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कबीरन

9 जून 2016

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कबीरन

 


अक्सर वह सुमेघ को ट्रेन में दिखायी दे जाती थी। कभी अपने समूह में तो कभी अकेली। सुमेघ उसे देख अपने पास बुला लेता या वह खुद ही चली आती। ऐसा लगता जैसे वो उसे पहचानती है। सुमेघ ने कई बार सोचा कि उसके बारे में जाने लेकिन सार्वजनिक जगह और समय की कमी ने कभी भी मौका ही नहीं दिया। वह बहुत सुन्दर थी और गाती भी गज़ब का थी। ट्रेन की फिज़ां में उसकी सुरीली आवाज से सुमेघ के भीतर कुछ खुदबुदाने लगता। उसकी आवाज में कितनी सम्मोहन भरी गहराई थी-

            ‘‘बना के क्यूँ बिगाडा रे ऽऽऽऽऽऽऽ

            बिगाडा रे नसीबा ऽऽऽऽऽऽऽ ऊपर वाले ऽऽऽऽऽऽऽ ओ ऊपर वाले ऽऽऽऽऽऽऽ।’’

कितना दर्द होता था उसके बोल में। हालांकि वह हंसती थी, मुसकुराती थी पर दर्द का एक पूरा दरिया उसकी आंखों के भीतर उमड़-घुमड़ रहा होता, जैसे वह दरिया थोड़ा भावुक होने पर बहने लगेगा।

कभी-कभी किसी के द्वारा बेहुदा मजाक या फिकरे कसे जाने पर उसका चेहरा एक पल को रक्ताप होता तो दूसरे ही पल वह उसे संयमित कर हंस देती। गहरा व्यंग्य होता था इस हंसी में, जैसे इस हैवानी सिस्टम पर हंस रही हो।

उसका हिजड़ी (हिजड़ों में स्त्री और पुरूष हिजड़ा दोनों होते हैं) होना इस मानवता पर कलंक था। उसका व्यक्तित्व बहुत ही आकर्षित था और वह मोनालिसा सी सुन्दर दिखती। सधी हुयी नाक, नाक के दोनों गोलों के ठीक नीचे गुलाबी ओठ, नुकीली ठोढी, आंखों में एक उदास चमक हमेशा तैरती दिखती .........। सुमेघ को उसमें अपनापा सा लगता आकर्षक, आत्मीय अपनापा।

सुमेघ को चण्डीगढ़ आये पांच साल हो आये थे। समय को उसने सज़ा की तरह काटा। नौकरी थी यूनिवर्सिटी में। पढ़ता-पढ़ाता। शाम को अक्सर निकल जाता लम्बी वीरान काली सड़कों को नापने। कभी किसी बाजार को निहारता। शहर अच्छा था, व्यवस्थित तरीके से बसाया हुआ। पर यह किसी मनु नक्शागो की क्रियश्यन नहीं थी। वर्ना ये शहर भी चार वर्णों की तरह चार हिस्सों में बँटा होता। या फिर केन्द्र और सीमान्त की वर्गीय मानसिकता से बना होता। सुना है किसी फ्रांसीसी या जर्मनी नक्शागो लकारबुजे ने इस शहर का नक्शा रचा था, डिजाइन किया था। एक चैड़ी सड़क, सड़क के साथ रिक्शा और साइकिल चलाने को अलग से लेकिन बड़ी सड़को के समानन्तर छोटी सड़कें। सड़क के दोनों किनारों पर घने पेड़, पार्क, खुले आंगन वाले घर। सरकारी कार्यालय। बाजार के लिए निर्धारित स्थल। सब कुछ व्यवस्थित। ऐसा लगता था कि जैसे शहर की व्यवस्था को लकारबुजे ने व्यवस्थित कर दिया था और शहर के लोगों के दिमाग को गुरूओं के उपदेशों ने। तभी तो भारत के अन्य शहरों की तरह जाति का गर्वीला अहंम यहां कम ही दिखता। कभी-कभी सुमेघ को लगता कि पूरी दुनियां का नक्शा किसी लकारबुजे को बनाना चाहिए था और लोगों के दिमाग में सन्त-गुरूओं के विचारों की महक बसी रहती तो यह भेद भाव न रहता।

सुमेघ को हिजडों से गहरा अपनापा सा लगता था। उसे वे भी सीमान्त पर ठहराये घुमन्तु से लगते। नगर-गाँव, शहर से बेदखल किये हुए। चाहें कहीं भी हो, गौर से उनके चेहरों हाव-भाव को पढ़ने की कोशिश करता, पहचानता, ढूंढता रहता कुछ। इस दरम्यान बेचैनी का बवंडर उसके भीतर उठता। उसके दोस्त सनकी और पागल समझते थे उसे।

उसे याद है जब वह दसवीं में था स्कूल में एक लड़की आयी थी गाने के लिए। वह उसे देखता ही रह गया था।  बला कि खूबसूरत। उसने पास बैठी निहाली से कहा था- ‘‘कितनी सुन्दर लड़की है न? जैसी सुन्दर वैसी ही आवाज .........।’’ 

निहाली उसकी तरफ देखकर हंस पड़ी, ‘‘बेवकूफ ये लड़की नहीं है बल्कि हिजड़ी है। विश्वास नहीं हुआ था सुमेघ को। कोई हिजड़ी इतनी खूबसूरत ........? फिर वह हिजड़ी गाते-गुनगुनाते नाचने लगी थी। उसे निहाली की बात पर विश्वास नहीं हुआ था। घर आकर अम्मा को यह बात बतायी। अम्मा सुनकर परेशान सी हो गयी। अम्मा ने सुमेघ को अपनी गोद में बिठाकर कहा था- हाँ बेटा, कुछ हिजड़े बहुत ही सुन्दर होते हैं’’ यह बताते हुए अम्मा की आँखे पनीली हो गयी थी। कुछ जन्म से ही ऐसे होते हैं। और कुछ बाद में बनाये जाते हैं जोर-जबरदस्ती से।’ ‘पर माँ वो इतनी सुन्दर थी और उसकी आवाज........।बोलते-बोलते सुमेघ ने देखा कि माँ की आँखों के कोनों से पानी ढुलकने लगा था। वह चुप हो गया। क्या हुआ अम्मा ? ’सुमेघ ने पूछा था।’ ‘कुछ नहीं बेटा ........। ऐसे हीकह अम्मा वहां से उठकर चली गयी।

