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कविता

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काॅफी और चाय लगता दो बहनें हैं शायद सौतेली अलग माताओं की बेटियां लगता चाय बङी बहन है उसकी माॅ का निधन विपत्ति दे गया पिता एक पुरुष बेटी को पालना कहाॅ आसान कर ली दूसरी शादी दलील बेटी को माॅ म

कीमत पानी की बूॅदों की जानो मरुभूमि में रेत के अंबार में दो बूदें जल की कंठ तर कर देतीं अम्रत से अधिक ही कीमत पानी की बूॅदों की जानतीं अंखियाॅ अनगिनत नफरत, पश्चाताप दुख भरी यादों कों बहा ले जातीं बूॅद

यह जिंदगी खेल शतरंज का इंसान प्यादे कोई हाथी शक्ति का पर्याय सीधा ही चलता ऊंट की टेड़ी चाल अश्व स्वार्थ का पर्याय नजर रखता कुछ दूर प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष से अलग स्वार्थ सिद्ध करना है ढाई चाल चलता सभी

जीवन किसके हाथ में न हमारे, न आपके अध्यात्म कहता कोई अज्ञात शक्ति जिसने दुनिया बनायी वही जीवन देता जिदगी छीन भी लेता जीव एक पथिक चलता रहता कभी रुक जाता सराय में वही उसका जीवन फिर निकल लेना निज

जिंदगी से पूर्व कौन कहाॅ था किस हाल में किसके पास था भी या नहीं या आरंभ जीवन ही अंत मौत से अनेकों रहस्यों से भरा ज्ञान भी विज्ञान है भौतिक विज्ञान से अलग पराविज्ञान भी है जिंदगी से पूर्व मौत के बाद का

वह मछुआरा रोज पकड़ता मछलियां एक छोटी सी नाव दूर सागर तक जाता भर लाता मछलियां ढेर के ढेर बाजार में दे आता यही आजीविका थी उसकी देख तड़पती मीन को मन न तड़पा कभी उसका बचपन का आदी मीन तो भोज्य थीं सजीव न थ

मैं कविता हूँ शुद्ध अंतर्मन में छिपे उद्गार धर रूप शव्दों का बाहर आ जाते मैं कविता  हूँ जन्म मृत्यु से परे अवतार धारणा का रूप प्रत्यक्ष कब जन्म लेती अवतरित होती हूं मैं कविता  हूँ अवतरित

ललक एक उड़ान की आसमान से करना बातें खेलना रुई सम बादलों संग चिडियों सा उड़ जाऊं बन जहाज हवा का निहारूं भू को उड़ते हुए आसमान से ऊपर से नजर कौन हिंदू, मुगल सवर्ण या दलित कृष्ण या गौर दुर्बल या बलवान

भोर भयो सखि चल पनघट पे सुन धुन मुरली की छोरा नंद को आ पहुंचो पनघट पे दीवानी हम प्रेम में सखियां किशोरी की प्राणों में बसे नंदलाल हमारे हैं सहस्र घटों में भरा नीर एक रवि का बिंब सभी में समाया ह

साधना नहीं पुरुषार्थ अध्यात्म का खुद के सुख की चाह इहलोक या परलोक की तप, जप, संयम का आसरा साधना तो नहीं साधना है बलिदान खुद का समाज के लिये देश पर मर मिटना मानवता का पर्याय साधना है विरह कृष

रेत के झरने से कब बुझती है प्यास। झरना निर्मल नीर का बुझाता जग की प्यास। मृगमरीचिका में खोज रहा आनंद विषय भोगों की बुझती नहीं प्यास घृत डालता रहा अग्नि न बुझी चार बूंदें जल की शांत हुई आग रेत

आधा होकर भी इतना इतरा रहा अरे ओ चांद गर्व न कर गर्व तो मिट गया रावण का भी फिर तू तो आधा पहले से सुन उलाहना चांद सकपका गया कुछ मुस्करा गया मैं कहाँ से अर्ध पूर्ण हूं पढो पुस्तक में सूरज की र

छिप जाना बेहतर है बहुत ही बातों का गुम होना अच्छा है दुनिया का क्या है कीमत कब समझती बहुत से सीप और मोती जा छिपे सागर की गहराई में बहुमूल्य बन गये जब ढूंढा गहरे सागर में आसानी से मिल जाते मोती फिर कौ

कल तक था गुरूर वह काया पंचतत्वों में हो विलीन काली रेत बन गयी काया का स्वामी चला गया दूर देखता भी नहीं काया मिट गयी काली रेत में जिस पर था गुरूर वह काया मिट गयी काली रेत में धनी था या था निर्धन कमजोर

बहुत पहले बचपन में एक पाठ था किताब में मेरी सजीव और निर्जीव बतलाया था वह सजीव है जो लेता श्वांस चलता खाता प्रजनन करता प्रतिक्रिया देता पर शायद लगता है कुछ रह गया लेते हैं कई निर्जीव भी श्वांस खा

मुर्दे भी बोलते हैं जनाब मृत्यु के बाद भी बहुत काल तक कुछ बोल रहे आज भी कुछ पाठ पढाते इंसानियत का गौतम और गांधी आज भी बोल रहे सत्य और अहिंसा बताते राम और कृष्ण भी जगती तज गये युगों पूर्व आज भी बोल रहे

लूडो लूडो का खेल अनेकों बृह्मज्ञान देता एक रंग की गोटियाँ एक परिवार का रूपक गोटियाँ सदस्य परिवार की सब बढते आगे दूसरे को गिराकर पर परिवार के सदस्यों का साथ परिवार को आगे बताता है बीच बीच में

सभी का छोड़ साथ कुछ तज जगत का राग एकाकी बन गये एकांत तलाशने बाले कब एकांत पाये मन में अनेकों भाव अच्छे और बुरे भी पीछा तो न छोड़ते मिथिला के नरेश माता सिय के पित जनक सीरध्वज नाम एकाकी न हुए पर एकांत प

असमान्य घड़ी घड़ी तो असमान्य आती है सूरज के साथ मेघों की चादर ढक लेती रवि को रवि की किरणें रुक जातीं चादर से धरा तक पहुंच न पाती फिर रवि क्या करता और कुछ नहीं भेजता रहता निज आभा को मन में संकल्प लिये

नारी की शक्तियां धरती, चांद, तारे रच दुनिया की खङी सृष्टि कर्ता ने जीवन की पहल शुरु कई मुश्किलों के बाद विस्तार न हुआ सृष्टि का भूल कहाॅ समझ न आयी ओर जब आयी तो विरची नारि आदमी की बन संगनी जब नारी ने

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