मैं पतझड़ वाला मौसम हूं
मैं अंधेरे से रोशन हूं
मैं आसमां हूं बिन तारों का
मैं मुरझाया इक गुलशन हूं
मैं इक बंजर जमीं हूं
मैं बिन रोशनी का रवि हूं
मैं समंदर हुूं बिन पानी का
मैं बिना कलम का कवि हूं... मैं बिना कलम का कवि हूं
वो सपना भी बड़ा सस्ता है, जो मेरी आंखों में बसता है.
कुछ हालत मेरी ऐसी है, इस जो देखे वो हंसता है.
बरसाए सावन बदरा चाहे भरकर अपने सीने में.
फिर भी मेरा मन अभागा, इक इक बूंद को तरसता है.
मेरी आंखों के जो आँसू हैं, खुद को साबित करने को तरसते हैं
दुनिया समझे उनको पानी, जब वो झर झर बरसते हैं
दिखती है मंजिल मेरी मुझको बड़ी ही दूर से
लेकिन पहुंच न पाता उस तक, क्योंकि बंद सारे रस्ते हैं
मेरा मन कुछ ऐसा है, जिस पर मेरा ही स्वामित्व नहीं.
मेरे दिल-ओ-दिमाग पर यारो मेरा आधिपत्य नहीं.
कह रहा हेमंत सब सुनलो.
बिना कलम के किसी कवि का कुछ भी अस्तित्व नहीं.
बिना कलम के किसी कवि का कुछ भी अस्तित्व नहीं....