किते दिन हरि-सुमिरन बिनु खोए ।
परनिंदा रसना के रस करि, केतिक जनम बिगोए ।
तेल लगाइ कियौ रुचि मर्दन, बस्तर मलि-मलि धोए ।
तिलक बनाई चले स्वामी ह्वै, विषयिनि के मुख जोए ।
काल बली तैं सब जग काँप्यौ, ब्रह्मादिक हूँ रोए ।
सूर अधम की कहौ कौन गति, उदर भरे, परि सोए ॥1॥
नर तैं जनम पाइ कह कीनो ?
उदर भरयौ कूकर सूकर लौं, प्रभु कौ नाम न लीनौ ।
श्री भागवत सुनी नहिं श्रवननि, गुरु गोबिंद नहिं चीनौ ।
भाव-भक्ति कछु हृदय न उपजी, मन विषया मैं दीनौ ।
झूठौ सुभ अपनौ करि जान्यौ, परस प्रिया कैं भीनी ।
अघ कौ मेरु बढ़ाइ अधम तू, अंत भयौ बलहीनौ ।
लख चौरासी जोनि भरमि कै फिरि वाहीं मन दीनौ ।
सूरदास भगवंत-भजन बिनु ज्यौ अंजलि-जल छीनौ ॥2॥
इत-उत देखत जनम गयौ ।
या झूठी माया कैं कारन, दुहुँ दृग अंध भयौ ।
जनम-कष्ट तैं मातु दुखित भई, अति दुख प्रान सह्यो ।
वै त्रिभुवनपति बिसरि गए तोहिं, सुमिरत क्यों न रह्यो ।
श्रीभागवत सुन्यौ नहिं कबहूँ, बीचहिं भटकि मर्यौ ।
सूरदास कहै, सब जग बूड़्यौ, जुग-जुग भक्त तर्यौ ॥3॥
सबै दिन गए विषय के हेत ।
तीनौं पन ऐसौं हीं खोए, केस भए सिर सेत ।
आँखिनि अंध, स्रवन नहिं सुनियत, थाके चरन समेत ।
गंगा-जल तजि पियत कूप-जल, हरि पूजत प्रेत ।
मन-बच-क्रम जौ भजै स्याम कौं, चारि पदारथ देत ।
ऐसी प्रभू छाँड़ि क्यों भटकै, अजहूँ चेति अचेत ।
रामनाम बिनु क्यों छूटौगै, कंद गहैं ज्यौं केत ।
सूरदास कछु खरच न लागत , राम नाम मुख लेत ॥4॥
द्वै मैं एकौ तौ न भई ।
ना हरि भज्यौ, न गृह सुख पायौ, बृथा बिहाइ गई ।
ठानी हुती और कछु मन मैं, औरे आनि ठई ।
अबिगत-गति कछु समुझि परत नहिं जो कछु करत दई ।
सुत सनेहि-तिय सकल कुटुँब मिलि, निसि-दिन होत खई ।
पद-नख-चंद चकोर बिमुख मन, खात अँगार मई ।
विषय-विकार-दावानल उपजी, मोह-बयारि लई ।
भ्रमत-भ्रमत बहुतै दुख पायौ, अजहुँ न टेंव गई ।
होत कहा अबके पछिताएँ, बहुत बेर बितई ।
सूरदास सेये न कृपानिधि, जो सुख सकल मई ॥5॥
अब मैं जानी देह बुढ़ानी ।
सीस, पाउँ, कर कह्यौ न मानत, तन की दसा सिरानी ।
आन कहत, आनै कहि आवत, नैन-नाक बहै पानी ।
मिटि गई चमक-दमक अँग-अँग की, मति अरु दृष्टि हिरानी ।
नाहिं रही कछु सुधि तन-मन की, भई जु बात बिरानी ।
सूरदास अब होत बिगूचनि, भजि लै सारँगपानी ॥6॥