कहानी---मुग्धा,
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महानगर में सुबह का समय किसी जंग से कम नही होता। सुबह ऑफिस समय से पहुंचना बहुत बड़ी उपलब्धि होती है। क्योंकि धीरे-धीरे रात सिमट कर छोटी होती जा रही है। अब 1-2 बजे सोना आम बात हो गयी है।जिससे सुबह समय से उठना किसी चुनौती से कम नही होती।
मुझे ऑफिस के लिये आज भी बिलंब हो रहा था मैंने जूते पहनते हुए , शालिनी को आवाज लगाई की "शालिनी मेरा नास्ता पैक कर दो मैं रास्ते में खा लूँगा"
"पता नही क्या आफत रहती है आपको जो चैन से नास्ता भी नही करते"
शालिनी बड़बड़ाते हुए किचेन से निकली और टिफिन मेरे हाथ में पकड़ा दिया।
मैं बाहर निकला ही था तभी मेरा मोबाइल बजा नम्बर अनजान था।
मैंने उठाकर हेल्लो बोला उधर आवाज आयी 'हेल्लो अविनाश बोल रहे हो'
मैंने कहा "जी बोल रहा हूँ"
फिर उसने कहा अशोक बोल रहा हूँ तुम्हारा दोस्त,"साले मुम्बई क्या गये आवाज ही भूल गये"
मैंने कहा 'अरे नही यार ज्यादा दिन बाद आवाज सुनी इसलिये पहचान नही पाया'
और बताओ घर मे सब कैसे है,
उसने 'कहा ठीक है,
मैंने कहा ठीक है अशोक मैं रास्ते में हूँ ऑफिस चलकर तुम्हे फोन करता हूँ,
.....
रास्ते भर यही बात मुझे कचोटती रही की प्रतियोगिता और काम के दबाव में हम एक दम भूल गये की हमारे कुछ दोस्त थे। हमारी भी कोई दुनिया थी,जिन दोस्तों के लिये कभी जान हथेली पर लिये फिरता था, आज उन्ही दोस्तों का हालचाल भी लेने की फुर्सत नही कितने मशीनी हो गये है हम लोग धिक्कार है हम पर.....
मैंने ऑफिस पहुंच कर उसे फोन किया उसने बताया की कैसे उसने मेरे गांव जाकर मेरे पिताजी से मेरा नम्बर लेकर मुझे फोन किया....
बड़े शहरों में भले ही मानवीय मूल्यों का पतन हो गया है पर गांव और छोटे कसबों में अभी भी लोग मानवीय रिश्तों को महत्व देते हैं...
उसने बताया की उसके छोटे भाई की शादी है और तुम्हे हर हाल में आना है,
मैंने काम की दुहाई दी छुट्टी न मिलने का बहाना बनाया पर उसने कहा की 'उनको' भी बुलाया है,
इस एक शब्द ने मुझे पूरी तरह झकझोर कर रख दिया आशय तो लगभग समझ गया था फिरभी मैंने कहा की 'किनको',
उसने कहा कि अरे भाई तुम्हारी 'मुग्धा' को,
मैं विष्मित हो गया "मेरी मुग्धा"
.........
कभी-कभी जीवन के कुछ पल जो वर्तमान में सबसे ज्यादा खुशी देते है कौन जानता है की भविष्य में यही सबसे ज्यादा दुख देंगे।
ऐसा ही नाम था 'मुग्धा' जैसे नाम वैसा गुण जो भी देखे मुग्ध हो जाये, बड़ी-बड़ी आँखे गोल चेहरा औसत कद-काठी यौवन की अपार खान से लदी मुग्धा! जिसके सानिध्य में मैं निहाल हो जाता था। जिसपर पूरा कालेज फिदा था वो पता नही कैसे मुझ जैसे साधरण सा दिखने वाले लड़के पर मर मिटी।
यह मेरे लिये असाधारण बात थी। मुग्धा जितनी बाहर से सुन्दर थी उतनी ही अंदर से गुणवान, किसी बात को लेकर जरा से भी घमंड नही....
एक दूसरे का हाथ थामे घण्टों हम बैठे अपने भविष्य के सपने बुना करते थे,
जब पंछी नया-नया उड़ना सीखता है तो खूब आनंद से इधर उधर उड़ता है। उसको लगता है की दुनिया में बड़ा प्यार भरा है।सब कुछ दुनिया में बहुत खूबसूरत है। पर लोगों के मन में छिपे विष को वह देख नही पाता।
इसी तरह प्रेमी भी एक दूसरे में खोये भविष्य के सपने गढ़ते है पर उन्हें पता नही होता की क्रूर नियति कुछ और करने वाली है ....
......जीवन में सबके हिस्से का अगर अपना वसन्त होता है तो पतझड़ भी होता है। उसी तरह शायद मेरे प्रेम का भी वसन्त बीत रहा था..
