11 जुलाई 2022
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कहानी, लघुकथा और कविता लिखता हूँ । अभी इस मंच को नवीन रचनाएं नहीं दे रहा हूँ। D
आंसू भी बहाता आंसू घड़ियाली आंसुओं की वारिश में सच्चे दिल से निकला दिल की आवाज सुनाता खुशी या गम के पल बताता वह एक आंसू कहाँ खो गया पता ही न चला घड़ियाली आंसुओं के समंदर में क्या बिसात एक अश्रु विंदु
अश्रु तो निकलते मुझको भी मैं बहाता नही मन होता रुदन को मेरा मैं रोता नहीं अश्रुओं को क्यो बहा दूं नीर सम मन सीप में रख बना लूं मोती रुलाने बालों, शुक्रिया आपको मोतियों का ढेर तैयार हुआ आंसुओं को बहा
मैं एकांत चाहता हूं कभी मैं एकांत चाहता हूं कुछ देर ही सही खुद को ढूंढना चाहता हूं इस भीड़ में दोड़ते दोड़ते कितनों को देखता रहता मै खुद कहाँ हूं खुद को देखना चाहता हूं सभी की ताकत और कमजोरी जानने से
मैं स्त्री हूं मर्दों का तो काम यों ही कह देना कुछ भी बोल देना मैं भी मर्द हूं पर कह सकता हूं आसान नही स्त्री बनना स्त्री नाम त्याग का स्त्री पर्याय ऊंचाइयों का दया, ममता, करुणा, अहिंसा, सच्चाई, वीर
नारी की शक्तियां धरती, चांद, तारे रच दुनिया की खङी सृष्टि कर्ता ने जीवन की पहल शुरु कई मुश्किलों के बाद विस्तार न हुआ सृष्टि का भूल कहाॅ समझ न आयी ओर जब आयी तो विरची नारि आदमी की बन संगनी जब नारी ने
असमान्य घड़ी घड़ी तो असमान्य आती है सूरज के साथ मेघों की चादर ढक लेती रवि को रवि की किरणें रुक जातीं चादर से धरा तक पहुंच न पाती फिर रवि क्या करता और कुछ नहीं भेजता रहता निज आभा को मन में संकल्प लिये
सभी का छोड़ साथ कुछ तज जगत का राग एकाकी बन गये एकांत तलाशने बाले कब एकांत पाये मन में अनेकों भाव अच्छे और बुरे भी पीछा तो न छोड़ते मिथिला के नरेश माता सिय के पित जनक सीरध्वज नाम एकाकी न हुए पर एकांत प
लूडो लूडो का खेल अनेकों बृह्मज्ञान देता एक रंग की गोटियाँ एक परिवार का रूपक गोटियाँ सदस्य परिवार की सब बढते आगे दूसरे को गिराकर पर परिवार के सदस्यों का साथ परिवार को आगे बताता है बीच बीच में
मुर्दे भी बोलते हैं जनाब मृत्यु के बाद भी बहुत काल तक कुछ बोल रहे आज भी कुछ पाठ पढाते इंसानियत का गौतम और गांधी आज भी बोल रहे सत्य और अहिंसा बताते राम और कृष्ण भी जगती तज गये युगों पूर्व आज भी बोल रहे
बहुत पहले बचपन में एक पाठ था किताब में मेरी सजीव और निर्जीव बतलाया था वह सजीव है जो लेता श्वांस चलता खाता प्रजनन करता प्रतिक्रिया देता पर शायद लगता है कुछ रह गया लेते हैं कई निर्जीव भी श्वांस खा
कल तक था गुरूर वह काया पंचतत्वों में हो विलीन काली रेत बन गयी काया का स्वामी चला गया दूर देखता भी नहीं काया मिट गयी काली रेत में जिस पर था गुरूर वह काया मिट गयी काली रेत में धनी था या था निर्धन कमजोर
छिप जाना बेहतर है बहुत ही बातों का गुम होना अच्छा है दुनिया का क्या है कीमत कब समझती बहुत से सीप और मोती जा छिपे सागर की गहराई में बहुमूल्य बन गये जब ढूंढा गहरे सागर में आसानी से मिल जाते मोती फिर कौ
