आज़ फ़िर उस मोड़ पे देखा तुम्हें था रूबरू
विस्मित चकित इस ओर था मैं उस किनारे तुम ख़ड़ी थीं !
मन हुआ क़ि पूछ लूँ तुमसे तुम्हारा हाल मैं पर
मौन थे संवाद और उस मौन में बातें बड़ी थीं !!
सोचा तुम्हारी चाह में जो कभी बेला सी महकीं...
जो तुम्हारी सप्तवर्णी छाँव में कोयल सी चहकीं...
उन मधुर कलियों के कंटक में बदलने की पहेली...
उस अमिट विश्वास की धुन आज़ है निर्जन अकेली...
इन सभी प्रश्नों के युद्धों में बिखरकर टूटकर...
संयोग से संयोग की ख़्वाहिश में इक पल डूबकर...
अस्तित्व के पाँवों में शायद आज भी क़ड़ियाँ पड़ी थीं
इस किनारे कश्मकश थी उस किनारे तुम खड़ी थीं !!
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