ग़िला शिक़वा करूँ कैसे मोहब्बत की इनायत का
दिल-ए-बेताब की हर क़श्मकश किस्सा शिकायत का
किसी बीमार को जैसे अखरता हो बदन का ज्वर
लहर की चोट से जैसे सिहरता हो कोई सागर
किसी अमरत्व की ख़्वाहिश में जैसे भाव मरता हो
क़ि जैसे फ़र्श पऱ ग़िरकर कोई शीशा बिखरता हो
क़ि टूटा हो परिंदा और पंखों का पता ना हो
बटाँ अस्तित्व हो ऐसे क़ि हिस्से कुछ बचा ना हो
अँधेरी रात में जैसे क़ि जुगनू के उजाले हैं
उम्मीदें आज भी वैसे तुम्हें मुझमें संभाले हैं
सफ़र की तिशनगी फ़िर आज अहसासों में उतरी है
कोई मिटती हुई तस्वीर फ़िर आँखों में उभरी है
ये रंग-ए-इश्क़ है कोई या दर्द-ए-आशनाई है
तुम्हारी याद आई है...
तुम्हारी याद आई है...!
तुम्हारी याद आई है...!!
.....✍💔✍.....