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हाशिये पर से

20 सितम्बर 2015

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हाशिये पर से


अपनी आँखों को

शून्य में टांगकर हाशिए पर से

देखा किया मैंने

सुबह दोपहर और शाम का

बारी-बारी से

घर की दहलीज़ पर आना

और देह चुराकर

चला जाना

दिन भर

कई छोरों से

होती रही आक्रामक गेंदबाज़ी

मेरे मर्म की पीच पर

मेरी धज्जियाँ उड़ती रही

बर्रे की डंक सी

चूमती रही आवाज़ों की किरचियाँ

मेरे सर पर

जंगल की रात का अँधेरा काला

मेरी देह से

चिपका रहा

दिन भर

अपने आहत अहं को

सहलाते हुए

देखा किया मैंने

चीख-पुकारों से बेखबर

समय का जुगाली भरना

पतियों के बीच

कहीं भी तो नहीं हुआ किया

कोई चेहरा मेरे पति का

बदल-बदल कर

चेहरा अपना / बहरूपिये सा

पैर पटक-पटक कर

मेरी अस्मिता की समाधि पर से

बार-बार गुजरा किये मेरे पति

अपनी मूंछों की जड़ों में

उर्वरक सा समाये रहे वे

मेरी आँखों के आगे

रात-दिन

उगती रही बढती रही फैलती रही

कंटीली झाड़ियाँ मूंछों की

क्या इसी तरह

झेलती रहूंगी सब कुछ आगे भी

सहसा अपने दुखों के खिलाफ़

तन जाती हूँ मैं

यह ठान लेती हूँ मन में

कि

फलांग कर दीवारें / निकल जाऊँगी

आगे और आगे

तय करुँगी अकेली

धरती आकाश की दूरी

हो सका तो

सूरज की देह नोचकर

ले आऊँगी मैं

अँधेरे में डूबी आधी दुनिया के लिए

मुट्ठी भर उजाला

ताकि देख सके दुनिया

अँधेरे के खिलाफ़ एक औरत का

इस तरह / कमर कसकर

खड़ा होना।


— रणधीर चन्द्र गोस्वामी


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...रणधीर जी , तारीफ के काबिल लिखा है आपने ... बहुत पसंद आया

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