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कविता

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चाँदनी चुप-चाप सारी रात सूने आँगन में जाल रचती रही। मेरी रूपहीन अभिलाषा अधूरेपन की मद्धिम आँच पर तँचती रही। व्यथा मेरी अनकही आनन्द की सम्भावना के मनश्चित्रों से परचती रही। मैं दम साधे रहा,

यह दु:सह सुख-क्षण मिला अचानक हमें अतर्कित। तभी गया तो छोड़ गया यह दर्द अकथ्य, अकल्पित। रंग-बिरंगी मेघ-पताकाओं से घिर आया नभ सारा : नीरव टूट गिर गया जलता एक अकेला तारा।

हे अमिताभ ! नभ पूरित आलोक, सुख से, सुरुचि से, रूप से, भरे ओक : हे अवलोकित हे हिरण्यनाभ !

किसी एकान्त का लघु द्वीप मेरे प्राण में बच जाय जिस से लोक-रव भी कर्म के समवेत में रच जाय। बने मंजूष यह अन्तस् समर्पण के हुताशन का- अकरुणा का हलाहल भी रसायन बन मुझे पच जाय।

छन्द है यह फूल, पत्ती प्रास। सभी कुछ में है नियम की साँस। कौन-सा वह अर्थ जिसकी अलंकृति कर नहीं सकती यही पैरों तले की घास? समर्पण लय, कर्म है संगीत टेक करुणा-सजग मानव-प्रीति। यति न खोजो-अहं ह

हम नदी के द्वीप हैं। हम नहीं कहते कि हमको छोड़कर स्रोतस्विनी बह जाए। वह हमें आकार देती है। हमारे कोण, गलियाँ, अंतरीप, उभार, सैकत-कूल सब गोलाइयाँ उसकी गढ़ी हैं।   माँ है वह! है, इसी से हम बने हैं

हरी बिछली घास। दोलती कलगी छरहरे बाजरे की।   अगर मैं तुम को ललाती सांझ के नभ की अकेली तारिका अब नहीं कहता, या शरद के भोर की नीहार – न्हायी कुंई, टटकी कली चम्पे की, वगैरह, तो नहीं कारण कि मेरा हृ

आत्मा बोली  सुनो, छोड़ दो यह असमान लड़ाई लडऩा ही क्या है चरित्र? यश जय ही? धैर्य पराजय में-यह भी गौरव है! मैं ने कहा  पराजय में तो धैर्य सहज है, क्योंकि पराजय परिणति तो है। मैं तो अभी अधर में

अज्ञेय » हरी घास पर क्षण भर » ऐसे ही थे मेघ क्वाँर के, यही चाँद कहता था मुझ को आँख मार के : अजी तुम्हारा मैं हूँ साथी- जीवन-भर इस धुली चाँदनी में तुम खेला करना खेल प्यार के! वही मेघ हैं, साँझ क

गगन में मेघ घिर आये। तुम्हारी याद स्मृति के पिंजड़े में बाँध कर मैं ने नहीं रक्खी, तुम्हारे स्नेह को भरना पुरानी कुप्पियों में स्वत्व की मैं ने ही नहीं चाहा। गगन में मेघ घिरते हैं तुम्हारी य

आओ बैठें इसी ढाल की हरी घास पर। माली-चौकीदारों का यह समय नहीं है, और घास तो अधुनातन मानव-मन की भावना की तरह सदा बिछी है-हरी, न्यौती, कोई आ कर रौंदे। आओ, बैठो तनिक और सट कर, कि हमारे बीच स्ने

इसी जुमना के किनारे एक दिन मैं ने सुनी थी दु:ख की गाथा तुम्हारी और सहसा कहा था बेबस : 'तुम्हें मैं प्यार करता हूँ।' गहे थे दो हाथ मौन समाधि में स्वीकार की। इसी जमुना के किनारे आज मैं ने फिर कहा

कवि, हुआ क्या फिर तुम्हारे हृदय को यदि लग गयी है ठेस? चिड़ी-दिल को जमा लो मूठ पर ('ऐहे, सितम, सैयाद!') न जाने किस झरे गुल की सिसकती याद में बुलबुल तड़पती है न पूछो, दोस्त! हम भी रो रहे हैं लिये टू

इन्हीं तृण-फूस-छप्पर से ढंके ढुलमुल गँवारू झोंपड़ों में ही हमारा देश बसता है इन्हीं के ढोल-मादल-बाँसुरी के उमगते सुर में हमारी साधना का रस बरसता है। इन्हीं के मर्म को अनजान शहरों की ढँकी लो

 सपने मैं ने भी देखे हैं मेरे भी हैं देश जहाँ पर स्फटिक-नील सलिलाओं के पुलिनों पर सुर-धनु सेतु बने रहते हैं। मेरी भी उमँगी कांक्षाएँ लीला-कर से छू आती हैं रंगारंग फानूस व्यूह-रचित अम्बर-तलवासी द

 सबेरे-सबेरे नहीं आती बुलबुल, न श्यामा सुरीली न फुटकी न दँहगल सुनाती हैं बोली; नहीं फूलसुँघनी, पतेना-सहेली लगाती हैं फेरे। जैसे ही जागा, कहीं पर अभागा अडड़़ाता है कागा- काँय! काँय! काँय! बोलो भ

सो रहा है झोंप अँधियाला नदी की जाँघ पर : डाह से सिहरी हुई यह चाँदनी चोर पैरों से उझक कर झाँक जाती है। प्रस्फुटन के दो क्षणों का मोल शेफाली विजन की धूल पर चुपचाप अपने मुग्ध प्राणों से अजाने आँक

इतराया यह और ज्वार का क्वाँर की बयार चली, शशि गगन पार हँसे न हँसे शेफाली आँसू ढार चली ! नभ में रवहीन दीन बगुलों की डार चली; मन की सब अनकही रही पर मैं बात हार चली !

सिमट गयी फिर नदी, सिमटने में चमक आयी गगन के बदन में फिर नयी एक दमक आयी दीप कोजागरी बाले कि फिर आवें वियोगी सब ढोलकों से उछाह और उमंग की गमक आयी बादलों के चुम्बनों से खिल अयानी हरियाली शरद की धू

शान्त हो! काल को भी समय थोड़ा चाहिए। जो घड़े-कच्चे, अपात्र!-डुबा गये मँझधार तेरी सोहनी को चन्द्रभागा की उफनती छालियों में उन्हीं में से उसी का जल अनन्तर तू पी सकेगा औ' कहेगा, 'आह, कितनी तृप्ति!'

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