आधा होकर भी इतना इतरा रहा अरे ओ चांद गर्व न कर गर्व तो मिट गया रावण का भी फिर तू तो आधा पहले से सुन उलाहना चांद सकपका गया कुछ मुस्करा गया मैं कहाँ से अर्ध पूर्ण हूं पढो पुस्तक में सूरज की र
रेत के झरने से कब बुझती है प्यास। झरना निर्मल नीर का बुझाता जग की प्यास। मृगमरीचिका में खोज रहा आनंद विषय भोगों की बुझती नहीं प्यास घृत डालता रहा अग्नि न बुझी चार बूंदें जल की शांत हुई आग रेत
साधना नहीं पुरुषार्थ अध्यात्म का खुद के सुख की चाह इहलोक या परलोक की तप, जप, संयम का आसरा साधना तो नहीं साधना है बलिदान खुद का समाज के लिये देश पर मर मिटना मानवता का पर्याय साधना है विरह कृष
भोर भयो सखि चल पनघट पे सुन धुन मुरली की छोरा नंद को आ पहुंचो पनघट पे दीवानी हम प्रेम में सखियां किशोरी की प्राणों में बसे नंदलाल हमारे हैं सहस्र घटों में भरा नीर एक रवि का बिंब सभी में समाया ह
ललक एक उड़ान की आसमान से करना बातें खेलना रुई सम बादलों संग चिडियों सा उड़ जाऊं बन जहाज हवा का निहारूं भू को उड़ते हुए आसमान से ऊपर से नजर कौन हिंदू, मुगल सवर्ण या दलित कृष्ण या गौर दुर्बल या बलवान
मैं कविता हूँ शुद्ध अंतर्मन में छिपे उद्गार धर रूप शव्दों का बाहर आ जाते मैं कविता हूँ जन्म मृत्यु से परे अवतार धारणा का रूप प्रत्यक्ष कब जन्म लेती अवतरित होती हूं मैं कविता हूँ अवतरित
वह मछुआरा रोज पकड़ता मछलियां एक छोटी सी नाव दूर सागर तक जाता भर लाता मछलियां ढेर के ढेर बाजार में दे आता यही आजीविका थी उसकी देख तड़पती मीन को मन न तड़पा कभी उसका बचपन का आदी मीन तो भोज्य थीं सजीव न थ
जिंदगी से पूर्व कौन कहाॅ था किस हाल में किसके पास था भी या नहीं या आरंभ जीवन ही अंत मौत से अनेकों रहस्यों से भरा ज्ञान भी विज्ञान है भौतिक विज्ञान से अलग पराविज्ञान भी है जिंदगी से पूर्व मौत के बाद का
जीवन किसके हाथ में न हमारे, न आपके अध्यात्म कहता कोई अज्ञात शक्ति जिसने दुनिया बनायी वही जीवन देता जिदगी छीन भी लेता जीव एक पथिक चलता रहता कभी रुक जाता सराय में वही उसका जीवन फिर निकल लेना निज
यह जिंदगी खेल शतरंज का इंसान प्यादे कोई हाथी शक्ति का पर्याय सीधा ही चलता ऊंट की टेड़ी चाल अश्व स्वार्थ का पर्याय नजर रखता कुछ दूर प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष से अलग स्वार्थ सिद्ध करना है ढाई चाल चलता सभी
कीमत पानी की बूॅदों की जानो मरुभूमि में रेत के अंबार में दो बूदें जल की कंठ तर कर देतीं अम्रत से अधिक ही कीमत पानी की बूॅदों की जानतीं अंखियाॅ अनगिनत नफरत, पश्चाताप दुख भरी यादों कों बहा ले जातीं बूॅद
काॅफी और चाय लगता दो बहनें हैं शायद सौतेली अलग माताओं की बेटियां लगता चाय बङी बहन है उसकी माॅ का निधन विपत्ति दे गया पिता एक पुरुष बेटी को पालना कहाॅ आसान कर ली दूसरी शादी दलील बेटी को माॅ म
जल और मानव मन कुछ एक जैसे नीचे गिरते जाते उठना नहीं आसान हैंडपंप एक साधक का पर्याय नीचे से मन को उच्चता प्रदान करता विचारों में उच्चता उच्च समाज का निर्माण सम्मान नारियों का कमजोर पर दया जीव में ई
