9 जून 2024
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शब्दों को अर्थपूर्ण ढंग से सहेजने की आदत।D
और वो तुम हो------------------कल तक,जिन्हें! मेरी, धड़कनों का,अंदाजा था ;आज-उन्हें!कोई फर्क!नहीं पड़ता, मेरे- करुण क्रंदन का।हालांकि- अब भी मैं!रोज,निकल पड़ता हूं,उनके!दीदार क
शहर!उदास सा है,सन्नाटे में पसरा,झींगुरों का,कोलाहल! खलल डाल रही।तब भला,नींद! कहां से आयेआंखों में।सुन!मेरी जुस्तजू ,गुफ्तगू! मत किया कर।ऐसे में,अब!तुम्हीं बता,किससे बतियायें?सुन तूं!जिद
न तुम!कुछ कहो,न मैं-कुछ कहूं!यह-तुम जानो,और-मैं जानूं।दिल की बात! दिल में रहने दें,आखिर !कह देने से,या न कहने से,क्या फर्क पड़ेगा?जब मन!भरे बादल सा,उमड़ घुमड़ कर,बरसेगा।तब! नदी के बौराने से,
मुझे!तेरा साथ,पाने की,बेचैनी ने,एक एक करके,छीन ली,मेरे सभीसुकून।यह डर!कि-तुम्हें कहीं, मैं खो न दूं,गंवाता रहा,वह सब-जिसकी खातिर, पाना चाहा तुम्हें।मैं सुनता रहा,दिल की आवाज! कदमों की आ
और-एक दिन, खत्म हो जायेगी,यह जिंदगी,तुम्हें! कविताओं,कहानियों में,लिख-लिख कर।तब- शायद हम! फिर मिलें,दुसरी जिंदगी में, शक्ल ले,किसी किताब की।जिसमें-मैं रहूं,तुम रहो,रचनाओं में,
न फोन करना,न ही,फोन का,जवाब देना।इधर-मैं मैसेज पर,मैसेज! करता रहा।एक-उम्मीद बांधे,कि तेरा-फोन जरुर आयेगा।लेकिन- तेरा दंभ!मेरी आशाओं का,दम तोड़ दिया।तेरे अहम!और-मेरे विश्वास!दोनों के बीच,&nbs
हम!दोनों का,वर्षों तक,साथ-साथ रहना।हंसना, गाना, रूठना ,मनाना,कभी-कभी तो, कई-कई दिनों तक,न बोलना, न बतियाना, सब कुछ- आज भी याद है मुझे।आंखों के, सामने से गुजरता है,आज भी!च
बिना!कारण के ही, इग्नोर!करो तुम,यह तेरा-अधिकार है।लेकिन- इतना जरुर,ध्यान रखना,उस दिन का,जब मैं!खोजने पर भी,नहीं मिलूंगा,तुमको;तब कैसा?लगेगा तुम्हें।© ओंकार नाथ त्रिपाठी अशोक नगर बशारतपुर गोर
हमारे!यहां भी,एकबार! नदी रोई थी।और-रोते-रोते, बड़ी! मशक्कत से,शहर में,आ घुसी थी।यहां तक,पहुंचने में,उसने!उखाड़ फेंके थे,बड़े-बड़े,पेड़!बांध-बंधे,सड़कें और-मकान।वह!हाहाकार करती,बढ़ती,आ र
सुना था,कभी!कि झूठ के,पैर नहीं होते।लेकिन- मैंने तो,इधर वर्षों से,झूठ को,शासन करते,देखा है।ओंकार नाथ त्रिपाठी अशोक नगर बशारतपुर गोरखपुर उप्र। (चित्र:साभार)
तापमान! कुछ-इस कदर,बढ़ने लगा।कि अब!जलीय!फूल भी,मुरझाने लगे हैं।© ओंकार नाथ त्रिपाठी अशोक नगर बशारतपुर गोरखपुर उप्र। (चित्र:साभा
चलो!तुम मेरे लिए, 'गोंद' बन जाओ,चैन देकर,और-मैं तेरे लिए, सुकून बन जाऊं,'कंधा' बन कर।हम तुम, मिल कर,तकदीर के हाथों,तकदीर बना लें अपनी।सुनो!तुमको! चलना तो आता है,मुझे! आग
अपने!बड़ा होने का,गुरुर! इतना मत कर।कभी!इन सड़कों को भी,ऐसा ही,अहसास था।लेकिन! मेरे हौसलों ने,इन्हें!अपने पांवों से नापा था।© ओंकार नाथ त्रिपाठी, अशोक नगर बशारतपुर गोरखपुर उप्र।
