क्रांति का नारा : जय भीम का नारा
संघी सफल क्यों होते है आंबेडकर को अपने
अंबेडकर बनाने में ? कारण साफ है : जो लोग शिक्षा ले के आगे
आये उन्होंने चाहे वह नौकरी करता हो या न करता हो, उन्होंने आंबेडकर के विचारों को घर घर नहीं पहुँचाया, आंबेडकर के चित्र रखे पर पूजा-धूपबत्ती के छाये में लद गए, समाज से जो बाहर गए उन्हें अन्य समाज ने अपनाया (खाने-पीने
में), राजनीतिको ने सिर्फ नाम रटा, जिससे नाम तो गूंजा विचार नहीं, जो लोग आंबेडकर विचार को जन-जन तक पहुंचाते वह समाज में ही
पागल कहलाये, कुछ आंबेडकर को पढ़ के पचा नहीं पाए इसलिए
पागल हो गए, कुछ बिना पढ़े ही अंतिम विधान करने लगे, जिससे विचारधारा का ही नुकशान हुआ, जो प्रयासरत है उन्हें मंच नहीं मिला, जीन्हे मंच मिला, उन्हें दायरा नहीं मिला, विचारों के साथ जो जागृत है, वह बेरोजगारी में रोटी, कपड़ा में चल बसा. रोहित की चिंता भी कुछ यही थी, सुनाये तो किसको ? जो शिक्षित है उन्हें जय भीम कहने पर भी
जय भीम न सुनने को मिले तो यह दुर्भाग्य हमारे समाज का है, रही बात संघी उन्होंने शिक्षा पर कब्ज़ा आज भी किया हुआ है
एवं जो लोग वर्ण-जाति में निम्न है वह वहीँ रहे इसके लिए धर्म-जाति, ईश्वर की दुहाई देते रहते है. बात साफ है, आंबेडकर के बाद, कांशीराम के बाद हमने शिक्षा तो ली पर
आंबेडकर के विचारों को आगे नहीं बढ़ा पाए. हमें रोहित के माध्यम से आंबेडकर मिले, हम एक हुए, एक हो रहे है, फिर भी कही कुछ कचोटता है, हम अभी भी बंधे हुए है मानसिक गुलामी में, हम कानून को कोषों दूर रखते है, हम आंदोलन करते है, आवेदन देते है पर उसके बाद की स्थितिया क्या होती है उस पर
हमारे कामकाजी जीवन में अभाव सा आ जाता है. हमें जरुरत है आन्दोलन के साथ आंबेडकर
विचार को आगे बढ़ाने के संकल्प की, हमें ही तोडनी होगी जातिवाद की बंदिशे, हमारे समाज में से एवं उनमें से भी.... हमें हमारा दायरा
बढ़ाना होगा, जय भीम का नारा हमें अन्य समाज में भेजना
होगा, जय भीम के नारे से जो भी शोषित है उसे
जोड़ना होगा .... हम एकांगी नहीं हो सकते, ना ही हम अमानवीय, असम्वेदनशील.... जय भीम.
हम आये दिन देखते है की, कुछ हमारे ही लोग
सामाजिक क्रांति के पक्षधर क्रांतिकारी महामानव को संघ की नजर से चित्रित करते है
एवं बहुत ही दुखित चित्रण उभारा जाता है, जिसमें हमें दुःख के आलावा कुछ न मिले.
हम क्रांति के आगे क्रांतिविहीन बाते पढ़ते-सुनते है. इससे समाज में उनका नाम तो
बनता है पर काम उन संघिओं का होता है, जिसके लिए यह लोग लिखते है. इसीलिए हमें
हमारे दायरे से कम से कम बाहर निकलना होगा जिससे हम सही को सही एवं गलत को गलत कह
सके.