कई बार सुमेघ ने उस सुन्दर हिजड़ी को अपनी बस्ती में भी समूह के साथ नाचते-गाते देखा था। कभी-कभी वह हिजड़ी उनके घर चली आती। एक बार उसने देखा कि अम्मा ने हिजड़े को अपने गले से लगा रखा है, और दोनों रो रही है। सुमेघ को पास आता देख दोनों जल्दी से अलग हो गयी। हिजड़ी ने सुमेघ को प्यार किया, सिर पर हाथ फेरा, सुमेघ को कुछ रूपये देने चाहे, उसने मना कर दिया। फिर वल चली गयी। उसने अम्मा की तरफ आँखों में उग आये सवालों से देखा। अम्मा ने टाल दिया और अपने काम में लग गयी। अब वह अक्सर उस हिजड़ी को अपने गाँव में देखता। वह भी जब उसे देखती तो उसके पास चली आती थी। उससे बात करती। लेकिन सुमेध उससे दूर भागने की कोशिश करता। सुमेघ को बस्ती और गाँव के लड़के चिढ़ाने भी लगे थे। कोई कहता- तुझे पसन्द कर लिया है हिजड़ी ने, तुझे भी ये अपने में शामिल करेंगे।कोई कहता- तेरा कोई रिश्ता है क्या इस हिजड़ी से ? देख तूझे देखते ही भागकर मिलने चली आती है। तुझसे प्यार हो गया है इसे।उसे चिढ़ होती, गुस्सा आता और डर भी लगता।

सुमेघ के बापू सफाई का काम करते थे। सुबह सोफी में जाते थे घर से और भरी शाम शराबी होकर लौटते। पता नहीं गाँव में कितनी गन्दगी थी कि रोज साफ करनी पड़ती, पर कम होने का नाम ही लेती। सुमेघ ने बापू से कई बार कहा था- बापू, तू शराब न पिया कर....... मन्ने अच्छा नी लगता.......।पर बापू का रटा-रटाया एक ही डायलाग होता- बेट्टा, सारे गाँव का मल-मूत्तर साफ करदे-करदे खुद से भी बदबू आंदी है..........। साले ऽऽऽऽ अपणा गन्दा भी हमसे साफ कराते है..........। हम ही इनका गन्द साफ करें और गन्दे भी हमही कहे जावें।’ ’बिना दारू के ये काम नहीं कर सकता मैं........।सुनकर वह चुप हो जाता। उसे गुस्सा आता। वह चाहता था कि बापू ये काम न करे पर ?

अम्मा बापू का सपना था कि सुमेध पढ़-लिख जाए तो उन्हें इस दलिद्रतासे मुक्ति मिले। वह खूब मन लगाकर पढ़ता। अम्मा बापू को इस दलिद्रता से मुक्ति दिलानी है तो पढ़ना होगा।वह मन लगाकर पढ़ता गया और आज चण्डीगढ़ यूनिवर्सिटी में इतिहास का प्रोफेसर हो गया था। सप्ताह के अंत में अपने गांव आता, अम्मा-बापू के पास। उसने बापू से सफाई का काम छुड़वा दिया था। वे समय से पहले ही बूढ़े हो गये थे। बापू की उम्र के कई लोगों को वह चण्डीगढ़ में और गांव में देखता, उनके चेहरों की लाली बनी हुई थी, शरीर की गठावट में बहुत फर्क नहीं आया था। चाल में जाति अहम दूर से ही उनकी पर्सनेल्टी में दिखता। पर उसके अम्मा-बापू वक्त से पहले जर्जर हो गये थे। यह केवल शरीर का जर्जर होना नहीं था, सपनों का, चाहतों का, आकांक्षाओं का और एक पूरी पीढ़ी के सुनहरे भविष्य का मर जाना था। सुमेघ को हमेशा लगता कि यह जाति व्यवस्था उनके जैसे श्रम करने वालों की हत्यारी है।

सुमेध ने नौकरी लगने के बाद अम्मा-बापू से कहा भी था कि, वे चण्डीगढ़ चलें, पर वे नहीं माने- बेटा जब म्हारी सारी जिन्नगी यहां कटेगी तै अब वहां जाकै कै करेंगे।अम्मा ने कहा था। एक दिन उसने अम्मा को बताया कि वह हिज़ड़ी जो उनकी बस्ती में आती थी, वैसी ही शक्ल की ट्रेन में दिख जाती है। उसने अम्मा के चेहरे पर परेशानी को बैठते देखा। वह सुमेघ की तरफ टकटकी लगाये देखती ही रही। क्या हुआ अम्मा ?’ अम्मा कुछ नहीं बोली, पर वो वहां से उठकर चली गयी। सुमेघ जान गया था कि अम्मा की आँखें अब दरिया बनकर बहने वाली है। अम्मा कभी किसी के सामने नहीं रोती थी। जब भी वह भावुक होती उठकर चली जाती। अम्मा का गौर वर्ण का चेहरा रक्ताप हो जाता। कभी-कभी वो कल्पना करता कि उस हिजड़ी के रक्ताप और बेचैन चेहरे और अम्मा के चेहरे में क्या कोई समानता थी? उसने यह बात बापू को बतायी तो वे भी बेचैन होकर उठकर चले गये। यह कैसा अजीब-दहशत भरी जिक्र था कि सुनकर अम्मा-बापू...?