जब!हर अदाएं,मोहब्बत सी,और-जरा सी भीजुदाई!मुद्दत सी,लगने लगे,तब!एक तलब सी,हो जाती है,उसकी!जिसके कारण,दिन का चैन,और-रात का,सुकून! छिन जाता है,यही तो-प्रेम होता है।© ओंकार नाथ त्रिपाठी अशोक नगर बशार
हरपल!बेहद करीब, रह कर,तुमने-साथ निभायी,मेरी!बिना शर्त।मेरे लिए, मोमबत्ती बनी,जलती रही,तो कभी!अगरबत्ती बन,महका दी,खुशबूओं से,जिंदगी!© ओंकार नाथ त्रिपाठी अशोक नगर बशारतपुर गोरखपुर उप्र।
उमस भरी,रात में,अचानक!तन को,सहलाती हुई,ठंडी हवाएं चलीं,सुकून भरी,अहसास!करायीं,पूरे तन मन को।तभी-नाचते गाते,वर्षा की फुहारें!आकर,कानों में,गुनगुनाती हुई,कहने लगीं,देखा! चाहे जिसकी भी,जितनी भी,&nbs
हाथ की,मुट्ठी में,धूप लेकर,निकले थे हम दोनों!जिस-मोड़ पर,छोड़कर,मुड़ गयी थी तुम!वही- मेरे भाग्य का,तय खाना!बना निकला।दीया!जो जल रहा था,तेरे जाते ही,बुझ गया वह भी।तेरी-मुस्कुराहट पर,आहत न होते,हाल
सुनो! हो सके तो, संजोकर,रखना वो तमाम, यादें!गुजरे वक्त की।जो बीते थे, कभी-साथ-साथ, हम दोनों के।एक समय,ऐसा भी,आयेगा,जब मेरी,यादें तो होंगी,लेकिन! मैं न होऊंगा।© ओंकार
टुटते रिश्ते,आवाज! भले ही,नहीं किये।लेकिन- जेहन में,शोर!बहुत मचाये।हालांकि! जो हुआसब, अच्छा ही हुआ।क्योंकि- जहां!कद्र और वक्त! न हो।वहां पर,रहम और-मेहरबानी की आस,बेमानी ह
जब मैं,गिरा था,तब!मुझे देख,रुकने वालों की,भीड़ में,वो भी थे,उस दिन।लेकिन! धीरे-धीरे, सब के सब,चलते गये,अंत में!वो भी चल दिये,जो कभी-हमराही!होने का,दावा करते थे।© ओंकार नाथ त्रिपाठी अशोक नगर
क्यों?धीरे-धीरे, ऐसा!लगने लगा है,जैसे-भूल जाना, तेरी नियति सी,हो रही है अब तो।जबकि- मेरे दिन की,शुरुआत होती है,यादों से,सोने जाने तक।सोचता हूं,खफा होकर,एक बहाना दें दूं ,तुम्हें, मुझे भ
तुमने तो!हिला कर,रख दी, संबंधों की चूलें।एक ही,झटके में, श्रद्धा,प्रेम, निष्ठा!सभी को, तुमने कर दिया, लहूलुहान।ऊंगली!पकड़कर,इतराते हुए, वो!तेरा चलना,अग्रजों का,दुलार और सम्मान
वो!तलाशते रहे,संभावनाएं! रिश्तों में।मैं!भावनाओं को लिये,हरदम आहत!होता रहा।© ओंकार नाथ त्रिपाठी अशोक नगर बशारतपुर गोरखपुर उप्र।  
मन तो!सदैव ही,खटखटाता रहा, तेरा दरवाजा। दूर होते हुए भी,यह सोचकर,कि चलो!कम से कम,मेरी आहटें तोपहुंचती रहें तुम तक।लेकिन! सच तो यह है कि-अभी तक!तेरे मन से,मेरे मन ने- मुलाकात नहीं क
तुम!पतंग हो,रंग बिरंगी, इन्द्रधनुष जैसी।अच्छी!लगती हो,नील गगन में,अपने पंखों से उड़ती हुई।लेकिन! नहीं पहुंच पाती,मन चाही उंचाई तक,तेरी डोर संबंधों ने पकड़ रखी है।क्योंकि- तुम इत्र बनी,भ
वो तो!एक घर,छोड़कर, नये के लिए- घर! बनाते-बनाते, खुद ही-मकान बन गयी।और-बदलती गयी,स्वयं को,होती रही खुद से दूर।खुशीयों में तो-हंसी!लेकिन- ग़म में रो न सकी।इस तरह से,कुछ यूं,दूर
ये!जो पल हैं न,जब-बीत जाते हैं,तब-तनहाई में,बहुत! याद आते हैं।समय की,स्याही ने,जिंदगी के,पन्नों पर!जो लिख दी है,पंक्तियां!उसे धुलकर,जिंदगी को,फिर से-चलो लिखते हैं।जिससे-नफ़रती लोगों की,नजर!
