ह्यूस्टन में हुआ ‘Howdy, Modi’ इवेंट. स्टेडियम में 50 हज़ार से ज़्यादा भारतीय मूल के अमेरिकी मौजूद थे. मंच पर थे नरेंद्र मोदी और डॉनल्ड ट्रंप. यहां डेमोक्रैटिक पार्टी के नेता स्टेनी होयर भी आए. उन्होंने नेहरू-गांधी के भारत का ज़िक्र किया. उन्होंने नेहरू के सपनों के भारत की बात की. धर्मनिरपेक्ष लोकतंत्र. जहां विविधता का सम्मान हो. जहां हर इंसान के मानवाधिकारों की हिफ़ाजत हो. ऐसे में हम कर रहे हैं, नेहरू के अमेरिकी दौरों का ज़िक्र.
कितनी बार US विज़िट पर गए प्रधानमंत्री नेहरू?
कुल तीन बार. पहली बार, साल 1949. दूसरी बार, 1956. तीसरी और आख़िरी बार, 1961.
पहली बार क्या हुआ?
कोल्ड वॉर का ज़माना. दुनिया में दो गुट थे- अमेरिका और सोवियत संघ. भारत नया-नया आज़ाद हुआ था. दोनों भारत को अपने पाले में लेना चाहते थे. मगर नेहरू गुटनिरपेक्षता के हिमायती थे. उन्हें लगता था, भारत को तरक्की चाहिए. दो विश्वशक्तियों के बीच पिसकर उसका नुकसान होगा. अमेरिका इससे नाखुश था. ऐसे में नेहरू पहुंचे अमेरिका. राष्ट्रपति थे हैरी एस ट्रूमैन. देश में अनाज की बेहद किल्लत थी. भारत अपना खाद्य संकट दूर करने के लिए अमेरिका की मदद चाहता था. मगर मदद मांगते हुए भी नेहरू अमेरिका के आगे बिछना नहीं चाहते थे. वो अमेरिका के आगे भारत की स्थिति बस याचक की नहीं होना देना चाहते थे. ट्रूमैन अनाज की कीमत समझते थे. ख़ुद किसानी कर चुके थे. परिवार किसान था उनका. बावजूद इसके नेहरू को निराशा हाथ लगी. भारत की नॉनअलाइमेंट की विदेश नीति से खार आए ट्रूमैन ने मदद नहीं दी. गुटनिरपेक्षता के अलावा चीन, कोरियन युद्ध, पश्चिमी देशों के साम्राज्यवाद जैसे दुनियावी मसलों पर भी नेहरू की राय अलग थी. अमेरिकी प्रभाव से स्वतंत्र थी. नेहरू ने कई मीटिंग्स की. कई सभाओं को संबोधित किया. मगर उन्हें खाली हाथ लौटना पड़ा.
ट्रूमैन और नेहरू, दोनों एक-दूसरे को पसंद नहीं करते थे. हालांकि बाद में स्थितियां बदलीं. चीन पर कम्युनिस्ट शासन हो गया. भारत में कम्युनिस्ट सत्ता नहीं थी. इसके साथ दोस्ती बढ़ाना अमेरिकी हितों के लिए ज़रूरी हो गया. और शायद इसीलिए फरवरी 1951 में उन्हीं राष्ट्रपति ट्रूमैन ने अमेरिकी कांग्रेस से अनुशंसा की. कहा, अमेरिका भारत को 20 लाख टन अनाज देगा. ट्रूमैन के शब्द थे-
भारत की अपील को अनसुना नहीं कर सकते हम. भारत के लोगों से हमारी दोस्ती और इंसानी तकलीफ़ के लिए हमारी चिंताएं हमें बाध्य करती हैं कि हम उस आबादी की भूख और परेशानी को ख़त्म करने की हर मुमकिन कोशिश करे.
दूसरी बार क्या हुआ?
साल 1952. आइज़नआवर बने अमेरिका के राष्ट्रपति. उनकी सबसे बड़ी चुनौती थी- कम्युनिज़म. भारत गुटनिरपेक्षता का लीडर था. आबादी काफी थी. ढर्रा लोकतांत्रिक था. गांधी और नेहरू के नाम से अंतरराष्ट्रीय क्रेडिबिलिटी भी थी. सबसे बढ़कर, भारत कम्युनिस्ट चीन का पड़ोसी था. अमेरिका को भारत से रिश्ते सुधारने की ज़रूरत थी. मगर 1953 से 1956 के बीच रिश्ते बेहतर होते दिखे नहीं. मगर फिर नेहरू और आइजनआवर के बीच थोड़ी गर्मी आई. चीजें बेहतर होने लगीं. 1956 में नेहरू अपने दूसरे अमेरिकी दौरे पर आए. डेढ़ दिन बिताए उन्होंने आइजनआवर के गेटिज़बर्ग फार्म पर. करीब 14 घंटे की बैठक चली दोनों के बीच. इसका असर भी दिखा. आइजनआवर ने अगले कुछ सालों में भारत के लिए आर्थिक सहायता बढ़ा दी. और फिर 1959 में आइजनआवर ख़ुद भी भारत के दौरे पर आए.
आख़िरी दौरा
ये साल था 1961. राष्ट्रपति थे जॉन एफ कैनेडी. वो नेहरू का बड़ा सम्मान करते थे. राष्ट्रपति बनने से पहले बतौर सांसद वो भारत को अमेरिकी सहायता बढ़ाए जाने की बात करते थे. जनवरी 1961 के अपने एक भाषण में कैनेडी ने नेहरू की तारीफ़ भी की थी. नेहरू को स्टेट विज़िट पर अमेरिका आने का न्योता दिया गया था. मगर दोनों नेताओं के बीच की बातचीत अच्छी नहीं रही. कहते हैं, कैनेडी बहुत नाख़ुश थे नेहरू के इस दौरे से. जो भी रहा हो, कैनेडी ने भारत को दी जाने वाली सहायता ज़रूर बढ़ाई थी. आर्थिक और खाद्य मदद के अलावा, कई प्रॉजेक्ट्स में भी कैनेडी प्रशासन ने भारत को मदद दी. जैसे- नागार्जुन सागर परियोजना. IIT कानपुर.
अमेरिका से लौटने के करीब तीन हफ़्ते बाद भारत ने पुर्तगाल के नियंत्रण से छुड़ाकर गोवा को ख़ुद में मिला लिया. कैनेडी को इस बात की भी नाराज़गी थी. उन्होंने नेहरू को चिट्ठी भेजकर अपनी निराशा जताई थी. मगर फिर मार्च 1962 में कैनेडी की पत्नी जैकलीन भारत आईं. तब भारत के अमेरिकी दूतावास में रेनोवेशन चल रहा था. उस समय जैकलीन नेहरू के घर में ही रही थीं. बाद में जब चीन ने भारत पर हमला किया, तब नेहरू ने कैनेडी से मदद मांगी. कैनेडी ने अमेरिका के ‘किटी हॉक’ एयरक्राफ्ट करियर को भारत की मदद के लिए भेजा. लोग उम्मीद जताते हैं. कि अगर कैनेडी की हत्या न हुई होती, तो उनके दौर में भारत और अमेरिका के रिश्ते और बेहतर होते.