बड़ी बारीकियों से;
बुने थे कई रिश्ते,
बहुत ही संभल कर
इक-इक गिरह बाँधी थी,
शायद कही कुछ उलझा है,
कुछ तो है जो टूट रहा है
मन में;विचारों में,
दिन में रातों में,
कहे-अनकहे शब्दों में,
शब्दों की कतरन में
संबंधों की छुअन में
हौले से भी चुभन में
कुछ तो है जो टूट रहा है
जो गिरह खुल गईं हैं
उनके छोरों को ढूढना
फिर बांधना
इतना आसान नहीं
धागों में रिश्तों की
गिरह बांधना
और बाँध कर रखना
कोशिशों में ना जाने कब ?
और क्या ?
छूट जाए और कौन सा;
सिरा टूट जाये
बचालो
संभालो
और सारी गिरह खोल दो!!