आज निःशव्द हो जाऊं दिल की बात पी जाऊं बातें अनेकों उमङती मन भीतर मन सागर में डुबा दूं उनको कहीं भीतर गहराई पर छिपाकर मोतियों को लूं छिपा जग से यह चांद बङा बेदर्दी है क्या जिद ठान बैठा है चंद्र
मैं रवि अनंत आकाश का उदित होते ही फैला रहा प्रकाश खुद तपकर भी तिमिर को हराता जग को हसाता पुष्पों को खिलाता खगों की चहचहाहट कृषकों की मेहनत उल्लास का द्योतक मेरा खुद तप जाना अंगारों का साथ कै
अमर गाथा प्रेम की एक थी लैला शहजादी बगदाद की खलीफा की लाङली पली ऐशोआराम में हर ख्वाहिश को रखती मुट्ठी में क्या नामुमकिन खलीफा की प्यारी शहजादी को एक था मजनू अनाथ और असहाय पा गया पनाह खलीफा के महल म
आज राधा रूठी है प्रभु क्रीङा की याद पवित्र वृन्दावन धाम निकट राधा बल्लभ रहतीं विधवा नारि कहाती आनंदी माँ पूजती प्रभु श्याम रख वात्सल्य भाव सुत बना घनश्याम ज्यों हो नंदरानि आज राधा रूठी है रहतीं भावलो
पुष्प एक बगिया का मुस्करा रहा था खुद की जमीन खुद की डाली जानी पहचानी हवा जाने पहचाने लोग साथ अपनों का क्या कमी खुशियों में एक रोज तोड़ लिया माली ने गुलदस्ता बनाने को किसी को खुश करने को राजा या अधिकार
खुद की ताकत पर इतराकर पद का वैभव दिखलाकर ऐश्वर्य से जग को झुकाकर रूप पर इठलाकर कोई सो गया चुपचाप मुलायम गद्दों पर सोने का आदी सो रहा भूमि नीचे बिना हिले डुले इस कब्र में चुपचाप सैकङों हैक्टेयर भूमि का
अक्सर मन लगता सोचने कुछ अलग हटकर दिन आखरी जिंदगी का होता कब श्वास बंद हो जाये शरीर शांत हो जाये दिल न धङके वही ना। पर दिख जाते कई जिंदा भी ढो रहे जीवन को दिन जिंदगी का आखिरी लिया देख जिन्होंने जिंदा र
ज्ञानियों में मूर्धन्य देवगुरु के शिष्य ज्ञान के आचार्य क्या सत्य ज्ञानी कुछ गलतफहमी से घिरे ज्ञान तो प्रेम है प्रेम ही जीवन प्रेम ही पूजा प्रेम ही उच्चता सखा श्याम के भेजा श्याम ने ज्ञान बांटने हेत
कुदाल से न टूटने बाली मजबूत पर्वत श्रंखलांऐं धीरे धीरे कुछ टूटतीं पानी के प्रवाह में नदियों से बहकर मैदानों तक पहुंचे पर्वत पाषाण के टुकड़े बिखर रहे किनारे नदियों के एक गौरवशाली इतिहास के स्वामी आज रे
रात भर छिपा मुंह याद में सूरज के दुनिया में न देख किसी को सपनों में भी प्रियतम को सुबह की पहली किरण सूरजमुखी को अहसास दिलाती प्रियतम का आगमन हुआ सपनों से जगकर खङा हुआ सूरजमुखी प्रिय को देखता कुछ कहना
सूरज हर रोज सुबह आ जाता अपने समय पर कभी नागा नहीं कोई न छुट्टी इतनी कर्तव्य निष्ठा इतना समर्पण इतना अनुशासन अनेकों बात जेहन में कहीं सूरज भी आशिक तो नहीं अपने प्रेमी की याद में इश्क में तङपता कोई इंत
आजाद कब हुआ मैं कई बार अग्नि क्रोध की दग्ध कर गयी मन को आजाद कब हुआ मैं लोभ के बंधन भी कहाॅ टूट पाये मुझसे आजाद कब हुआ मैं मोह को प्रेम समझता भूल करता रहा हूं आजाद कब हुआ मैं कुछ कुरीतियों से जकङा
