जब पाँव पलट कर गाँव गए तो!
यादों की पुरवाई चली,
आँगन,ड्योढ़ी,चौबारे तक,
देहरी,चौखट और दहलीज़
छूकर मेरी परछाई को
फिफर पड़ीं
हौले से फिर छूकर तन को,मन को;
रूठी -रूठी चहक उठी !
खोल के फिर यादों की गठरी;
ठुमक-ठुमक कर;
पूरे आंगन में
बिखर गईं और महक उठीं!!
माँ बाबा की यादों ने जब घेर लिया,
खड़ा अकेला हूँ आँगन
दौड़ लगाता मेरा बचपन,
नन्हें-नन्हें पाँव
मेरी तर्जनी पकड़-जकड़ के चलती माँ ;
दादा जी आहट पाकर
ठिठक!पकड़ के पल्लू को
जब घूंघट कर लेती माँ,
ठीक समझता मेरी मैया छुपम -छुपाई
आँख-मिचौली खेल रही है !
फिर यादें आंसूं बन-बन कर के
पलकों से झरने लगतीं हैं।
सोच रहा हूँ!
आंगन से कटके पगडंडी ;
क्यों बनती हैं जीवन राहें,
क्यों चुनती हैं अलग दिशाएं
माँ-बाबा का भाग्य बदलकर
एकाकीपन बन जाता है;
कोशिश करके भी वो शायद
हमको वो समझा ना पाए
कम देखा उनका खालीपन,
गीली आँखों का सूनापन
समझ रहा था पर समझ ना पाये,
लौटाता है वक़्त सहज कर
जो तुम रख कर भूले थे;
जो भी हम करके भूले थे,
याद आता है
वो पहला दिन जब पढ़ने को शहर चला था,
चौखट से उस पतली सड़क तक
माँ के सं-संग चल कर आना
आज अचानक याद आता है,
माँ का आँखों तक मुंह ढकना,
कुछ बोलो तो सर का हिलाना ;
वो पीपल का सहारा लेकर
कांपते हुए पैरों का छुपाना,
समझ नहीं आता था
मैया खुश है या
फिर दुखी बहुत है ।
आँख बंद करके बस में चढ़ जाता था,
नहीं देख पाता था मैं भी
माँ को!
बस के पीछे दौड़ के आना॥
लौट आया हूँ उसी मोड़ पर,
वहीँ खड़ा हूँ;वही जोड़कर,
चला गया था बर्षों पहले यहीं छोड़कर
फिर पांव पलट कर वहीँ आ गए,
सारे समझे और ना समझे;
सब समझ आ गए!!
अवधेश प्रताप सिंह भदौरिया'अनुराग'Dt./09042016/ccrai/olp/docut.