1 अक्टूबर 2024
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शब्दों को अर्थपूर्ण ढंग से सहेजने की आदत।D
तुम!हंसते रहे हो, सदा ही,अपशब्द पर भी,जबकि- सामर्थ्य में,कोई कमी,नहीं रही तेरे।संहार की,असीमित शक्ति! सुदर्शन के बावजूद,मुरली के,प्रेम धुन से,मोह लिया सबको।वैभवशाली! राजमहल में,दीन
एक,शब्द वह है,जिससे लोग- खुद ब खुद,खिंचे चले आते हैं,इसकी सुगंध को,ढ़ुढ़ते हुए, भौंरों की तरह।लेकिन- जब यही शब्द! बहकते हैं,तब जीवन में,तूफान! और आंखों में,आंसुओ का सैलाब!!&nb
मेरी-आजादी! या यूं कहें कि-स्वाधीनता!! उन्होंने छीन ली,जिनकी- आजादी के लिए, मैंने-अपना सर्वस्व! न्योछावर किया।घर हो या बाहर,परिवार हो या समाज,सभी जगहों पर, अपनत्व की भावन
रिश्तों में,जब से,चली जाने लगीं, उनके द्वारा, शतरंज की,शातिराना चालें।तभी से,मैं भी,शतरंज का,शौकीन हो गया। अब घाव! सहने और देने, दोनों में,मैं माहिर हो गया।© ओंकार नाथ त्रिपाठ
पूरी-जिंदगी मेरी,धीरे-धीरे- खुश फहमी में,एक-एक दिन करके,गुजरती रही।आंख तो तब,खुली की खुली रह गयी,जब पीछे!मुड़कर देखा,सिर्फ मेरा साया ही,मेरे साथ चलते पाया।जवानी पूरी,जुनून से भरी रही,फुर्सत कहां
दिन की,शुरुआत से लेकर, शाम!ढलने तक,कभी तुम रही,और कभी-तेरी! यादें रहीं।अकेला!कभी भी, मैं नहीं रहा,तेरे बगैर।© ओंकार नाथ त्रिपाठी अशोक नगर बशारतपुर गोरखपुर उप्र। &nbs
तुम!कितनी,बेवकूफ हो,कि तेरा- झूठ! पकड़ लेता हूं मैं।और- मैं भी!कोई कम, मूर्ख नहीं, जो हर बार! तुझ पर,यकीन! कर लेता हूं।© ओंकार नाथ त्रिपाठी अशोक नगर बशारतपुर गोरखपुर
मैं!रबर से,हमेशा ही,मिटाता रहा,लोगों की उन-गलतियों को,जो सामाजिक! नहीं रही।और-अपनी,सच्चाइयों को,लिखने से,बचाता रहा, पेंसिल को।इसका!अमिट छाप, छुटता गया,जीवन के,काल खण्ड पर।लोगों को,दिया
हम!शून्य होकर भी,सीखते रहे,शून्य के, आकार से,शून्य का महत्व।देते रहे,विश्व को,इसके- महत्व का ज्ञान। तभी तो,आज!दुनिया को,गिनती आयी।तब!क्यों न?हम!एक दुसरे के,पीछे का,शून्य बनकर, एक द
आज!जो तुम हो,वो कल वाली,नहीं लगती।आज जो हो,कल पता नहीं, वो रहोगी,या नहीं रहोगी।लेकिन! कम से कम,इसी तरह,कल भी रहो,यही फिर,कह रहा हूं मैं,जैसे कल! कहा करता था।फिर भी,तुम समझोगी, मुझे
आखिर!स्त्री ही,क्यों? जिम्मेदार होती है,वंश बेला!बढ़ाने के लिए?उसे बांझ!कहा जाता रहा है,आज तक!मां ने बनने के लिए।लेकिन!अभी तक,नहीं ढ़ूंढ़ा जा सका,बांझ का पुलिंग शब्द।जिससे- लिखा जा सके,जिंदग
अरे!इतनी,बेरुखी भी,अच्छी नहीं। जरा! नजदीकी, बनाये रखो,मुझसे तो सही।जिंदगी! मेहमान है, चार दिन की,जब चली जायेगी,तो कहोगे कि-बताये नहीं।© ओंकार नाथ त्रिपाठी अशोक नगर बशारतपुर गो
चलो,अगर सच!बोल, नहीं सकते,तो- कम से कम,सच!! सुनने की,आदत तो डालें।क्या हुआ? वक्त कठीन है,मुस्कुराएं!और प्रतिक्रिया दें।तेरी-खामोशी ही,हर ग़लत प्रश्न का,सही उत्तर होगी।मत भागो! 
