जीवन के इस मंच पर, हम महज़ इक किरदार हैं..
मालिक तो कोई और ही है, हम तो बस किरायेदार हैं..
जीतना, हारना, रोना और फिर हंसना,
यही दो चार ज़रूरी काम हैं..
वर्ना काग़ज़ के चन्द टुकड़ो मे, भला कहा किसे आराम है..
कोई ग़ैरो मे अपने खोज रहा, पर अपनों से अब कहा प्यार है..
जहा आज सब खो गए है, ये दिखावे का बाज़ार है..
बहुत दिन हुए घर से निकले, जाने क्यों कोई मोड़ आता ही नहीं..
चल रहे हैं जिन रास्तों मे, वो लौट कर घर जाता ही नहीं..
अब तो मोहल्ले का वो पुरानापन, कुछ नया सा हो गया है..
क्या सच मे इतना वक़्त गुज़र गया! कि वो गाँव ही मेरा खो गया है..