... ये कहानी आज के परिवेष में हमारे कार्य संस्कृति पर प्रश्नचिन्ह खड़ी करने वाली है की हम सब कुछ याद रखते हैं और स्वं को भूल बैठे हैं....
...निवेदन है की आप लोग थोड़ा समय खर्च कर इसे पढ़ें और आत्ममंथन करें.....
कहानी...अवकाश
**********
महीनों से,लगातार काम करते- करते,
मन खिन्न सा हो गया था। इसलिये सुबह कई बार जगाने पर भी उठने की हिम्मत न हुई।
सरला ने जब ज्यादा देर देखा, तो स्वं आकर पूछने लगी..."क्या हुआ आज दुकान नही जाना"
मैंने, बुझे मन से कहा..."आज मन नही है"
सरला, विस्मित होती हुई बोली...मैं कितने दिन से कह रही हूँ छुट्टी लेलो, पर आपको सुनाई न पड़ता, चलो आज आराम कर लो"
मैं उसी हालत में कुछ देर पड़ा रहा; किन्तु मन को स्थिर न कर सका। मैं, शारीरिक रूप से कितना भी स्थिर हो जाऊँ; किन्तु मेरे ऊपर आर्थिक दबाव इतना है की मैं, मानसिक रूप से सदैव गतिशील ही रहता हूँ। मन को भ्रमित करने के लिये मैं, टीवी के आगे बैठ गया किन्तु, संयत न हो सका। सोचा की बाहर निकलूँ। दबे पांव उठा कपड़े भी न बदले, स्कूटर की चाभी उठाई...पुनः रख दी, और बाहर निकल आया। सरला ने पूछा, कहाँ?
मैंने कहा अभी आता हूँ...
चलते-चलते मोबाइल जेब में रख ली थी। सोचा किसी मित्र को फोन करके बुलाऊँ, फिर मन न किया और फोन रख ली।
कॉलोनी की गली से बाहर आया तो, रोड से लग कर एक पुराना पीपल का वृक्ष है, जिससे कुछ खस डालकर कच्ची दुकान बना रखी है।
चाय-समोसे और कुछ छिटपुट समान के अलावा कुछ चिप्स वगैरह लटका रखी है।
मैं वहीं पड़े बेंच पर बैठ गया, एक दस-बारह वर्ष का समीप आकर पूछा-"बाबूजी कुछ ले आऊं" मैंने चाय के लिये बोला...
आस-पास देखा कुछ नये उम्र के लड़के बैठे अपने-अपने मोबाइल में व्यस्त, कोने में दो-तीन बुजुर्ग बैठे,कुछ बीमारियों के बारे में चर्चा के रहे थे। मुझे ताज्जुब हुआ की चुनाव इसी सप्ताह में है पर किसी को कोई रुचि नही,
मुझे याद आता है 10-15 वर्ष पूर्व का समय जब चुनाव के आस-पास चाय की दुकान, नाई की दुकान, चौराहा, नुक्कड़ सब संसद भवन हुआ करता था। यहां तक की बहस बाजी में कई बार तो एक दूसरे से लड़ जाया करते थे।
पर अब सब अपने में उलझे, व्यक्तिगत समस्याएं इतनी विकट हो गयी है की, समाजिक घटनाक्रम से किसी को कोई सरोकार ही नही रहा।
मैंने चाय का भुगतान किया और वहां से चल पड़ा...अप्रैल का महीना इस बार कुछ ज्यादा तप रहा था। सुबह 10 बजे ही सूर्य सर पर आ गया था। प्यास बार-बार लग रही थी... इसी तरह कुछ देर चलता रहा लक्ष्यविहीन, उद्देष्यविहींन। जैसे कुछ खोज रहा था, जो मिल न रहा हो।
तभी सरला का फोन आया..."कहाँ हो?
