खेलत हरि निकसै ब्रज-खोरी
कटि कछनी पीतांबर बाँधे, हाथ लिये भौंरा,चक, डोरी ॥
मोर-मुकुट, कुंडल स्रवननि बर, बसन-दमक दामिनि-छबि छोरी ।
गए स्याम रबि-तनया कैं तट, अंग लसति चंदन की खोरी ॥
औचक ही देखी तहँ राधा, नैन बिसाल भाल दिये रोरी ।
नील बसन फरिया कटि पहिरे, बेनी पीठि रुलति झकझोरी ।
संग लरिकिनी चलि इत आवति, दिन-थोरी, अति छबि तन-गोरी ।
सूर स्याम देखत हीं रीझे, नैन-नैन मिलि परी ठगोरी ॥1॥
बूझत स्याम कौन तू गौरी ।
कहाँ रहति,काकी है बेटी, देखी नहीं कहूँ ब्रज खोरी ॥
काहे कौं हम ब्रज-तन आवतिं, खेलति रहतिं आपनी पौरी ।
सुनत रहतिं स्रवन नँद-ढोटा, करत फिरत माखन-दधि-चोरी ॥
तुम्हरौ कहा चोरि हम लैहैं, लेखन चलौ संग मिलि जोरी ।
सूरदास प्रभु रसिक-सिरोमनि, बातनि भुरइ राधिका भोरी ॥2॥
प्रथम सनेह दुहुँनि मन जान्यौ ।
नैन नैन कीन्ही सब बातें, गुप्त प्रीति प्रगटान्यौ ॥
खेलन कबहुँ हमरै आवहु,नंद-सदन, ब्रज गाउँ ॥
द्वारैं आइ टेरि मोहिं लीजौ, कान्ह हमारौ नाउँ ॥
जौ कहियै घर दूरि तुम्हारौ, बोलत सुनियै टेरि ।
तुमहिं सौंह बृषभानु बबा की, प्रात-साँझ इक फेरि ॥
सूधी निपट देखियत तुमकौं, तातैं करियत साथ ।
सूर स्याम नागर-उत नागरि, राधा दोउ मिलि गाथ ॥3॥
गई वतषभानु-सुता अपनैं घर ।
संग सखी सौं कहति चली यह, लको जैहैं इनकें दर ।
बड़ी बैर भई जमुना आए , खीझति ह्वैं है मैया ।
बचन कहति मुख, हृदय-प्रेम-दुख, मन हरि लियौ कन्हैया ॥
माता कहति कहाँ ही प्यारी, कहाँ अबेर लगाई ।
सूरदास तब कहति राधिका, खरिक देखि हौं आई ॥4॥
नंद गए खरिकहिं हरि लीन्हें ॥
देखी तहाँ राधिका ठाढ़ी, बोली लिए तिहिं चीन्हे ॥
महर कह्यौ खेलौ तुम दोऊ, दूरि कहूँ जिनि जैहौ ।
गनती करत ग्वाल गैयनि की, मोहिं नियरैं तुम रैहो ॥
सुनि बेटी वृषभानु महर की, कान्हहिं लेइ खिलाइ ।
सूर स्याम कौं देखे रहिहो, मारै जनि कोउ गाइ ॥5॥
नंद बबा की बात सुनौ हरि ।
मोहिं छाँड़ि जौ कहूँ जाहुगे, ल्याउँगी तुमकौं धरि ॥
भली भई तुम्हैं सौंपि गए मोहिं, जान न देहौं तुमकौं ।
बाँह तुम्हरी नैंकु न छाँड़ौ, महर खीझिहैं हमकौं ॥
मेरी बाँह छाँड़ी दै राधा , करत उपरफट बातैं ।
सूर स्याम नागरि सौं, करत प्रेम की घातैं ॥6॥
खेलन कैं मिस कुँवरि राधिका, नंद-महरि कै आई (हो) ।
सकुच सहित मधुरे करि बोली, घर हो कुँवर कन्हाई (हो) ॥
सुनत स्याम कोकिल सम बानी, निकसे अति अतुराई (हो) ।
माता सौं कछु करत कलह हे, रिस डारी बिसराई (हो) ॥
मैया री तू इनकौं चीन्हति, बारंबार बताई (हो) ।
जमुना-तीर काल्हि मैं भूल्यौ, बाँह पकरि लै आई (हो) ॥
आवति इहाँ तोहिं सकुचति है, मैं दै सौंह बुलाई (हो) ।
सूर स्याम ऐसे गुन-आगर, नागरि बहुत रिझाई (हो) ॥7॥
नाम कहा तेरो री प्यारी ।
बेटी कौन महर की है तू, को तेरी महतारी ॥
धन्य कोख जिहिं राख्यौ, घनि धरि जिहिं अवतारी ।
धन्य पिता माता तेरे, छवि निरखति हरि-महतारी ॥
मैं बेटी बृषभानु महर की, मैया तुमकौं जानति ।
जमुना-तट बहु बार मिलन भयौ, तुम नाहिंन पहिचानतिं ॥
ऐसी कहि, वाकौं मैं जानति, वह तो बड़ी छिनारि ।
महर बड़ौ लंगर सब दिन कौ, हँसति देति मुख गारि ॥
राधा बोल उठी, बाबा कछु तुमसौं ढीठी कीन्हौ ।
ऐसे समरथ कब मैं देखे, हँसि प्यारिहि उर लीन्ही ॥
महरि कुँवरि सौं यह भारति आउ करौं तेरी चोटी ।
सूरदास हरषित नँदरानी, कहति महरि हम जोटी ॥8॥
जसुमति राधा कुँवरि सँवारति ।
बड़े बार सीमंत सीस के, प्रेम सहित निरुवारति ।
माँग पारि बेनी जु सँवारति गूँथी सुंदर भाँति ।
गोरैं भाल बिंदु बदन, मनु इंदु प्रात-रवि काँति ॥
सारी चीरि नई फरिया लै, अपने हाथ बनाइ ।
अंचल सौं मुख पोंछि अंग सब, आपुहि लै पहिराइ ॥
तिल चाँवरी, बतासे, मेवा, दियौ कुँवरि की गोद ।
सूर स्याम-राधा तनु चितवत, जसुमति मन-मन मोद ॥9॥
बूझति जननि कहाँ हुती प्यारी ।
किन तेरे भाल तिलक रचि कीनी, किहिं कच गूँदि माँग सिर पारी ।
खेलति रही नंद कैं आँगन जसुमति कही कुँवरि ह्याँ आ री ।
मेरौ नाउँ बूझि बाबा कौ, तेरौ बूझि दई हँसि गारी ॥
तिल चावरी गोद करि दीनी, फरिया दई फारि नव सारी ।
मो तन चितै, चितै ढौटा-तन कछु सबिता सों गोद पसारी ॥
यह सुनि कै वृषभानु मुदित चित, हँसि-हँसि बूझत बात दुलारी ।
सूर सुनत रस-सिंधु बढ्यौ अति , दंपति एकै बात बिचारी ॥10॥