हां मैंने भी बुना है एक सुन्दर सा ख़्वाब,किसी ने कहा मुझे इजाज़त नहीं है देखने की ख़्वाब;ये क्या बात हुई तुम बुन तो लो अपने अपने ख़्वाब।लेकिन देख नहीं सकते, तुम अमल होते ये
गले लग कर वो रो रही थी, माँ बाप से जो बिछड़ रही थी. कल तक लड़ती थी माँ से, बाप से भी थे शिकवे हज़ार, भाई से होती थी हाथापाई, आज बिछड़ रही थी सब से. फिर भी मन में ख्वाब नया था, पिया से मिलने मन मचल रहा था. आने वाले अनदेखे कल
तेरी खूबसूरती ने क्या कमाल कर दिया,इश्क के ख्यालात से माला माल कर दिया. गरीब तो वो है जिन्हे इल्म ए इश्क नहीं, हमने तो खूबसूरती पे क़सीदा लिख दिया. शाम होते ही मैं शमा को बुझा देता हूँ.ख्वाबों के ल
कुछ बेसबब, अल्हड़ से ख्वाब,चश्मे-तर में कहां होते हैं,तकिये के नीचे दबे होते हैं...।दबे पांव निकल कर, संभल कर,आपकी ठुड्डी सहला जाते हैं...आलमें-इम्कां का एतबार न टूटे,इस कर थपकियों से जगा जाते हैं...होने को जहां में क्या नहीं होता,पर ये ख्वाब मुकम्मल नहीं होता,फिर भी, तकिया किसके पास नहीं होता...!
कुछ बेसबब से ख्वाब, चश्मे-तर में नहीं होते,तकिये के नीचे दबे होते हैं... दबे पांव निकल कर, संभल कर, आपकी ठुड्डी सहला जाते हैं... आलमे-इम्कां का एतबार न टूटे, इस कर, थपकियों से जगा जाते हैं... होने को जहां में क्या-क्या नहीं होता, मगर यह ख्वाब मुकम्मल नहीं होता...! फिर भी