सप्ताह के अंत में वह चण्डीगढ़ से करनाल अपने घर आता। वह जिस ट्रेन से आता तो अक्सर हिजड़ो का वह समूह भी होता और उसमें वह भी शामिल होती सुन्दर, गाने वाली हिजड़ी। एक बार ट्रेन के डिब्बे में वह बैठा था, भीड़ कम थी। उसमें अकेले-दुकेले लोग ही आ जा रहे थे। वह भी उसी डिब्बे में थी और उसके गाने की आवाज़ आ रही थी। सुमेघ ने तय किया कि वह आज उससे बात करेगा।

‘‘क्या यह महज एक संयोग था कि उससे अक्सर सुमेघ की मुलाकात हो ही जाती। संयोग, महज संयोग तो नहीं होते, लगातार घटते संयोगों के बीच कुछ तो रिश्ता होता ही होगा।’’ सुमेघ ने सोचा। जब वह हिजड़ी उसके पास आयी तो सुमेघ ने कहा- ‘‘आपने पहचाना मुझे।’’ सुनकर वह चैंक गयी......। इतने तहज़ीब भरे शब्द उसके कान सुनने के आदी नहीं थे। उसने सुमेघ की तरफ ध्यान से देखा। उसके चेहरे पर उग आये प्रश्नों को सुमेघ पढ़ सकता था। मैं वही हूँ............ आप हमारे गाँव, बस्ती और मेरे घर में आती थी।’ ‘आप शायद मुझे नहीं पहचान पा रही हो, पर मैं आपकी आवाज और शक्ल को नहीं भूलामैं वही.................?’ कहकर सुमेघ चुप हो गया। उसके चेहरे पर उगे सवालों की फसल को सुमेघ ने काट डाला, पर हैरानी की नयी फसल रक्ताप गोरे चेहरे पर लहलहाने लगी थी। ‘‘आप ? आपकी अम्मा कैसी है?’ ‘घर में सब कैसे हैं बाबूजी?’ बोलते हुए शब्द कांपने लगे थेऔर जैसे उसके साथ शब्द, फिजा और सभी वस्तुएँ घबराकर सिसकने लगी हो। वह उसके साथ वाली सीट पर बैठ गयी। अपने को नाकाम संयमित करते हुए शब्द जैसे किसी गहरे कुएँ से टकराकर लौटे हों- ‘‘आप यहां कैसे बाबूजी’’? ‘‘अरसा हुआ वह शहर छूटे’’ ‘‘हमारा वैसे भी अपना कोई तो है नहीं जिसके लिए एक जगह रूकें, ऐसे ही गाते, बजाते, नाचते जहां पेट ले जाता है चले जाते हैं’’ ‘मैं यहाँ यूनिवर्सिटी में पढ़ाता हूँ, सुमेघ ने उसके चेहरे पर निगाह टिकाये हुए कहा। पढ़ाते हो ?’ उसकी आवाज में सुखद आश्चर्य, जैसे किसी अपने की खुशी में शरीक हुयी हो।फिर उसके समूह के अन्य हिजड़े भी आ गये। न चाहते हुए भी वह जाने लगी, तो सुमेघ ने उसे कुछ पैसे देने चाहे तो उसने मनाकर दिया और वह चली गयी।

घर पहुँचकर सुमेघ ने आज हुई मुलाकात और बातचीत की सूचना बापू और अम्मा दोनों को दी। दोनों के चेहरों पर उदासी और चिन्ता को सुमेघ ने स्पष्ट बैठे देखा था। क्या आप लोग उसे जानते हो अम्मा?’ सुमेघ ने दोनों की तरफ देखते हुए कहा।

अम्मा ने बापू की तरफ देखा। बापू उठकर बाहर चले गये। बापू दोपहर को गये थे और शाम घिर आयी। पर बापू नहीं लौटे। अम्मा को भी चिन्ता होने लगी। अम्मा ने सुमेघ से बापू को ढूँढकर लाने को कहा। सुमेघ बापू को ढूँढने बाहर निकल ही रहा था कि उसने देखा कि बापू लड़़खड़ाते कदमों से घर में दाखिल हो रहे हैं। बापू ने खूब शराब पी रखी थी ‘‘आज मन थोड़ा भारी था बेट्टा, मैंने पी ली, तू बुरा ना मानियो, फेर नहीं पीऊँगा।’’ थके, घायल शब्द थे जो किसी तरह बापू मुँह से निकाल पाये थे। अम्मा की आँखों से दरिया निकल रहा था। वह दरिया जो वर्षों से रूका था आज बाँध को तोड़कर सैलाब बन गया था। सुमेघ समझ गया था कि कहीं कुछ गहरे में अटका है। उसका मन भी दुःखी हो गया। वह घर से बाहर निकल आया।

भावुक फिजा और काली रात के बाद भोर हुई थी। चाय पीकर वह अम्मा के पास बैठ गया। ‘‘बताओ अम्मा क्या बात है ? सब कुछ बताओ आज।’’ अगर अपने ही अपनों से दूराव रखें, फिर परायों का क्या ?’’ अम्मा ने सुमेघ की ओर देखा। कुछ सोचा और।

बेटा, बात तेरे पैदा होने से चार साल पहले की है। मुझे बच्चा हुआ था, और मैं बेहोश थी। होश आया तो, अपने पास बच्चा न देखकर मैंने पास बैठी तुम्हारी दादी की तरफ देखा। दादी के चेहरे पर उदासी और तनाव था। दादी ने कहा था- ‘‘अरी बच्चा मरा हुआ पैदा हुआ था इसलिए।’’ पास में ही दाई बैठी थी जो मेरे सिर को सहला रही थी। अधेड़ दाई मुँह लटकाये बैठी थी। मेरे मुँह से सिसकियां सुन दाई मुझे समझाने लगी- बेट्टा भगवान की जै मरजी। उसके आगे म्हारा क्या ? ‘हमारे निपूते करम ही ऐसे थे। उसने दिया था तै उसने अपणै धौरे बुला लिया। ’’पर मैंने तो बच्चे की किलकारी सुनी थी। भारी मन और आंसुओं से लबालब चेहरे से अम्मा ने दाई और दादी से कहा। ‘‘अरे नहीं तू तो बेहोश थी। तूझे क्या होश। बेहोशी में बड़बड़ा रही थी।’’ दाई ने कहा था। ‘‘पर मुझे उसका चेहरा तो दिखा देते।’’ मैं गिड़गिड़ाई थी। फिर दादी भुनभुननाते हुए बाहर चली गयी। कहकर अम्मा चुप हो गयी। सुमेघ ने अम्मा का हाथ अपने हाथ में लेकर उसके पास सरकते हुए कहा- बताओ अम्मा फिर क्या हुआ?’

