हां मैं मज़दूर हूं
हां मैं एक मज़दूर हूं , खुला आकाश मेरी छत है , तपती धरती मेरा बिछौना है ।
टूटी-फूटी अपनी झोंपड़ी में मुझे हंसना और रोना है ।
नहीं चाह मुझे महल - माड़ियों की , घास - फूस की कच्ची मिट्टी की झोंपड़ी में
ही खुश हूं मैं , क्योंकि मैं मज़दूर हूं ।
सूट - बूट तो बड़े लोगों के शौंक हैं , चीथड़े मेरा लिबास हैं ।
पूनम की चांदनी में पढ़ते बच्चे मेरे , मेरा गौरव , मेरा विश्वास हैं ।
जब हो जाते अच्छे नंबरों से पास तो खुशी बहुत मनाता हूं ,
ना पढ़ने को , रहने - खाने को सुख - सुविधाएं उन्हें , इसलिए मैरिट की
ना चाहना रखता हूं , हां मैं एक मज़दूर हूं ।
चीर के पर्वत का सीना झरना मैं बहा दूं , धरती की गोद से दरिया मैं निकाल दूं ।
नहीं कर सकता मैं किसी चैक पर हस्ताक्षर, दिलों पर जो मिटे ना कभी नाम
ऐसा लिख जाता हूं । नहीं देखता अपने हाथों के छालों को , महल , गाड़ियां तुम्हारी
चमकाता हूं , हां मैं एक मज़दूर हूं ।
प्रेम बजाज