बोलकर गये अभी आता हूँ तीन घण्टे से ज्यादा हो गये"
मैं...."मैं जरा एक दोस्त के यहां आ गया था कुछ काम है थोड़ी देर में आता हूँ"
बोलकर फोन रख दिया....फिर कुछ देर स्थिर रहने के बाद फिर चलने लगा...चलते-चलते एक पार्क के सामने आ गया।
मैंने सोचा, चलो इसी में कुछ देर समय काटते हैं। अमूमन रविवार या कोई अन्य अवकाश का दिन होता तो पार्क में काफी चहल-पहल रहती है, किन्तु आज बहुत कम लोग दिखाई पड़ रहे थे। कुछ बुजुर्ग एक पेड़ के नीचे बने बेंच पर बैठे आपस में बातें कर रहे थे। थोड़ी दूर पर एक पुराने वृक्ष की आड़ में, एक प्रेमी-युगल; एक दूजे का हाथ थामे कुछ भविष्य की परिकल्पना कर रहे थे। दोनो स्कूल के ड्रेस में थे, मन मेरा खिन्न हो गया उनपर की, पढ़ने के उम्र में स्कूल छोड़कर यहां पार्क में रंगबाजी हो रही है। किन्तु उसी छड़ अपना समय याद आया और एक मधुर मुस्कान होठों पर फैल गयी....अब न करेंगे तो कब करेंगे।
...तभी पुनः फोन बजा, इसबार सरला गुस्से से बोली "जब घर में टिकना ही नही था, तो छुट्टी किसलिये करी"
मैंने अनमने मन से जवाब दिया,"आता हूँ"
फिर फोन काटकर बन्द कर दिया।
....थोड़ा आगे बढ़ा तो एक पुराना, परिचित पीपल का पेड़ था, जहां कभी कई दोपहरी, हमने बिना उस पेड़ की तरफ देखे, अपने में व्यस्त किसी के साथ बिताई थी। उसे देखते ही कई पूर्व स्मृतियां जाग्रत हो उठीं। मैं वहां बने चबूतरे पर बैठ गया । वायु की शीतलता और चलने की थकान की वजह से, झपकी आने लगी। मैं वहीं लेट गया । मुझे पता नही की मैं चेतना में था या अर्ध-चेतना या फिर निद्रा में, एक धुंधली आकृति मेरे सन्मुख आकर खड़ी हुई। मैंने कहा,' कौन?
वो और निकट आयी सौम्य सलोना चेहरा, बोलती आंखें, उसने विष्मित होते हुये पूछा, तुम मुझे नही जानते! मैंने कहा शायद कहीं देखा है, किन्तु स्मरण न रहा,
आकृति थोड़ा मुझपर झुकी, 'ध्यान से देखो'
"मैं तुम्हारी स्मृति हूँ" जिसे तुम निरन्तर खोजते हो। मैंने कहा, "तुम यहाँ कैसे?"
"मैं तुमसे पृथक कहाँ हूँ मै, मैं तो निरन्तर तुम्हारे साथ रहती हूँ" आकृति ने जवाब दिया,
मैंने कहा,"पर मैंने तो कितने वर्षों से तुम्हे देखा ही नही"
"जब तुमने वर्षों से स्वं को न देखा तो मुझे कैसे देखते" उसने उत्तर दिया,
तो आज कैसे?, मैंने पूछा,
"आज तुमने स्वं को देखा तब मुझे पाया" आकृति ने जवाब दिया...
मैंने हाथ बढ़ा कर उसे पकड़ना चाहा ...वो खिलखिलाते हुये दूर हो गयी....और कुछ स्वर सुनायी दी शायद कह रही थी " मैं अंदर हूँ बाहर नही"
मेरी निद्रा टूट गयी, मैंने चारो तरफ दृष्टि दौड़ाई किन्तु वो आकृति अदृश्य हो गयी थी,
मैं उठा और पार्क के बाहर आ गया...अब पहले से स्वस्थ एवं ऊर्जावान अनुभव कर रहा था....
एक रिक्शे को रोककर पूछा "इंदिरा नगर चलोगे"
उसने कहाँ हाँ,
मैं बैठ गया, फोन ओंन किया तभी सरला का फोन आया.....
©राकेश