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कहानी...वसंत माधुरी

27 जुलाई 2022

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"मित्रों ,बीभत्स होते प्रेम के स्वरूप को प्रतीकों के माध्यम से हमने समझाने का प्रयाश किया है...

इसमे वसन्त पुष्प लिये लतायें युवा अवस्था का प्रतीक है और बूढ़ा बरगद हमारे बड़े बुजुर्ग का प्रतीक है...💐💐


वसन्त..माधुरी

**************


शरद के लंबे चले तुषारापात से सहमी शरद-कन्याएं.. संक्रांति के पश्चात दिनकर की ऊष्मा से अपनी पीत आभा को त्याग कर ...किसी तरुणी की भाँति धानी-हरी चुन्नी डाले वसंत-सुंदरी बनने को अग्रसर हो उठीं...


किसान के चौहद्दी से लगा एक विशालकाय बरगद जिसकी शाखाओं से लगी शिखाएँ खेत को छू रही थी .... ऐसा लग रहा था कि जैसे कोई बुजुर्ग अपने हाथों को फैलाकर आशिर्वाद दे रहा हो...उसी खेत मे अलसी, मटर, सरसों, अरहरी आसपास किसी नवयौवना की भाँति... वसन्त की मादकता लिए खड़ी थीं....


जहाँ सरसो अपने पीले फूलों से पराग विखेरती दम्भ से फूली जा रही थी....वहीं अलसी अपने लाल और नीले रंग के अभिमान में आसमानी हुई जा रही थी...और मटरी का फूल अपने आप को पत्तियों में छिपाये झुकी सिमटी लज्जाशील किशोरी की तरह आधी आँख खोले प्रियतम की बाँट जोह रही थी.... और अरहरी हल्के पवन के स्पंदन में युगल नृत्य कर रहीं थी....

सबके सब रस में भीगी...सबके सब प्रेमासक्ति में सुध-बुध खोकर प्रिये के आगमन की प्रतिक्षा में डोल रही थीं...

उधर बरगद जो अपने जीवन काल मे सैकड़ों वसन्त देख चुका है.... उन फूलों की उच्छ्रंखलता पर दुखी होता हुआ उनको समझाता है....

"हे वसंत मोरनियों!, भले ही यह वसन्त तुम्हारे लिए पहला हो...किन्तु मैंने अपने जीवन काल मे सैकड़ों वसन्त देखे हैं... यह प्रेम केवल सौंदर्य एवं आसक्ति तक ही सीमित है... जिसदिन यौवन से मधुकर को रस मिलना बंद हो जायेगा उसी दिन वो तुम्हे तजकर...किसी और कानन की तरफ हो लेगा"...


मंजरियाँ...आपस मे खिलखिला कर हँस पड़ती हैं...

"तात, देखो इस उपवन को यहाँ हर तरफ प्रेम..रस और यौवन पसरा हुआ है...एक एक सुमन की अनुरक्ति में कितने मधुकर विनय कर रहे हैं..?,

हम उनको दुत्कारते हैं उपहास करते हैं।... फिरभी अनुनय-विनय करते रहते हैं... इतने प्रेमातुर भौरें आखिर हमे छोड़कर कहाँ जायेंगे?"

तात.." तुम बूढ़े हो चले हो इसलिए तुम्हे प्रेम और रस से विरक्ति हो चली है इसलिये तुम ऐसी व्यर्थ की शंकायें व्यक्त करते हो".... ये कहते हुये अरहरी पवन के साथ ताल मिलाकर थिरकने लगी"

तभी मटरी मन्द मुस्काते हुये धीरे-धीरे सरसो के कानों में कहने लगी..."कल मैने एक कामी को इतना कामातुर कर दिया कि  सन्ध्या तक मेरा विनय करता रहा किन्तु मैने पंखुड़ियों का द्वार बंद कर दिया....वह मधुकर पूरी रात मेरे चरणों मे लेटा रहा.."

यह सुनकर सब एक साथ खिलखिलाने लगीं...


बरगद दुखी होता हुआ बोला .."आज तुम लोगों पर ऋतु का प्रभाव है... किन्तु एक दिन आयेगा जब तुमको पश्चाताप होगा..."

....

धीरे-धीरे वसन्त समाप्त हो गया दिनकर की सुनहरी..गुनगुनी धूप तीव्र ताप में बदल गयी..दूर-दूर तक कहीं भी हरीतिमा का कोई चिन्ह नही....

वसन्त सुंदरियां प्रौढा बन प्रेमफल लादे प्रियतम का रास्ता देख रही हैं...

इनकी अवस्था देखकर बरगद को दुख और छोभ दोनों हो रहा था...तभी अलसी ने जिसमे अभी थोड़ा सा यौवन बाकी था....बरगद से करुण स्वर में पूछा..." तुम इतने विशाल हो आपकी दृष्टि इस कानन से उस कानन तक है क्या तुम्हें कहीं मेरा स्नेही दिखायी दे रहा है"


बरगद ने एक दृष्टि सरसों और मटर पर डाली... दोनों सूखकर पीली हो चुकी थी अब न तो उनमें कोई आस बची थी न ही कोई प्यास....


कुछ देर मौन रहकर वृक्ष-राज बोले.." पुत्रियों ऐसा ही होता आया है वसन्त आते ही मधुकर उपवन में छा जाते हैं ... नाना यत्न-प्रयत्न से कौमारियो को प्रेमातुर करके...उनका रस चूसकर यहीं पड़े रहते हैं... नित्य यही क्रम चलता रहता है... मैं लाख प्रयत्न करता हूँ उन्हें बचाने का किन्तु वो उपवन के और ऋतु के प्रभाव में मेरी अवहेलना करती हैं .... मेरा हास्य बनाती हैं मुझे पिछड़ा और बूढा कहकर हँसतीं है"...


...."बेटी किन्तु ये सत्य है कि मैंने अपने जीवन काल मे किसी रसिया को वसन्त के बाद रुकते नही देखा... यही सच है कि तुम जिसे प्रेम समझकर जीती रही यह उसके लिए मात्र विलास और भोग था....अगर प्रेम होता तो कभी कोई प्रेमी अपनी प्रियतमा को प्रसवकाल में यूं छोड़कर दूसरे उपवन न जाता... कमसे कम अपने प्रेमफल को देखने की लालसा तो उसमें होती ही"...


तभी,अलसी सकुचाते हुये बोली..."तात ये सच है जब वसन्त का सुरूर होता है काम और माधुर्य की प्रबलता हमे विचारनमुखी से हृदयउन्मुखी बना देती है... फलस्वरूप हम सत्य-असत्य का निर्धारण नही कर पाते हैं...इसी में हमसे त्रुटियाँ हो जाती हैं...अगर हम अपने आसपास के अनुभवी और विवेकशील शुभचिंतकों की बात पर ध्यान दें तो इस प्रकार की निर्लज्जता से बच जायें..


बरगद मौन हो गया....तभी लू का एक थपेड़ा आया   ..सबको धिक्कारता हुआ निकल गया...


.....राकेश

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रचनाएँ
बिखरे मोती
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