अम्मा ने फिर बताना शुरू किया ‘‘मैं दाई के सामने रिरियाई। बताओ मुझे, लड़की थी या लड़का?’’ ‘लड़की थीकैसे दिखती थी?’ अम्मा ने पूछा। ‘‘चाँद सी थी एकदम, दूध जेसा रंग था तेरे जैसा ?अरी अंग्रेजन थी, अंग्रेजन’’ अगर जीवित रहती तो।’’ भारी मन से कहते हुए दाई भी बाहर चली गयी।

‘‘पर मेरा मन नहीं मानता था कि बच्ची मरी पैदा हुई, पहली संतान थी परिवार में, सबके सपने, खुशी, उम्मीदें उससे जुडे थे। और मैं तो माँ थी, मेरी बच्ची।, ‘‘नौ महीने पेट में सहेजा था। कैसे सहती सब।’’ ‘‘मैंने तुम्हारे बापू से पूछा, कसमें दी। कहा कि मैं मर जाऊँगी, तब जाकर उन्होंने मुझे सच बात बतायी।’’

‘‘तेरे बापू ने कहा बच्ची तो जिन्दा थी पर वह लड़की थी या लड़का पता नहीं चलता था।’’ ‘मैं तो उसे रखना चाहता था पर माँ (दादी) ऐसा नहीं चाहती थी।’ ‘‘मैंने कहा भी था। काई नी हम पाल लेंगे, किसी को क्या पता चलेगा।’’ पर माँ इज्जत-मान की कहने लगी। दिल पर पत्थर रखकर मैंने उसे अनाथालय भेज दिया। माँ तो कहती थी कि उसे मार दो, उसने दाई को मारने के लिए जहर भी दिया था, पर मैंने साफ मना कर दिया।’’ ‘‘चाँद जैसी सुन्दर थी।’’ कहकर तेरे बापू रोने लगे थे। सिसकते हुए अम्मा ने बताया। ‘‘फिर क्या हुआ अम्मा ? सुमेघ ने अम्मा को ढाँढस बँधाते हुए पूछा। ‘‘तेरे बापू ने उसका नाम कबीरन रखा था। वो उससे नियमित मिलने जाते, मैं भी जाती थी।’’ बेहद सुन्दर और प्यारी थी।’’ दसवीं तक ही पढ़ पायी थी वो’’- ‘लेकिन  अनाथआलय में ये बात छिपी न रह सकी और हिजड़ों का एक समूह उसे अपने साथ लेकर चला गया।’’ ‘‘मैंने और तेरे बापू ने बहुत कोशिश की, पर क्या करते।’’ ‘‘उसे हिजड़ों के एक समूह से दूसरे समूह में बेचा गया जिससे उसकी पहचान छुपी रहे।’’ ‘‘कैसी पहचान अम्मा?’’ सुमेघ ने बेचैनी से पूछा। बेटा, म्हारी छोटी जात, जात तो जात है बेट्टा, वह चाहे इंसानों में रहे चाहें हिजड़ों में, फर्क तो पड़ता ही है।’’ ‘पर अम्मा हिजड़े भी तो इन्सान है।’’ ‘कौन मानता है बेट्टा इसे.........। तू पढ़-लिख लिया इसलिए ऐसा कहता है, वरना, हम क्यों अपनी कबीरन को घर से निकालते।’’ ‘‘इससे तो अच्छा होता हम उसे मार डालते, बेचारी माँ-बाप, भाई के होते हुए दर-दर की ठोकरे तो न खाती। कहकर अम्मा जोर-जोर से रोने लगी थी।सुमेघ भी रूलाई को न रोक सका।’’ वह उठकर कमरे से निकल गया और इस क्रूर समाज पर ?

‘‘मैं अपनी बहन, कबीरन को वापिस घर लाऊँगा’’, सुमेघ ने मन ही मन तय किया। वह वापिस यूनिवर्सिटी पहुँचा, पर पढ़ाने में उसका मन न रमता। उसने कई बार हिजड़ों के समूहों में कबीरन को तलाशने की कोशिश की पर वह कहीं नहीं मिली। वह उसे हर ट्रेन में भी तलाशता। पर वह न दिखती।

लगातार दो साल तक वह उसे ढूँढता रहा। एक दिन सप्ताह के अंत में वह ट्रेन में घर आने के लिए बैठा। सुमेघ चैंक पड़ा था। उसे सुखद अनुभूति हुई जब उसने वही सुरीली आवाज सुनी। बना के क्यूँ बिगाड़ा रे ऽऽऽऽऽऽऽ बिगाड़ा रे नसीबा ऽऽऽऽ ऊपर वाले ऽऽऽ ओ ऊपर वाले ऽऽऽऽऽऽऽ।

वह अपने को रोक नहीं पाया और तेजी से उठकर आती आवाज की दिशा में चल पड़ा। वह कबीरन ही थी। वह कबीरन के सामने पहुँचा। कबीरन उसे अपने पास खड़ा देख, गाते-गाते रूक गयी। डिब्बे में बैठे लोग भी उसकी तरफ देखने लगे। मुझे तुमसे बात करनी है दीदी। सुमेघ ने फिलिंग्स को संयमित करते हुए कहा था। दीदीसुनकर डिब्बे में बैठे लोग आश्चर्य और बेहुदेपन से सुमेघ की तरफ देखने लगे। कबीरन ने भी भावुक होकर सुमेघ को देखा।

