किसी भी घर खाना खा लेते थे। रात होते ही गली में खाटों की कतार बिछ जाती,गर्मी में बाहर सोने का आनंद ही कुछ और होता था। लेटे लेटे बातें करते करते एक एक कर थके मांदे सभी नींद के आगोश में चले जाते।नींद तभी खुलती जब सुबह खेत की ओर बैलगाड़ियां जाने के लिए तैयार हो जाती।
मैं तो अक्सर थाली ले कर पेमा मामा के घर मेरे भाई मुकुंद के साथ खाना खाता था।आसपास के कुछ बच्चों को इकठ्ठा कर मैं और मुकुंद अलग अलग खेल आयोजित करते रहते। गांव के वातावरण में कोई छल कपट नहीं,कोई दिखावा नहीं,बस प्रेम ही प्रेम दिखता था।
हमारी ममेरी बहन अक्का अपनी सहेलियों के साथ अपने अपने घरों से लाए अचार का जब तब रसास्वादन करती रहती।घर के भीतर से एक दरवाजे को ठोककर जगु मामा और कमल मामी से चाय नाश्ते के लिए आने की बात हो जाती।कभी भी उस दरवाजे से उस पार मैसेज का आदान प्रदान हो जाता।बड़ी नानी तुलसा आजी और वना बोय आज भी याद आती है। मैं तो पूरे मोहल्ले का प्रिय था क्योंकि बातें बनाना मुझे बहुत आता था।पड़ोस की कमल आजी, वच्छा आजी, शकु वाहिनी सभी की यादें आज भी धूमिल नहीं हुई है।
आगे जारी हैं।भाग 3 में।