आज!जीवन के,सफ़र में,चलते-चलते, थका हारा मैं!जिंदगी से बोला- "चलो कहीं, चाय पीते हैं",तुम भी,थक गयी होगी,मुझे-भगाते-भगाते।पा लेने की,बेचैनी! और-खो देने का डर!हमें-भगाता रहा।कुछ-गुफ्
गाना सुनना,और- गुनगुनाना! शगल था उसका।पर किताबें,पढ़ना!जरा भी नहीं, भाया अक्सर।कपड़े खरीदना,उसे! करीने रखना,सुहाता था उसे।घर को-साफ-सुथरा रखना,उसकी- पसंद बताती थी।मन उसका,कस्त
तुम्हें! अगर फिक्र है,इतनी मेरी,तब-मेरी नींद! चुराने वाले,मेरी नींद! वापस कर दो।© ओंकार नाथ त्रिपाठी अशोक नगर बशारतपुर गोरखपुर उप्र। &nbs
क्या!कभी, सोचा है,तुमने?जो-तेरा! न होकर भी,तेरा!बना रहा,अब तक।और-तुम! जिसकी,होकर भी,जो-हो न सकी,उसकी!अबतक। देखा!आखिर!! क्या है?यह सब।शायद!खामियां, मेरी-तुमको रोकीं;तथा-खा
अब!वहीं रातें,जो कभी-खुशगवार थीं।मगर-वैसी नहीं,जैसी पहले,लगती थीं।जब कि-रात वही है,और मैं भी!वही हूं।बेचैनियों,उदासियों तथा-अवसाद की, उमस से,सजी-धजी,इस रात का,आलिंगन!सुकून भरा नहीं है।शहर! व
सफ़र!आहिस्ता-आहिस्ता! आगे-बढ़ रहा। गंतव्य!कहां हैं?मुझे ही नहीं, किसी को भी,नहीं पता,अब तक जीवन में।फिर भी हम!बढ़े जा रहे,कदम-दर-कदम, एक अज्ञात की ओर।कहां! मुड़ गये,क्या मिला?
