हमारा समय
हम जीस रास्ते चले
जरुरी नहीं की फूल ही बीछे हो,
कांटे ना सही लेकिन रास्ता कठिन जरुर हो सकता है.
हमें तो चलना है अपनी धुन पर...
और हम चले
अंजान रास्तों पर
धूल भरे रास्तों से शुरु हुआ था सफ़र हमारा
आज सडको पर चलते है पक्की सडको पर
पर हमारें अंदर बसा इन्सान सो चूका है
बहुत गहरी निंद...
पत्थरों से कभी-कभार हमारा अभिवादन होता था
उस वक्त जो हमने सोचा था
‘आगे जाके हम इस पत्थर को फूल बना देगे’
लेकिन सपना जैसे टूटता है आँख खुल जाने पर
विचार ठंड आहें भरे
सांसों से निकल जाती है ...
कभी पानी के लिए तड़प उठते थे
जुल्लू भर के पीना पड़ा
सौंदर्य से नहीँ, मज़बूरी से
उसी वक्त हमने आगे निकलने का मन बनाया था
पर आज पहूंचे कहाँ ... ?
लगता है
हम भी कोई हिस्सा है उन्ही में से
जिसे वह लोग पहचान नहीं पाए थे
गले मिला लिया, घर पे बुला लिया ...
हमने यह ना जाना की हम वही है जहाँ से हम चले थे
उससे भी बदतर स्थिति मैं है सायद.
भीतर से सुना पड़ा कोना सुबक रहा है
दीवारे हँस रही है
आसमान के नीचे, हम भौंकते से रहते है
हमारा समय
मौक़ा दे के, मौक़ा छीन लेता है,
अब जब कोई धूल उडाता चलता है कोई
पैर थम से जाते है ... आँखे धुंधला सि जाती है ...
- हरेश परमार