चांदनी छा गयी निशा भी आ गयी महफिल सजी तारों की दुनिया को लुभा गयी रात की रानी का इंतजार खत्म हुआ फूल हरसिंगार के निकले कलियों से कुछ ऋतु शीत का आज असर हो रहा निकल चंद्रिका चांद से आकाश को सजा रही आका
बीत गयी निशा पर जागा कौन क्या तुम जगा रहे मुझको समझते खुदको जागृत नहीं, पूर्ण सत्य नहीं है अभी भी सो रहे लोभ, मोह, तृष्णा की नींद में जग गये फिर यह चीत्कार कैसा धर्म के नाम पर इंसान काट रहा इंसान को म
भरपूर अंधेरे में टिमटिमाते छोटे दिये दुनिया में फैला अंधेरा भरपूर तुम कितना रोशन करोगे होकर चूर थककर आखिर शांत ही होना है दिया कुछ जिद्दी सा अपनी धुन का पक्का जलता रहा लौ भर कुछ तो उजाला करता रहा हो
आज लहरा रहे हस कर दिखा रहे नयी सुंदर कोपलों से रंगबिरंगी कलियों से लदे इस पेड़ ने एक वक्त देखा था आफतों के मौसम में अपने भी साथ छोड़ गये पत्तियों से अलग गुमसुम चुपचाप सा खङा रहा उम्मीद को पकङ वक्त बदल
रूह कभी मरती नहीं अग्नि में जलती नहीं अस्त्रों से कटती नहीं वायु से सूखती नहीं फिर मृतक की भांति क्यों चुप रहती देखती अत्याचार तांडव मौत का रूह चुप नहीं टोकती दिन रात दिखाती सच्ची राह समझाती धर्म का म
नदी ही जीवन है जीवन ही नदी है दोनों अप्रत्याशित से एक ही जैसे ऊंचे पहाड़ों से निकल नीचे बहती नदी दिखलाती गिरना स्वभाव उठना नहीं आसान कल कल बहती दुनिया की प्यास बुझाती खेतों को सींचती तब
वो लड़की और वो औरत वो लड़की जो खेलती थी गुड़ियों से गुड़ियों के बाल बनाती कपड़े तैयार करती अपनी खुद जायी गुड़िया की बन माॅ औरत बन गयी वो औरत जो जिंदा गुड्डे गुड़ियों की माॅ है उसी तरह सम्हालती बच्चों
वह विशाल वृक्ष सड़क के किनारे खड़ा तपस्या करता तपस्वी सम अब नहीं दिखा कितनी ही बार गर्मियों में हो बैहाल बिताये कुछ पल उस वृक्ष के नीचे अनुभूति कुछ वही जैसे वह वृक्ष मेरे पिता हो रोकते तीक्ष
जिन खुशियों की तलाश में दुखों से भागते रहे कुछ अलग आश्चर्य की बात हमारी खुशियां आराम कर रहीं उन्हीं दुखों में यह धोखा ही था खुशियां तो दुखों से लिपटी थीं हम समझे दोनों अलग अलग सत्य कब है फूल के साथ का
मैं एक टूटा सपना हूं याद नहीं देखा किसने क्यों देख भला वह भूल गया सपनों की भीड़ लगी थी किस सपने में वह उलझ गया मैं एक टूटा सपना हूं अनाथालय की सीड़ी पर अर्धरात्रि में छोड़ गया जो माॅ के प्यार को तरसा
अक्सर ख्वाहिशें तकलीफ दे जाती हैं दिलों में चुभ जाती हैं नयनों में अश्रु लाती हैं ख्वाहिश थी आसमां की जमीन के साथ चलने की उसे प्रेम करने की क्षितिज को सत्य करने की ख्वाहिश आसमान की पूरी न होनी थीं दूर
रण के बाद संहार ही नहीं होता सृजन भी होता है बहुधा सृजन का आरंभ विनाश से पतन बुराई का अंत कुरीतियों का स्थापना धर्म की कब हुई बिना रण के रण चाहे रामायण का था या महाभारत का रण अनिवार्य था अपरिहार्य था
दिवस अंतिम मम जीवन का कब होगा, कहाॅ होगा किन हालातों में बीमारी से दुर्घटना से लगता उस दिन सांस घुटने लगेंगीं धङकन कमजोर शरीर असहाय वाणी बंद मन का क्या ठिकाना क्या सोच रहा होगा नहीं, नहीं, नहीं सच तो