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एक था बचपन (संस्मरण)भाग 2

9 जुलाई 2020

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तीन मंजिला हवेली को मैं आते ही चंद मिनटों में नाप देता था।पीछे गली में झांक कर उधर रहने वालों को भी बता देता कि हम आ गए है।

नाना जी काफी पहले ही कैंसर से लड़ते हुए स्वर्ग सिधार चुके थे।नानी जी ने अकेले के दम पर पूरी खेती बाडी सम्हाली हुई थी।क्योंकि तीनों मामा क्रमश: औरंगाबाद,बुलढाणा और इगतपुरी में अपनी नौकरियों में व्यस्त थे।

नानी जी एक छोटे कद की महिला थी,लेकिन आत्मविश्वास ऊंचा था,स्वाभिमानी,दबंग ,स्पष्टवादी,पढ़ी लिखी विदुषी महिला थी। गांव में रहने के बावजूद मैंने कभी उन्हें ठेठ खानदेशी बोली बोलते नहीं देखा।वो हमेशा शुद्ध मराठी बोलती थी।हिसाब किताब की पक्की और मजदूरों से भी हिसाब से पुरा काम करा लेती थी।उस जमाने में आज की औरतों वाली पर्स नहीं होती थी। नानी शहर भी जाती तो एक छोटी सी बटुए नुमा थैली अपने नौवारी साड़ी में कमर पे खोंस लेती।बहुत चतुर और सतर्क महिला थी।दैनिक क्रिया से निवृत्त होकर चाय पीने के बाद ढोर कोठे की तरफ निकल जाता। नानी के यहां दो भैंसें और दो गाएं थी।एक सफेद गाय के सींग नीचे की तरफ होने से उसका नाम होंडी रखा था। मैं हमारे साल - दार एकनाथ दादा के साथ जाकर गाय भैंसों को चारा भी देता था।रास्ते में मुरलीधर आजोबा (नाना) ,गंगाधर आजोबा,नीलकंठ दादा,तुकाराम बुआ,माधव मामा आदि से दुआ सलाम करते हुए फिर घर पहुंच जाता।(सालदार : एक ऐसा नौकरदार जो साल भर के लिए निर्धारित कर दिया जाता है)।

बचपन में मैंने जो गांव का माहौल देखा,आज भी आंखों में बसा है।हम सभी ममेरे फुफेरे भाई बहन मोहल्ले के किसी भी घर खाना खा लेते थे। रात होते ही गली में खाटों की कतार बिछ जाती,गर्मी में बाहर सोने का आनंद ही कुछ और होता था। लेटे लेटे बातें करते करते एक एक कर थके मांदे सभी नींद के आगोश में चले जाते।नींद तभी खुलती जब सुबह खेत की ओर बैलगाड़ियां जाने के लिए तैयार हो जाती।

मैं तो अक्सर थाली ले कर पेमा मामा के घर मेरे भाई मुकुंद के साथ खाना खाता था।आसपास के कुछ बच्चों को इकठ्ठा कर मैं और मुकुंद अलग अलग खेल आयोजित करते रहते। गांव के वातावरण में कोई छल कपट नहीं,कोई दिखावा नहीं,बस प्रेम ही प्रेम दिखता था।

हमारी ममेरी बहन अक्का अपनी सहेलियों के साथ अपने अपने घरों से लाए अचार का जब तब रसास्वादन करती रहती।घर के भीतर से एक दरवाजे को ठोककर जगु मामा और कमल मामी से चाय नाश्ते के लिए आने की बात हो जाती।कभी भी उस दरवाजे से उस पार मैसेज का आदान प्रदान हो जाता।बड़ी नानी तुलसा आजी और वना बोय आज भी याद आती है। मैं तो पूरे मोहल्ले का प्रिय था क्योंकि बातें बनाना मुझे बहुत आता था।पड़ोस की कमल आजी, वच्छा आजी, शकु वाहिनी सभी की यादें आज भी धूमिल नहीं हुई है।

आगे जारी हैं।भाग 3 में।

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मेरी पीड़ा

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हां मैं एक बेजुबान हूं, हां मैं एक बेजुबान हूं। लेकिन सोच तो सकती हूं मैं ,आखिर क्या गुनाह था मेरा,जो मार डाला उसने मुझे।मेरे गर्भ में पल रहे शिशु ने,आखिर क्या बिगाड़ा तेरा,इतनी

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मध्यम वर्ग,एक निरीह प्राणी

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मै मध्यम वर्ग,एक निरीह प्राणी हूं, लॉकडॉउन की घोषणा हुई ,छुट्टियों का सोच मुझे बड़ी खुशी हुई,कुछ दिन घर में बीते हंसी खुशी,धीरे धीरे काफुर हुई सारी खुशी।सब्जी खत्म, आटा खत्म,दूध की किल्लत,दाल चांवल के डिब्बे बोलने लगे ,बीबी की आवाज़ सुन,माथे पर आईं सलवट।अंदर सुनो ना ,तो बा

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लेखनी जिंदगी की

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लिखने को है बहुत कुछ,लेकिन चल ना पाती ये लेखनी। कहने को है बहुत कुछ,लेकिन कह ना पाती कोई कहानी।हवा तो बहती है बहुत गर्मी में,लेकिन होती नहीं इतनी सुहानी।चाहने वाले तो बहुत है,ले

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पापा ऐसे थे

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पापा, जो सायकिल के डंडे पर आगे बैठा कर चढ़ाई पर जोर लगाते थे,बाद में फिर पढ़ाई में आगेबढ़ाने में जोर लगाते थे।मौका आने पर जॉब या बिजनेस के लिए, एक बारऔर जोर लगाते थे।अच्छी सी जीवन संगिनी,तुम्हारे लिए ,समाज केफिर कई फेरे लगाते थे।नए शहर में नया घरबार ,तुम्हे बसाने के ल

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हिन्दुस्तानी सैनिक

22 जून 2020
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पंद्रह जून की वह अंधेरी रात, सुकून से सो रहा था हर हिन्दुस्तानी।क्योंकि सीमा पे चीनियों को, सबक सिखा रहे थेजांबाज़ हिन्दुस्तानी।वो थे चीनी हजारों में,केवल पैंतीस सैनिकों के साथ थासंतोष हिन्दुस्तानी ।संयम और धैर्य के साथ, गया समझाने चीनियों को थावह वीर हिन्दुस्तानी।धोख

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एक था बचपन भाग 1(संस्मरण)

9 जुलाई 2020
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मजा तब शुरू होता जब सबसे छोटे बापू मामा गर्मी की छुट्टियों में गांव आते साथ में देवगांव के प्रसिद्ध पेडे जरूर लाते ।उनके आते ही हवेली कि रौनक बढ़ जाती ,क्योंकि मामा भले ही

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पंचमढ़ी चले भाग 1(यात्रा संस्मरण)

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शादी के बाद

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ना दिल को सुकून,ना मन को चैन,ना बाहर मिले आराम,ना घर में रहे बिना काम,दोस्तों ये ना तो है प्यार,और ना जॉब या कारोबार,ये तो बस है ,शादी के बाद का हाल ।

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