ये जो बे-ज़ुबानों की बस्ती है।
हां ये जो इंसानों की बस्ती है।
जिंदगी जहां बहुत महंगी है।
मौत कौड़ियों से भी सस्ती है।
सरे राह आबरू जहां लुटती है।
ये कैसी बेशर्मों वाली मस्ती है।
आंखों में लहू उतार आए देख।
इंसानियत की मिटटी हस्ती है।
जय-विजय, पाप-पुण्य सब है।
ये संसार तो माया भरी कस्ती है।
मृत्युंजय विश्वकर्मा