‘‘आप अपनी सीट पर चलिये बाबूजी मैं अभी आती हूँ’’पर तुम अभी मेरे साथ चलो दीदी।’’ क्यों भाई साहब जरा गाना तो सुना लेने दो फिर ले जाना।’’ ठहाका लगाते हुए भौंड़ेपन से, कहीं से आवाज आयी। संयम रखते हुए सुमेघ अपनी सीट पर जाकर बैठ गया। तब तक उसके समूह के अन्य हिजड़े भी उसके पास पहुँच गये थे। वे भी बेशर्म लोगों का मनोरंजन करने लगे। कुछ देर बाद कबीरन सुमेघ के पास आकर बोली- ‘‘कहिये बाबूजी, क्या बात है ?’’ ‘घर में सब ठीक तो है ?’’ ‘दीदी मुझे तुमसे अकेले में बात करनी है, अम्मा ने मुझे सब कुछ बता दिया है।’’ भावुक बेचैनी और आसुँओं को किसी तरह जज्ब़ करते हुए सुमेघ ने कहा था। पर मुझे नहीं मिलना आपसे बाबूजी। और वैसे भी हमलोगों के पास बेकार और पीछे छूट गये रिश्ते निभाने की फुर्सत नहीं है, कहते हुए कबीरन थोड़ी तल्ख हो गयी थी।’’ ‘‘फुर्सत नहीं है या अब मिलने की हसरत नहीं बची है दीदी।’’ गिड़गिड़ाया था वह। सुमेघ ने पुनः कहा- ये मेरा फोन नं. है दीदी, अगर तुम्हें लगे और फुर्सत मिले तो फोन कर लेना........। मैं तुम्हें घर वापिस ले जाने आया हूँ दीदी।’’ कहा था सुमेघ ने। ट्रेन के डिब्बे का यह एक अलग ही दृश्य था। समूह के अन्य हिजड़ों ने भी यह सब सुना, देखा। वे सुबकती-सिसकती कबीरन को अपने साथ लेकर चले गये। उसे एहसास हुआ- ‘‘समय ने रिश्ते के दरिया को सुखा दिया है। उसके सामने केवल मरूस्थल है।’’

अम्मा-बापू के पास जाने का सुमेघ का मन न हुआ। भारी मन से वह यूनिवर्सिटी में मिले क्वार्टर पर लौट आया। शाम को खाना बनाने आयी राधा से भी उसने कुछ नहीं बनवाया। दूध पीकर वह सोने की कोशिश करने लगा। उसका मन दुःखी और बेचैन था। कितने खराब और बेहुदे समाज में रहते हैं हम। जात-पांत में तो यह बैर ही है पर एक हिजड़े को भी वह अपने में शामिल नहीं कर पाया। उसे अम्मा-बापू पर गुस्सा भी आता और उनकी मजबूरी पर रहम। सवेरे उठा। सिर भारी था। उसका कहीं जाने को मन नहीं था। फिर से कबीरन से मिलने की इच्छा होने लगी। वह उसकी बहन है। उसे भी तो इस अमानवीय समाज में मुक्त होना होगा। उसकी बहन जैसी न जाने कितनी कबीरन ? यहां सभी सीमान्त वाले जाति-धर्म-पितृसत्ता में कैद हैं। पर हिजड़े समुदाय के लिए ऐसी हैवानियत और बेदखली किस वैचारिक सत्ता की बदौलत है? इनकी आवाज, अस्मिता, गरिमा को लेकर कहीं कोई आन्दोलन नहीं? अपनापा नहीं? न ये आदमी हैं न औरत। पर हैं तो इंसान ही। जीते-जागते इंसान। इनकी विशेष अस्मिता की बात तो हमें ही करनी होगी,। ये तो दलितों में भी दलित। अछूतो में भी अछूत, अनाथों के अनाथ है’’। उसकी बेचैनी बढ़ रही थी। फोन की घन्टी ने उसे विचारों की यातना से बाहर निकाला। बाबूजी मैं कबीरन बोल रही हूँ। आप मिलना चाहते थे न, बताओ कहां मिलोगे ?’’ आवाज सुनकर घबरा गया था सुमेघ। दीदी। शब्द बेसब्री से बेसाख्ता बाहर निकल आये थे। दीदी यहीं चली आओ न यूनिवर्सिटी में। उसने जल्दी से अपने क्वार्टर का पता कबीरन को बताया।’’

मैं तो वहां आ जाऊगी बाबूजी, पर आपको लोग क्या कहेंगे ? एक हिजड़े को घर में बुलायेंगे।’’ जिसे अम्मा-बापू घर में नहीं रख पाये उसे आप घर में ?’’ नहीं दीदी आप घर पर ही आ जाओ। कहकर रो ही पड़ा था सुमेघ।

कबीरन के फोन के बाद सुमेघ कभी कमरे में तो कभी बाहर गली में टहलता रहा। उसके मन में कई तरह के विचार एक साथ आते और चले जाते। भावनाओं का बवण्डर उठता और। उसे कहीं पर पढ़ी कबीर की पंक्ति याद हो आयी- ‘‘अवधू भूलै को घर लावै। सो नर हमको भावै।’’ पर क्या ऐसा हो पाएगा? सोचा था उसने। समाज क्या कहेगा। अम्मा-बापू उसे रख पायेंगे.......।’’ और रिश्तेदार, समाज?’’ उसने झटके से सवालों को रौंद डाला। नहीं.......। वह मेरी दीदी है..............। बिछड़ी हुई, बेदखल की हुई। मैं रखूँगा उसे।उसने तड़पकर निर्णय लिया।

गली में टहलते हुए उसने दूर से ही कबीरन को देख लिया था। लम्बा कद, गौर वर्ण। कितनी सुन्दर दिख रही थी दीदी। पास आने पर उसे लगा जैसे धूप कबीरन की आँखों में उतर आयी हो। चेहरे पर कैसा तेज था। चाल में अल्हड़ता लिए आत्मविश्वास....। ‘‘क्या मीरा बाई ऐसी ही रही होगी ?’’ सोचा था सुमेघ ने। उसने देखा कि आज कबीरन ने एकदम अलग सलीके का लिबास पहना था, अगर किसी को न बताया जाये कि वह, ..?

