मशाल बुझी हुई है ....
कोई फूल मुरझाये
आपको क्या ?
कोई पत्थर पर चढ़ जाए
आपको क्या ?
क्या कोई इंसान भी जिन्दा है यहाँ
चाँद पर जाने से जैसे
चाँद भी पत्थर हो गया ...
चांदनी हो गई उजाला ...
माफ़ करना मेरे दोस्त !
यहाँ पर कोई तुम्हारी उम्मीद सुनने नहीं आये है
सपने तो ‘पाश’ के समय में भी मरते थे
आज सपनों के साथ इन्सान भी मरता है
पर मशाल मेरी बुझी हुई है ....
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हरेश परमार