मर गई इंसानियत, बस शरीर जिंदा है
मर गई इंसानियत, बस शरीर जिंदा है,
दिलों में अब न वो जज़्बात, न वो रिश्ता ज़िंदा है।
जहाँ कभी मोहब्बत की थी इबादत होती,
वहाँ अब नफरत का ही दस्तूर जिंदा है।
हर तरफ सन्नाटा है, बस चीखें हैं ख़ामोश,
इंसान का दिल नहीं, बस पत्थर का वजूद जिंदा है।
हाथ जोड़कर मांगते थे कभी दुआएं,
अब हाथों में बस खंजर और बारूद जिंदा है।
मासूमियत की आबरू है तार-तार यहाँ,
हर गली, हर चौराहे पर बस डर का साया जिंदा है।
कभी जो इंसानियत थी, वो कब की खत्म हो गई,
बस बेजान जिस्मों का ये हुजूम जिंदा है।
मर गई इंसानियत, बस शरीर जिंदा है,
इस बेजान दुनिया में अब न कोई रूह जिंदा है।
पवन कुमार शर्मा