एक दिन मुग्धा डरी सहमी सी आयी और एक टक मेरी तरफ देखे जा रही थी। ह्रदय गति बढ़ी हुई प्रतीत हो रही थी कुछ कहना था पर समझ नही पा रही थी की कैसे कहे-- मैंने कहा.." मुग्धा क्या हुआ"
वो कुछ न बोली पर उसकी आँखे बता रही थी की सबकुछ ठीक नही है,
मैंने फिर कहा..."क्या बात है मुग्धा ? कहो तो सही"
उसने सांस को नियंत्रित करते हुये कहा..."अविनाश..लगता है की अब हमारा साथ छूट जायेगा"
इतना कहते ही उसके सब्र का तटबंध टूट गया और फूट-फूट कर रोने लगी....
मेरा मन घबराने लगा मैंने रुंधे गले से कहा ...
"साफ साफ बोलो यार हुआ क्या?"
उसने बताया की उसकी शादी तय हो गयी है जल्दी ही सगाई है....
मैं समझ नही पा रहा था की मैं क्या कहूँ ?,
किस तरह की प्रतिक्रिया दूँ । बस उसे देखता रहा फिर वो पता नही क्या-क्या कहती रही पर मैं शून्य में स्थिर हो गया न कुछ सुनायी दे रहा था न ही दिखायी....वो कुछ देर बोलती रही और वहां से चली गयी। मैं मूर्तिवत वहीं खड़ा रहा.....
सच कहते हैं की प्यार का घरौंदा किसी समन्दर किनारे रेत पर बने महल की तरह होता है। जो लहर आते ही समंदर में समा जाती है,
उसके बाद कई दिनों तक मुग्धा से मुलाक़ात न हो सका। मेरी मनोदशा बिगड़ती जा रही थी इसी उधेड़ बुन में था की उससे मुलाक़ात हो जाये....
एक दिन उसकी एक सहेली ने बताया की मुग्धा ने तुम्हे शहर के बाहर दुर्गा मंदिर में बुलाया है।
मैं भागकर वहां पहुंचा तो वो पहले से मौजुद थी। मैंने जाकर पुकारा मुग्धा!...
तो जैसे नीद से जागी हो चौक कर मेरी तरफ देखकर पुनः जमीन के तरफ देखने लगी...
मैंने कहा "मुग्धा ऐसे उपहास न करो', मेरी तरफ देखो बात करो मुझसे"
उसने ऐसी ठंढी निगाह मुझपर डाली जैसे कोई धनिक अपना सब कुछ लूटते हुये देख रहा हो और कुछ न कर पा रहा हो...
फिर एक गहरी सांस छोड़ते हुये उसने कहा ....."अविनाश, अगर मैं कोई फैसला करूँ तो तुम मेरा साथ दोगे"
मैंने हाँ में सर हिला दिया...
फिर उसने आगे कहना सुरु किया की ...
मैं पिछले 10 दिनों से पूरे घर को समझा कर थक चुकी हूँ पर किसी को मेरे किसी बात से कोई सरोकार नही है सब दुश्मनों जैसा व्योहार कर रहे हैं...आज किसी तरह बचते-बचाते यहां तक आयी हूँ और तुम पर पूरी तरह से भरोसा करके आयीं हूँ की तुम मुझे निराश नही करोगे। अविनाश चलो यहां से कहीं दूर चले जाते हैं ।
इस कहानी में ऐसा भी मोड़ आयेगा मैंने सोचा नही था न ही इस तरह की परिस्थिति के लिये तैयार ही था। और ऊपर से मेरी पारिवारिक परिस्थिति भी इस काबिल नही थी की मैं इस तरह का कदम उठा सकूँ....
कभी-कभी भावावेश में मनुस्य ऐसे कदम उठा लेता है की जिसके परिणाम अत्यन्त दुखदाई होते है। मैं लाख मुग्धा को जान देने की शिद्दत से मोहब्बत करता था पर इतना ज्ञान था की किसी की लड़की भगा लेना मतलब उसका समाज में रहना दुस्कर कर देना होता है। यह एक प्रकार का समाजिक गुनाह है जिसकी कोई माफी नही होती......
....हम आज कितने भी शिक्षित हो गये है किन्तु अपना अहंकार अपना दंभ आज भी उसी अवस्था में बनाये हुए हैं हम बर्दास्त ही नही कर सकते की हमारा बेटा या बेटी अपनी पसंद की शादी कर लें यहां तक की उस मसले पर बात भी नही करना चाहते। इसी डर से यदि कोई लड़की गलत कदम उठा लेती है तो उसका परिणाम दो-दो घरों को भुगतना पड़ता है....
खैर मैं इसके पक्ष में नही था मैंने मुग्धा को सब तरह से समझाकर उसके घर भेज दिया...
जाते-जाते मुग्धा ने जो बात कही वो बात आज भी कहीं न कही मुझे कचोटती रहती है...
उसने कहा--"मुझे पता नही की तुम मुझसे कैसी मोहब्बत करते हो पर मैं बड़ी विस्वास से आयी थी। मुझे दुनियादारी की बहुत समझ तो नही है चूंकि तुम्हे मैं अपने भगवान से ज्यादा मानती हूँ तो ये मुझे विस्वास है की भगवान कभी गलत नही कहेंगे"
"मैं तो आयी थी यहां रुक्मिणी बनने पर आपको शायद उचित न लगा ये आप के हाथ में था। पर मैं आजीवन राधा बनी रहूंगी ये मेरे हाथ में है, मैं अपने हृदय पर हाथ रखकर कह रही हूँ की ये जब भी धड़केगा तो सिर्फ आपके लिये"....