आज!कड़क कर चमकी,बिजली!बीते कल की,और-उमड़ घुमड़ कर,बरसे!यादों के बादल।भीग गया,मेरा तो तन मन!तूं भी भीगी?या नहीं भीगी?कहीं तुम! आशा की, छतरी ताने,बारिश रुकने का,इंतजार करती,खड़ी तो नहीं रह गयी
न शिकायत!न धन्यवाद!!आये-और चल दिए।मैं तो!समझा था,वो,मेरे- करीब होंगे।क्योंकि- शिकवा और गिला!अपने ही तो,करते हैं।लेकिन- यूं जाना उनका,पता नहीं क्यों?खटकता रहा।सुनो!जब कभी लगे,मैंने कुछ-ग
आखिर -पायल ने,पाज़ेब से-बतियाते हुई,बोली-"क्या हुआ? मालकिन हमें,सोने के,जेवरों जैसा,तवोज्जो! नहीं देती हैं।लेकिन- साथ तो,हमीं देते हैं,हरपल।वो सोने वाले,जेवर!धरे के धरे,रह जाते हैं,या ग
प्रेम तो-बंधन चाहता,जबकि-विवाह! स्वतंत्रता का,पक्षधर है।तभी तो-डूबती रहती है,झील सी-आंखों के दायरे में,आत्मा।अन्त में,होता यही है,कि कोई-भूल जाता है,और-कोई भूलने के,प्रयास के बाद भी,नहीं भूल पाता
एक दिन, मुफलिसी में,मन में आया,कि! क्यों न?आंसुओ को,बेचकर ही-अपना!काम चला लूं।फिर सोचा!यही तो,यादें हैं!अपनों की।इन्हें-खुद से जुदा!कैसे-कर सकता हूं?© ओंकार नाथ त्रिपाठी अशोक नगर बशारतपुर गोरखपुर
तुमने!भले ही,फतह!हासिल कर ली,जिसे चाहा,उसपर।बेशक!सिकंदर!! समझ सकते हो,खुद को।ऐसे में,तेरा!अहंकार का,पहाड़!हो जाना,लाजमी भी है।लेकिन-ध्यान रहे,वक्त भी-कुछ होता है,जिसके-समुंदर में,न जाने कितने-&nb
पुरुष! जब-जब, लिखा-स्त्री पर,खूबसूरती को,सराहा।कभी चांद!गुलाब!!काली घटाएं!!!बिजली सी चमक,झील सी आंखें, बलखाती कटि,आदि-उपमाओं से,सुसज्जित किया।लेकिन- जब-जब, स्त्री ने,कलम उठायी
फिर-वही सुबह!शाम भी,वही है।दिन वही,और-रात भी,वही है।जगह,शहर,मुहल्ले,मकान!उसपर लगे,नेम प्लेट तमाम,नाम और पद!सब तो,वही हैं।सिर्फ!नहीं है जो,वह-वो आदमी है।जो-रहता था, कभी यहां,हमारे बीच में।© ओंकार
आज!शहर में,जो हवाएं,मेरे पास से गुजरीं,उसमें-भीनी-भीनी सी,तेरी खुशबू!महकी।कहीं तुम! इसी शहर में तो,नहीं आ गयी?या ये हवाएं!तेरे शहर से,आयी हैं।© ओंकार नाथ त्रिपाठी अशोक नगर बशारतपुर गोरखपुर उप्र।&
कैसा?समय आ गया,कल तक,साया था मैं!आज-याद का,टुकड़ा!!बनकर रह गया।वह भी,हरपल नहीं, सिर्फ-फुर्सत के पल।तब तो,महकाया था,घर का-कोना-कोना तुमने!मैंने भी-तेरे फ़न की,दौलत को,संभाले रखा।दिल!आंखों से,कर रह
तुम,चंचल!लहरों के,जैसी।मैं!ठहरा,नदी काकिनारा हूं।तुम!कल-कल, धुन की,मदमस्त परी।मैं!ठहरा एक, जुआरी!हारा।सोचा!गर्दिश में,आयाम बदल दें, तेरे साथ।चांद!सितारों से,चमका दूं तेरी-सुबहो शा
पूत!कपूत,भले ही हो,माता!कुमाता,हो नहीं पाती।है तो यह-कहावत!लेकिन- सच भी है।बच्चे के,सृजन काल से ही,मां बच्चे का,संबंध!एक नाल से,जुड़ा होता है,हालांकि- उस नाल को,काटकर, प्रसव के बाद ही,ड
कुछ रिश्ते!ग़म और खुशी से,विरत! ऐसे भी होते हैं,जो सिर्फ-अपनेपन का,अहसास कराते हैं,अकेलेपन में।रिश्ते तो-जरुरी होते हैं,जीवन में,जीने के लिए।बिना इसके,कोने-कोने में, जीवन तो-बिखरा-बिखरा लगता
वो तुम्हें-उस डर से, डरायेंगे,जो डर है ही नहीं।धर्म,जाति,संस्कृति और-संस्कार! कभी खतरे में नहीं होते।अरे भाई!हवा के साथ, मत उड़ो!क्योंकि-हवा के साथ, कूड़ा-करकट उड़ते हैं।© ओंकार ना
ये-पक्के! मकान की,कच्चे! रिश्ते वाली,पीढ़ीयां!क्या?सीख ले सकेंगी?हमारे-कच्चे! मकान के,पक्के!रिश्तों वाले,पूर्वजों से?© ओंकार नाथ त्रिपाठी अशोक नगर बशारतपुर गोरखपुर उप्र। &n