‘‘नमस्ते दीदी।’’ कहा था सुमेघ ने। नमस्ते बाबूजी। बिना अपनापन के विनम्र तल्खी से कबीरन ने उत्तर दिया। दोनों के बीच खामोशी पसर गयी। सुमेघ बिना बोले उसके साथ-साथ चलते हुए अपने कवार्टर तक पहुँचा। ‘‘पानी पीओगी दीदी ?’’ कबीरन कुछ नहीं बोली। आँख उठाकर सुमेघ को देखा था। कबीरन की आँखों में गहरा तेज था। अनेको सवाल थे। उनका सामना सुमेघ नहीं कर पाया और पानी लेने किचन में चला गया। कबीरन ने घर में इधर-उधर देखा। किताबें, दीवारों पर कुछ तस्वीरें। चार कुर्सियाँ। सुमेघ के अकेले रहने का अहसास करा रही थीं। सुमेघ वापिस ड्राइंगरूम में आया। उसने पानी का गिलास कबीरन की ओर बढ़ा दिया। आपने अभी तक शादी नहीं की बाबूजी ?’’ ‘‘नहीं दीदी। नहीं की’’ बेचैनी से बोला। दीदी, आप मुझे बाबूजी मत कहो, मैं तुम्हारा छोटा भाई हूँ।’’ तुम मुझे सुमेघ कह लो न। प्लीज दीदी।’’ रो ही पड़ा था सुमेघ और उठकर दूसरे कमरे में चला गया। थोड़ी देर बाद लौटा था, अब वह संयमित था। हाँ दीदी, तुम बताओ अपने बारे में कुछ। मैं तो तुम्हारे बारे में बिलकुल भी नहीं जानता था।’’ ‘‘वो तो उस दिन मैंने ही जबरदस्ती अम्मा-बापू से पूछ लिया था’’ ‘‘पता है दीदी, अम्मा-बापू तुम्हें बहुत मिस करते हैं। उस दिन जब मैंने तुम्हारे बारे में पूछा तो बापू ने बहुत दिनों बाद बहुत शराब पी और खूब रोये थे।’’ बताते हुए सुमेघ की आँखें फिर से भर आयी थी। फिर से दोनों को खामोशी मुँह चिढ़ाने लगी। खामोशी को सुमेघ के शब्दों ने ही हटाया था। चाय पीओगी दीदी।हाँ, पी लूँगी, पर तुम्हें परेशानी न हो तो मैं बना लूँ। ’’कबीरन बाबूजीऔर और आपसे तुमशब्दों पर उतर आयी। सुमेघ को अपनापा लगा था। चाय बनाकर कबीरन ड्राइंगरूम में आ बैठी। अच्छा दीदी तुम बताओ अब। बापू ने बताया था कि तुम दसवीं तक पढ़ी थी। बहुत ही इंटिलिजेंट भी थी पढ़ने में ?’’ कई सारी बातें एक साथ सुमेध ने बाहर को उड़ेली।

मेरे पास बताने को कुछ भी तो नहीं बाबूजी।’ ‘अब हमारा परिवार, रिश्ते-नाते, सब यही समुदाय तो है।’ ‘हम यहीं अपनी पूरी जिन्दगी जी लेते हैं।’ ‘भाई-बहन, पति-पत्नी, माँ-बाप सब यहीं होते हैं।’ ‘पर मैं पूरे विश्वास से कह सकती हूँ कि तुम्हारी दुनियां से अच्छी होती हैं हमारी दुनिया। किसी को धोखा नहीं देते, दुत्कारते नहीं है।’ ‘‘हम मेहनत करते हैं, गाते-बजाते हैं, उसके बदले कुछ लेते हैं।’’ ‘हमारा समाज.............. तुम्हारी बेरहम दुनियां से अलग है बाबूजी।’’ कहते-कहते तल्ख होती गयी थी कबीरन।

सुमेघ एकटक कबीरन को देखता रहा था। ‘‘मेरा क्या कसूर था जो बापू ने मुझे घर निकाला दिया ? आज मैं दर-दर की ठोकरें खा रही हूँ तो क्यूँ?’’ ‘‘परिवार को देाषी मानूँ ? समाज को ? किसे ? ‘‘पता है बाबूजी, हम हिजड़ों में भी स्त्री और पुरूष हिजड़े होते हैं।’’ ‘‘मैं तो औरत हिजड़ा हूँ जब अनाथालय में थी तो वहाँ तुम्हारी दुनियां के पुरूष ने ही मुझसे पहली बार बलात्कार किया था। पर मैं किसे बताती कि मेरे साथ। कौन विश्वास करता कि हिजड़े के साथ बलात्कार हुआ।’’ ‘‘कहीं किसी कानून में लिखा है कि हिजड़े के साथ बलात्कार की क्या सजा है ? तुम्हारा समाज न तो हमें स़्त्री मानता है और न ही पुरूष।’’ ‘‘तुम मुझे इस बलात्कारी दुनियां में वापिस ले जाना चाहते हो।’’ पर क्यूँ ?

सुमेघ सन्न रह गया था सुनकर। उसे कबीरन बहुत ही ज्ञानी लगी थी। वह नाचते-गाते, घूमते-फिरते जैसे ज्ञान पा रही हो। कबीर सा अनुभव जन्य ज्ञान। उस अनुभव को पीकर वह सच में कबीरन बन गयी हो। पर थी तो अनाथों की अनाथ ही।

हम तो सीमान्त वाले हैं बाबूजी। कभी न कभी तो तुम लोगों के बनायें इन किलों और मठों को ढहा ही देंगे। उसका चेहरा गहरा रक्ताप होता गया और लहज़ा तल्ख़। ‘‘अब तुम जान ही गये हो। ‘‘तुम मेरे अपने हो और अपनों से लड़ना जोखिम भरा एडवेंचर होता है।’’ पर हमें यह हमेशा याद रखना चाहिए- ‘‘डिग्निटी इज मोर इंपोर्टेंट।’’ ‘‘और हमारी तो अस्मिता भी नहीं है कोई।’’ ‘‘तुम्हारी दुनियां, समाज, परिवार और घर में मैं किस हैसियत से जाऊँगी।’’ थोड़ा रूककर कबीरन बोली- ‘‘मैं तुम्हारे साथ नहीं चल सकती।’’ ‘‘मैं ही तुम्हारे समाज में क्यूँ आऊँ ? तुम क्यूँ नहीं आते हमें मुक्त कराने हमारे समाज में ? कितनी कबीरन यहां घर से, समाज से बेदखल होकर ठोंकरे खा रहीं है। कहते-कहते पहली बार भावुक होकर रोयी थी कबीरन। ‘‘दीदी प्लीज। लौट आओ न घर।’’ भावुकता में ही कबीरन कहती गयी। नहीं भैया, मेरा वापिस लौटना तो न होगा। पर मैं तुमसे कुछ माँगती हूँ। अगर तुम चाहते हो कि कभी-भी कोई कबीरन घर से बेदखल न हो तो समाज की मानसिकता को बदलने का प्रयास करो।’’ हम भी इंसान हैं, हममे भी सांसे हैं, सपने हैं। हमलोग तुम जैसे औरत या आदमी नहीं है तो क्या हुआ ? तुम्हारी दुनियां हमें सामान्य नहीं मानती। जबकि तुम लोग, तुम्हारी दुनियां सामान्य नहीं। ज़ेहनी बीमार हो तुम। कभी जात में, कभी धर्म में, कभी औरत-मर्द में भेदभाव किये रहते हो। बीमार समाज है तुम्हारा। इसकी बीमारी दूर करने की कोशिश करो। बस हमसे इंसानों जैसा सा बर्ताव करो। हमेशा याद रखना सुमेघ ‘‘डिग्निटी इज मोर इंपोर्टेंट।’’ और हमें तो पहले अपनी-अपनी आइडेंन्टीटी ही बनानी है, इंसानी पहचान.............।’’ कहते-कहते कबीरन उठी और दरवाजा खोलकर लम्बी काली सड़क पर चलती गयी। सुमेघ ने उसे पीछे से पुकारने की कोशिश की, पर उसकी आवाज भीतर ही घुट गयी और कानों में शब्द गुँजने लगे। “डिग्निटी इज मोर इंपोर्टेंट।’’