"मुझे नही पता की मेरा क्या होगा पर इतना जानती हूँ की व्यंजन कितना भी बढियाँ हो अगर अरुचिकर है तो वो विष का काम करती है और बेकार से बेकार व्यंजन हो अगर रुचिकर है तो अमृत का काम करती है"
मैं अब जो व्यंजन ग्रहण करने जा रही हूँ देखो इसके सेवन से मैं कितना दिन जीवित रहती हूँ...
उसके बाद कभी भी मुग्धा से मिलना न हो सका जब आज सात वर्षों के बाद अशोक ने उसके भी आने की बात कही तो मन उससे मिलने को हूक उठा...
मैं निर्धारित तारीख को अशोक के घर पहुंच गया उसके परिवार वाले इतने दिन बाद मुझे देखकर काफी खुश हुये... जलपान करने के बाद में थोड़ा टहलने के लिये बाहर निकला और अशोक को ढूढने लगा। कुछ देर बाद अशोक मिला तो उससे मुग्धा के बारे में पूछा तो पता चला की शाम को आयेगी। फिर मैं अशोक के साथ काम में व्यस्त हो गया शाम को वो आयी,लम्बी चौड़ी गाड़ी में गहनों से लदी हुयी....आते हुये उन्होंने एक निगाह मुझपर डाली और शिस्टाचार में सर झुकाकर नमस्ते किया और अंदर चली गयी।
फिर वो अंदर व्यस्त और मैं बाहर व्यस्त जब तब आते-जाते नजर टकरा जाती पर कोई बात नही हो पायी। रात में अशोक ने कहा की तुम तीसरी मंजिल के छत पर चले जाओ वहां कोई आता जाता नही तुम जाओ मैं मुग्धा जी को भेजता हूँ.... मैं ऊपर जाकर छत की बाउंड्री से टिककर आसमान की तरफ देखने लगा। पूर्णिमा का चाँद पूरी तरह रोशनी दे रहा था साथ में तारे अपनी आभा बिखेर रहे थे। तभी वो आकर बराबर में खड़ी हो गयी...
मैंने पूछा...कैसी हो मुग्धा?
उसने कहा....जैसी छोड़ कर गये थे,
मैंने कहा---"मुग्धा आसमान में देख रही हो ये तारे पहले सफेद चमकदार हुआ करते थे धीरे-धीरे वक़्त ने इनकी तेज को धूमिल कर दिया है अब पीले लग रहे है"
"अविनाश ये दृष्टि का फेर है मुझे तो ये पहले से ज्यादा पके हुए लग रहे है वक़्त के आग ने इन्हें जलाकर पका सोना बना दिया है इसलिये पीले हो गये है" मुग्धा ने जवाब दिया,
मैंने कहा मुग्धा ' एक बात का तो एहसान मानोगी अगर उसदिन मैंने तुमको न भेजा होता तो आज जो महारानियों वाली जिंदगी तुम जी रही हो तुम्हे कहाँ नसीब होती'...
मुग्धा ने एक करूँण दृष्टि मुझपर डालती हुयी बोली--"बड़े कच्चे सौदागर हो इतना भी नही जानते इसके लिये मैंने अपना हृदय गिरवी रखा है और तुमको ये फायदे का सौदा लगता है मुझे उसदिन मुझे तुम्हारे तिरस्कार पर उतना दुख नही हुआ जितना आज तुम्हारी बातों से हो रहा है। क्या समझते हो की मैं ऐशोआराम की भूखी हूँ, नही ये मेरा पश्चाताप है की मैंने आप जैसे भगौड़े व्यक्ति से प्रेम किया।
मेरे पास तो सबकुछ हैं पर तुम्हारे पास कुछ नही है। पर फिरभी मैं इस साम्रज्य को ठोकर मारती हूँ क्या तुम मार सकते हो?
चल सकते हो मेरे साथ बोलो चलोगे....
आप पुरुष हो आपको समाज लोग देखना है मैं क्या मैं तो एक स्त्री हूँ मुझे तो केवल प्रेम दिखाई देता है। तुम क्या समझोगे तुम भी उसी पुरुष समाज के हो जिन्हीने मां सीता के त्याग को भी नही समझा...
मैं क्या कहता मेरे पास आज उसके किसी।प्रस्न का उत्तर नही था। मैं घुटनो के बल बैठ गया और हाथ जोड़ लिये "मुग्धा मुझे माफ कर दे"
उसके आंखों से आँसूँ बह चले उसने कहा क्यों माफी मांग कर मुझे नर्क में धकेल रहे है उसने अपने दोनो हाथ से मेरे पैर को स्पर्श किये और भाग कर नीचे चली आयी.....
मैं ऊपर चाँद को देखता रहा और बड़बड़ाता रहा हाय क्या गुनाह कर दिया मैंने....
🙏🙏राकेश पांडेय🙏🙏