ज़िन्दगी संग तेरे
मैं दो कदम चली
थक गई, रुक गई
बैठकर सोचने लगी
तू हंसी मैं चल पड़ी
कभी इस डगर
तो कभी उस डगर
निराश होकर मैं फिर रुकी
तू फिर हंसी, मैं फिर चली
चलती गई, चलती गई
थककर रुकी, रुककर चली
बस... चलती गई, चलती गई
तूने मगर कभी कहा नहीं
ठहर जा तेरी मंज़िल यही है
सोचती हूं मैं खड़ी...
क्या मंज़िल मेरी आएगी कभी
या रहगुज़र पर ही रह जाऊंगी मैं कहीं....।