 

-       सूरज बडत्या

मो. 9891438166

email : badtiya.suraj@gmail.com

Chandy Bharti

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बहुत अंडर मर्मस्पर्शी ahani

22 अप्रैल 2017

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परिवार वाद के विरोध में परिवारवाद

6 जून 2016
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'हमने कई लोगों की मिठाई रोक दी और ऐसा करनेमें मुझे कई दिक्कतों का सामना करना पड़ा' - महा प्रधान मंत्री कम विदेश मंत्री श्रीश्री मोदी जीRSSएक परिवारहै,जिसे कईपदों पर इस कार्यकाल में परिवार वाद का विरोध करते हुए आसीन किये|अभी अभीकिरण बेदी को गवर्नर बनाया गया | मिठाई तो बंटी पर अपने लोगों के बीच में बंट

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क्रांति का नारा : जय भीम का नारा

7 जून 2016
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क्रांति का नारा : जय भीम का नारा संघी सफल क्यों होते है आंबेडकर को अपनेअंबेडकर बनाने में ? कारण साफ है : जो लोग शिक्षा ले के आगेआये उन्होंने चाहे वह नौकरी करता हो या न करता हो, उन्होंने आंबेडकर के विचारों को घर घर नहीं पहुँचाया, आंबेडकर के चित्र रखे पर पूजा-धूपबत्ती के छाये में लद गए, समाज से जो बाह

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अपनी परछाई

9 जून 2016
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अपनी परछाई  कभी जिन्दगी की साम ढलने के वक्तकुछ अहसास होता है अँधेरे काकुछ सुकून सा देता हैवह पल चहचहाते उड़ते अपने घर को लौटते पंखकुछ शांत से खड़े, पत्तो को संजोयें पेड़कुछ वक्त के लिए होता है अहसासअँधेरा घना होने से पहलेसूरज के डूबने के बादकुछ लालिमा आसमान कीदेती है सुकूनफिर बढ़ता है अँधेराहमें दिखाई द

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कबीरन

9 जून 2016
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कबीरन अक्सर वह सुमेघ को ट्रेन में दिखायी दे जाती थी। कभीअपने समूह में तो कभी अकेली। सुमेघ उसे देख अपने पास बुला लेता या वह खुद ही चलीआती। ऐसा लगता जैसे वो उसे पहचानती है। सुमेघ ने कई बार सोचा कि उसके बारे मेंजाने लेकिन सार्वजनिक जगह और समय की कमी ने कभी भी मौका ही नहीं दिया। वह बहुतसुन्दर थी और गाती

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11 जून 2016
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हमारा समय  हम जीस रास्ते चले जरुरी नहीं की फूल ही बीछे हो,कांटे ना सही लेकिन रास्ता कठिन जरुर हो सकता है.हमें तो चलना है अपनी धुन पर...और हम चले अंजान रास्तों पर धूल भरे रास्तों से शुरु हुआ था सफ़र हमाराआज सडको पर चलते है पक्की सडको परपर हमारें अंदर बसा इन्सान सो चूका हैबहुत गहरी निंद...पत्थरों से कभ

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दंगा रोकने का लालू-मंत्र.

18 जून 2016
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दंगा रोकने का लालू-मंत्र.यूपी में दंगा रोकना अखिलेश सरकार की जिम्मेदारी है. डीएम, एसपी, थानेदार चाह ले और यूपी में कहीं दंगा हो जाए, यह नामुमकिन है.सरकार को सिर्फ इतना कहना होगा कि दंगा हुआ तो इलाके के अफसर बर्खास्त होंगे.सिर्फ यह करके लालू प्रसाद, राबड़ी देवी और नीतीश कुमार ने बिहार में 25 साल तक द

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जाति कौन जागता है ?कौन सोता है ?यहाँ कौन सा किस तरह का बदलाव हुआ है ?एक बच्चा आज भी माँ की कोख से जाति ले के जन्म लेता है. बोध होता हो या ना होता हो,दुनिया बोध करा देती है,जाति ऐसी चीज है जो उम्र के साथ अपना कद दोगुना बढ़ा लेती है. एक पेड़ पर चढ़कर आज भी मनुष्यअपनी वाली डाली ही काटता रहता है,यह बिंब प्

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रोहित की शहादत, राजनीति करण एवं हम

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रोहित की शहादत, राजनीति करण एवं हमहरेश परमार कुछ परिदृश्य ऐसेहोते है जिसे हम देखना नहीं चाहते, हम उनसे आँखे मूंदना चाहते है, फिर भी वह मंजरहमारी आँखों के सामने आ जाते है | हम लाख कोशिश करें पर फिर भी ऐसे वक्त में हमउनसे आँख चुराकर भी देख ही लेते है | समर्थन में हो या असमर्थन में पर हमारे सामनेयव यथा

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अनजानी सी ...