एक सवर्ण लड़का है, उसकी आँखों में एक
उम्मीद थी, उस उम्मीद के चलते ही उसने अपना दायरा बढ़ाया, जातिवाद से ऊपर उठ के
उसने कुछ सोचा अपने ह्रदय के दरवाजे खुले रखें. तभी उनको किसी दलित लड़की से प्यार
हो गया | अमूमन ऐसा होता है, जाति के परिचय के बाद संबंध टूटने लगते है, पर यहाँ
जाति के ज्ञान से प्रेम और मजबूत हुआ. करीब तिन साल हो चूके थे उनके संघर्ष और
उम्मीदों से भरे प्रेम का. आखिर उन्होंने अपने तरीके से शादी-ब्याह न करते हुए
अपने परिवार से अनुमति मांगी एवं उनसे ही आग्रह किया की वही पहल करें इस जाति के
बाहर की शादी के लिए. लड़के के परिवार ने अपने पुत्र की बात को समझा एवं उन्हें
सपोर्ट भी किया. जब कभी आप किसी समाज के बारें में ज्यादा न जानते हो तब आपको
अन्दर से एक भय पनपने लगता है. हम जिस जन्म के आधार पर जातिवाद के घेरे में रहते
है उनसे बाहर के समाज को समझना मुश्किल होता है. प्रेमविवाह संभव था पर यहाँ पर
परिवार प्रमुख था, पहले तो दोनों परिवार आमने-सामने हुए, लड़की एवं लड़के के संबंध
बारें में जाना एवं जाति के आधार पर दलित महिला माता ने अपनी बात में जाति का
जिक्र किया एवं अपनी बेटी को सशर्त शादी के लिए बाध्य किया, जो शर्त थी 5 साल के
बाद शादी-ब्याह. जो युवा दिलों को कैसे मंजूर हो सकता है. यहाँ पर सवर्ण परिवार ने
खुद आगे बढ़ के हाथ बढ़ाया, समाज की परवाह किये बिना. पर दलित परिवार ने धीरे धीरे
अपने आप में सिमटते गयें. लड़की आज भी पढ़ रही है, लड़का बेरोजगारी को कम करने के लिए
जो कुछ भी मिल जाये वो सारा काम कर रहा है. तिन साल का संबंध जो प्रेम के नाजुक
धागे से बंधा था वह जातिवाद के मजबूत धागे के आगे टूट गया. हम कहते है की दलित
यहाँ का मूलनिवासी है, पर यह संस्कार विदेशी क्यों है ? हम अपने में ही सिमटते जा
रहे है, प्रेम की भाषा तक नहीं समझ पाते. हम मानसिक रूप से उसी नव ब्राह्मणवाद को
ढो रहे है, जो हमारे समता, न्याय, बंधुता, स्वतंत्रता के खिलाफ़ है.
हालाँकि प्रेम विवाह जाति-इतरजाति के बीच
एक छलावा भी होता हैं, हमने देखा है की, सवर्ण समाज के युवा ब्राह्मिणवादी गुलामी
मानसिकता के चलते प्रेम तो कर लेते है पर निभाते नहीं है, पर जो सच में प्यार करते
है वह संघर्ष करते है एवं आगे बढ़ते है. पर उनके लिए हमें हमारे विचारों का दायरा
भी तो बढ़ाना पड़ेगा...
हमें अपनी जंजीरे तोडनी होगी, खुद ही और अपने विचार को और मजबूती के साथ
फ्लेक्सिबल बनाना होगा. हम कट्टर नहीं हो सकते, मानवीय जरुर हो सकते है. हमें सुनना होगा विरोधिओं के स्वर
और अपनी आवाज़ को भी बुलंद करना होगा. जय भीम कोई भी बोल सकता है, पक्ष-विपक्ष. पर हमें जय भीम के नारे की ताकत को दिखाना
होगा और जय भीम नारे को जन जन तक जिन्दा रखना होगा.
संतोष जी जो एक शोधछात्र है ने मेरे साथ बात करते हुए यह
बात बताई जो आम दलित मानस में बसी हुई है : “जमाना अब भी अवसरवाद का है हमारे समाज
या सभी आरक्षित वर्ग अपनी कमाई और तरक्की के लिए बाबा साहेब का इस्तेमाल करते है
बस. लेकिन पेय बेक सोसायटी की बात आती है तो अपनी टीवी और बीबी में सिमट जाती है.”
संतोष जी,
आज जो लोग काम करते है, उसमें अमूमन
सब पढ़े लिखे लोग काम करते है एवं वह दिखाई भी दे रहा है. पर जो लोग अपने समाज का काम
नहीं कर पाते इसमें हमारे समाज की गलती ही है, जहाँ
पर स्वाध्याय(स्वाध्याय परिवार, पांडुरंग शास्त्री) वाले आते है, माँ-बाप बिना सोचे-समझे भेज देते है, जिससे उसमें शिक्षा के साथ वही संस्कार
कायम होते है जो उन्हें बदलाव, क्रांति के विचार से दूर ले जाते है. साथ में बेटी को आज भी दोयम ही माना जाता है. शिक्षा के इतर क्या होगा क्या हो
रहा है, उनसे उनका वास्ता ही नहीं पड़ता. इसलिए में यह बार बार कहता हूँ की जय भीम के
नारे के साथ अपने बच्चे का परिचय करवाओ, वो खुद बड़ा-बड़ी हो के उसे जिम्मेदारी से निभाएगा/निभाएगी.
यह लोग लिखे-पढ़े तो है पर पढ़ने-लिखने का वास्ता रोजगार से है, तो स्वाभाविक है जो शिक्षा से बाहर की शिक्षा नहीं पाई वह कैसे समाज से जुड़े ? हमें
इससे आज से ही बचना होगा. जय भीम का नारा इसलिए भी जरुरी है. बोलना एवं जीवन में
उतरवाना-उतारना. एक क्रांति नारा - जय भीम
- डॉ. हरेश परमार