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कविता

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मैं स्त्री हूं मर्दों का तो काम यों ही कह देना कुछ भी बोल देना मैं भी मर्द हूं पर कह सकता हूं आसान नही स्त्री बनना स्त्री नाम त्याग का स्त्री पर्याय ऊंचाइयों का दया, ममता, करुणा, अहिंसा, सच्चाई, वीर

मैं एकांत चाहता हूं कभी मैं एकांत चाहता हूं कुछ देर ही सही खुद को ढूंढना चाहता हूं इस भीड़ में दोड़ते दोड़ते कितनों को देखता रहता मै खुद कहाँ हूं खुद को देखना चाहता हूं सभी की ताकत और कमजोरी जानने से

अश्रु तो निकलते मुझको भी मैं बहाता नही मन होता रुदन को मेरा मैं रोता नहीं अश्रुओं को क्यो बहा दूं नीर सम मन सीप में रख बना लूं मोती रुलाने बालों, शुक्रिया आपको मोतियों का ढेर तैयार हुआ आंसुओं को बहा

आंसू भी बहाता आंसू घड़ियाली आंसुओं की वारिश में सच्चे दिल से निकला दिल की आवाज सुनाता खुशी या गम के पल बताता वह एक आंसू कहाँ खो गया पता ही न चला घड़ियाली आंसुओं के समंदर में क्या बिसात एक अश्रु विंदु

❤️🌼❤️🌼❤️🌼❤️🌼❤️🌼❤️🌼❤️🌼❤️🌼❤️🌼❤️🌼❤️🌼🌹🌹घर से दूर हूं.......पर दिल मेरा वहींं हैं 🌹🌹🌹🌹अपनो से दूर रहना......कितना मुश्किल होता हैं 🌹🌹🌹🌹कभी उससे पूछो......जो घर से दूर रहता है🌹🌹🌹🌹ला

जी करे कभी ख़त बन जाऊँ मन के गर्भ की बात बताँऊ, औरों को तो बहुत बताया, आज खुद को खुद की बात सुनाऊँ, मोह की सुई बाधुंँ प्रेम की डोर से, शब्द शब्द के मोती पीरोंऊँ, गुथूं सपनो की एक माला, और उ

मां सरस्वती वंदना हे मां सरस्वती, हंसवहिनी कृपा करो, अपने ज्ञान ज्ञोत से जगत का अंधकार हरो, बुद्धि विद्या प्रदान करो हे मां शास्त्ररुपिणी, जन-जन को ऊर्जावान‌ करो मां सुवासिनी, द्वेष,क्रोध,ल

   अपलक रूप निहारूँ    तन-मन कहाँ रह गये?   चेतन तुझ पर वारूँ,  अपलक रूप निहारूँ!   अनझिप नैन, अवाक् गिरा   हिय अनुद्विग्न, आविष्ट चेतना   पुलक-भरा गति-मुग्ध करों से   मैं आरती उतारूँ।  अपलक

गुरु ने छीन लिया हाथों से जाल, शिष्य से बोले  'कहाँ चला ले जाल अभी ? पहले मछलियाँ पकड़ तो ला ?' तकता रह गया बिचारा भौंचक । बीत गए युग । चले गए गुरु । बूढ़ा, धवल केश, कुंचित मुख चेला सोच रहा

तू फाड़-फाड़ कर छप्पर चाहे जिस को तिस को देता जा मैं मोती अपने हिय के उन में भरा करूँ। तू जहाँ कहीं जी करे घड़े के घड़े अमृत बरसाया कर मैं उस की बूँद-बूँद के संचय के हित सौ-सौ बार मरूँ। तू स

बरसों की मेरी नींद रही। बह गया समय की धारा में जो, कौन मूर्ख उस को वापस माँगे? मैं आज जाग कर खोज रहा हूँ वह क्षण जिस में मैं जागा हूँ।

ओ तू पगली आलोक-किरण, सूअर की खोली के कर्दम पर बार-बार चमकी, पर साधक की कुटिया को वज्र-अछूता अन्धकार में छोड़ गयी?

यह नहीं कि मैं ने सत्य नहीं पाया था यह नहीं कि मुझ को शब्द अचानक कभी-कभी मिलता है  दोनों जब-तब सम्मुख आते ही रहते हैं। प्रश्न यही रहता है  दोनों जो अपने बीच एक दीवार बनाये रहते हैं मैं कब, कैसे,

हरे-भरे हैं खेत मगर खलिहान नहीं  बहुत महतो का मान मगर दो मुट्ठी धान नहीं। भरा है दिल पर नीयत नहीं  हरी है कोख-तबीयत नहीं। भरी हैं आँखें पेट नहीं  भरे हैं बनिये के कागज टेंट नहीं। हरा-भरा

चेहरे थे असंख्य, आँखें थीं, दर्द सभी में था जीवन का दंश सभी ने जाना था। पर दो केवल दो मेरे मन में कौंध गयीं। क्यों? क्या उन में अतिरिक्त दर्द था जो अतीत में मेरा परिचित कभी रहा, या मुझ में

मोह-बन्ध हम दोनों एक बार जो मिले रहे फिर मिले, इसे क्या कहूँ  कि दुनिया इतनी छोटी है या इतनी बड़ी? हम में जो कौंध गयी थी एक बार पहचान, उसी में आज जुड़ी जो नयी कड़ी क्या कहूँ इसे  इतिहास दुब

क्या घृणा की एक झौंसी साँस भी छू लेगी तुम्हारा गात प्यार की हवाएँ सोंधी यों ही बह जाएँगी? एक सूखे पत्ते की ही खड़-खड़ बाँधेगी तुम्हारा ध्यान लाख-लाख कोंपलों की मृदुल गुजारें अनसुनी रह जाएँगी?

जियो उस प्यार में जो मैं ने तुम्हें दिया है, उस दु:ख में नहीं, जिसे बेझिझक मैं ने पिया है। उस गान में जियो जो मैं ने तुम्हें सुनाया है, उस आह में नहीं, जिसे मैं ने तुम से छिपाया है। उस द्व

वह जगमग एक काँच का प्याला था जिस में मद-भरमाये हम ने भर रक्खा तीखा भभके-खिंचा उजाला था। कौंध उसी की से वह फूट गया। उस में जो रस था (मद?) मिट्टी में रिस वह धीरे-धीरे सूख गया पर रस की प्यास

सपने के प्यार को तुम्हें दिखाऊँ यों सच को सुन्दर होने दूँ। सपने के सुन्दर को प्यार करूँ, सब को दिखलाऊँ सच होने दूँ। पर सपने के सच को किसे दिखाऊँ जिस से वह सुन्दर हो और उसे कर सकूँ प्यार?

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