25 अगस्त 2016
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कुछ खोई खोई अपने सपनों मेंअपनी मुश्कान मेंअपने ही ख्यालों में अनजानी सी ....आवाज में वह नमी हैऔर पहचान भर बातेंदूर से छूती है दिल कोऔर लहराते बालो कोसँभालते गुजर जाती है अपनी एक अंजान पहचान छोड़करकोई नाम नहींकोई अनाम भी नहींकुछ सुहाने लम्हों को छोड़जाती है वह .....

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संस्कृत किसी भाषा की मां नहीं है - दिलीप मंडल

31 अगस्त 2016
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संस्कृत किसी भाषा की मां नहीं है. किसानों ने कभी भी संस्कृत में अपनी फसल नहीं बेची. मछुआरों ने संस्कृत में मछली का रेट नही बताया. ग्वालों ने संस्कृत में दूध नहीं बेचा, सैनिक ने कमांडर से इतिहास में कभी भी संस्कृत में बात नहीं की, किसी मां ने बच्चे को संस्कृत में लोरी नहीं सुनाई, खेल के मैदान में कभी

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मुँह मत मोड़ना

14 सितम्बर 2016
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अगर दोबारा कहीं मिले चौराहे परमुबारक मुँह मत मोड़ना, आरक्षण से है, रहेगे, आगे भी बढ़ेगे, हमें मिटाने से हम नहीं मिटेगेजहाँ भी दफ़न होगे, आपके रास्ते पे वटवृक्ष बन ऊग आयेगे ....-हरेश परमार

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हरा पेड़ कोयला बन जायेगा....

16 सितम्बर 2016
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तुं ही है अभी मंजर में आ देख बहुजनो के बंजर मेंअभी तो सोया हुआ है,कुम्भकर्ण सी नींद में, तुझे जो करना है कर ले अभी हीजागेगा जब बंजर सारा, तेरा मंजर बदल देगा....वक्त की नजाकत का फायदा लिया है तूनेअपने लोगो को सत्ता में देखलाडला बनवाया है तुझेमोहरा जब उतरेगा,वह कफ़न किसी और का पुकारेगा,वह हाल बस होगा,

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फटी हुई चादर

18 अक्टूबर 2016
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ठण्ड रात थीउनकी चादर फटी हुई थी,चादर कंप कंपा रही थी,कभी इधर-कभी उधर लुढ़क रहीथी.बस सिर्फ चादर फटी हुईथी,गहरी अँधेरी रात थी,ठण्ड उससे भी ज्यादा ढीठथी....रात जितनी लंबी थी, उससेभी ज्यादा लंबी हो रही थीचादर फटी हुई थी...नींद आँखों में होते हुएभी ठंडे तारों को देख रहीथी...

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मैं वापिस आऊंगा - सूरज बड़त्या

19 अक्टूबर 2016
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मैं वापिस आऊंगा - सूरज बड़त्या जब समूची कायनातऔर पूरी सयानात की फ़ौजखाकी निक्कर बदल पेंट पहन आपकी खिलाफत को उठ-बैठ करती-फिरती होअफगानी-फ़रमानी फिजाओं के जंगल मेंभेडिये मनु-माफिक दहाड़ी-हुंकार भरे....आदमखोर आत्माएं, इंसानी शक्लों में सरे-राह, क़त्ल-गाह खोद रहे होंसुनहले सपनों की केसरिया-दरियाबाजू खोल बुला

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ओरांग उटांग !!!! - सूरज बडत्या

27 अक्टूबर 2016
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ओरांग उटांग !!!!परम आदरणीय आंबेडकर विरोधियों !!!आपकी महिमा अपरम्पार हो !!! जय जय कार हो !!आपकी सारी बहस को मैंने बेहद बारीकी के साथ सतर्क निगाह से पढ़ा , और मैं अब इस नतीजे पर पहुंचा हूँ की आपके विचारों को मैं पूरी तरह से खारिज कर सकूँ !!! इसे अपने पूर्वज से असहमति दर्ज करना और उनकी सीमाएं दीखाना नही

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देश के लिये....

14 नवम्बर 2016
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जब एक फैसला हुआउस दिन एक बुजुर्ग की नजर में चमक दिखी थीदुसरे दिन बेंको में अपने नोट जो कुछ ही दिन पहले निकले थेबदलने गएउनका बीपी बस बढ़ने लगा था...वह तो देश को अपने सीने में बसा के आया थापर जब अपने आस-पास देखा बूढ़े-गरीब अपना काम छोड़कर अपने लिए खड़े थेदेश के नाम परमैं सोचते हुए आगे बढा ही थाबैंक में पै

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आंसू

15 नवम्बर 2016
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आंसूआपने रोहित वेमुला की माँ की आँखों में आंसू देखे थे ?आपने नजीब की माँ की आँखों में भी आंसू देखे थे ?पर आपको वह नजर नहीं आये ...वह नेता नहीं थेवह नेताओं के पुत्र-पौत्र नहीं थे...आपने उस उना काण्ड में मार खाने वालों के भी आंसू देखे थेआपको उस वक्त क्या लगा था ?आपने जब वह फैसला आया जब देश में आप जो र

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देशभक्ति गीत

28 फरवरी 2017
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मेढक को जब मैंने कहाप्यार की भाषा बोलोउसने कहा ‘ड्राऊ....’मैंने उसे फिर कहा नफरत की भाषा बोल के दिखाओ उसने कहा ‘ड्राऊ....’मैंने उसे फिर कहा चलो कोई नही, देशभक्ति गीत ही सुना दो‘ड्राऊ....’‘ड्राऊ....’‘ड्राऊ....’

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मशाल बुझी हुई है ....

1 मार्च 2017
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मशाल बुझी हुई है .... कोई फूल मुरझाये आपको क्या ?कोई पत्थर पर चढ़ जाए आपको क्या ?क्या कोई इंसान भी जिन्दा है यहाँचाँद पर जाने से जैसे चाँद भी पत्थर हो गया ...चांदनी हो गई उजाला ...माफ़ करना मेरे दोस्त !यहाँ पर कोई तुम्हारी उम्मीद सुनने नहीं आये हैसपने तो ‘पाश’ के समय में भी मरते थेआज सपनों के साथ इन्स

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