कभी-कभी, तुम!अपनी भी शिकायतें!सुन लिया करो।केवल!ज़माने में उलझकर, अपने आपको,कब तक?करते रहोगे, बेगाना?आखिर! कब तक?सहते रहोगे,प्रेम के बटवारे का दंश!तुमने,जो प्रेम!मुहब्बत, फ़िक्र!&n
इस!ग़लत फहमी में,मत रहना, कि- जो तुम! अर्जित किये होवह सब,तेरा है।जब!हवा के,झोंके आते हैं, तब-अपने ही पत्तों पर,पेड़ों का भी,हक़!नहीं रह जाता।© ओंकार नाथ त्रिपाठी अशोक नगर बश
एक दिन! जब वह-खाक में,मिल गया! तब उसके,दौलत का,हिसाब! लगाया गया।जोड़ घटाकर, कुछ भी, नहीं मिला,उसको।वह तो,खाली हाथ ही,सब छोड़कर! चला गया।© ओंकार नाथ त्रिपाठी अशोक नगर बशार
हे!दानवीर!!कलियुग में,दान के, हे महान!कर्ण!!यूं तो,सारा जन,न तो,आपकी,संस्थाओं से,कभी! जुड़ा रहा, न ही आप से।फिर भी, आपकी, सहृदयता! उदारता,और-मानवता वादी, सोच ने,कायल
निदान! आलिंगन में,सर्वथा! मौजूद रहा है।अनुवाद! चाहतों का, स्पर्श!सदैव करता रहा।आलिंगन हो,या स्पर्श! दोनों प्रेम को,परिभाषित करते हैं।यही तो-भाषा है प्रेम की।© ओंकार नाथ त्रिपा
चलो!कुछ देर,सुस्ता ले,एकांत की छांव में,फकीर बनी,ऐ जिन्दगी! तूं थक गयी होगीभागते-भागते।मुझे!पता है,तेरे चेहरे में,छिपा बैठा,मानव!सहम उठा है,सच्चाई का,कत्ल देख कर।यही तो,दुनिया है!इसे जैसे-जैसे,&n
वह!यही कोई,पैंतालीस या-पचास वर्ष की रही होंगी।सुन्दर! कद काठी पर,सलीकेदार! जंचता हुआ,कीमती, सलवार सूट!उसकी सुन्दरता में,चार चांद लगा रहा था।वह! आकर, मेरे बगल में,खड़ी हो गयी,&
चलो!बांट लें,दर्द!एक दुसरे का,मिलकर,हम तुम!न जाने कब!जिंदगी की,शाम!ढल जाये।© ओंकार नाथ त्रिपाठी अशोक नगर बशारतपुर गोरखपुर उप्र। (चित
चलो!जो जलते हैं,उन्हें भी, मनाया जाये।दीयों के बजाय! उन्हीं से,उनके अंदर का,अंधेरा मिटाया जाये।ताकि-वह भी,समझ सकें,जलने की कीमत।तमस!उनके मन से, इस तरह मिटाकर, धरा को जग मगाया
सच!रो बैठा,देखो कैसे?झूठ के आगे,साजिश से,होकर लाचार।झूठ को,कामयाबी में,सुकून लगी,सो वो दौड़ पड़ा।सच्चाई!सुकून को ही,कामयाबी समझ,ठहरी सी रही।वो!क्या से क्या? करते रहे,ख्वाहिशों के लिए।झूठ की,उम्र!
ऐसा नहीं, कि-मैं तुमसे,नफ़रत करता हूं।लेकिन! तुमसे मुझे,पहले जैसा,प्रेम भी नहीं है।फिर भी, एक रिश्ता!तुमसे आज भी है,ठीक पहले जैसा ही है।वक्त! ग्रहण लगाया,मेरे हौसलों पर,जब-जब
अब!मुड़कर, पीछे!क्या देखें?जो-नहीं था,अपना!पीछे छूट गया।जो!अपने रहे,वही!साथ चले।© ओंकार नाथ त्रिपाठी अशोक नगर बशारतपुर गोरखपुर उप्र।
बच्चा!बैठने लगा,इसके लिए अब,खिलौना चाहिए।यह अब,चलने लगा,चलो इसके लिए- वाकर खरीदते हैं।धीरे-धीरे, नर्सरी से होकर,कालेज और-युनिवर्सिटी की पढ़ाई। तरह-तरह के खर्च,फिर- ऐसे करते हैं,वैस
उसने कहा-चलो!चांद दिखाते हैं,तुम्हें! लेकिन- इसके पहले, अपने घरों का,चिराग तो बुझा लो।मैं तो,करता रहा,वफाओं का,तकाजा तुमसे!तेरी! हर झूठी, तसल्ली ने,तलबगार बनाया।तबाही!आशनाई की
तुम!पूछती हो न?कि रोज तुम!सुप्रभात और-शुभ रात्रि! क्यों भेजते हो?तो आज!बता देता हूं,यह मेरे-जिंदा होने सबूत है।जिस दिन! यह न पहुंचे, तुम समझ लेना, मैं नहीं हूं।© ओंकार नाथ त्रिपाठी
मेरे में,कमियों का,भण्डार! तुम्हें मिलेगा, और-खुबियों की,तिजोरी भी है,मेरे पास।अब!यह तो,तुम पर,निर्भर करता है।तुम जो,देखना चाहोगे,वही!पाओगे मुझमें।© ओंकार नाथ त्रिपाठी अशोक नगर बशारतपुर गोरख
जंगल की,राख पर,उगे हुए, ये शहर!छीन लिये हैं,गांव की,मासुमियत! और अपनापन।भूख से सिकुड़ती, अंतड़ियों के,भूगोल ने,रोटी की,खातिर! इतिहास!! लिखा शहरों का।वह!निकली,अपने गांव से,बच्च
ठहरी हुई, रात!सिहरती, ठीठुरती हुई,सकुचाती,सर्द सांस ले रही है।हलचल है,कोलाहल भी,लेकिन- सन्नाटा पसरा है तम में।सहसा कोई, पदचाप!एक गर्माहट दे जाती है,ओवरकोट सी।फिर भी,एक चादर सी,तन ग
कल!छत पर,तुम रात में,गयी थी क्या? क्योंकि- चांद!बादलों में,छुपकर,कुछ!भुनभुना रहा था।© ओंकार नाथ त्रिपाठी अशोक नगर बशारतपुर गोरखपुर उप्र।  
कल!चांद ने,फिर! चुगली की, तेरी,चांदनी में,बादलों से,छिपकर।तब!कड़क कर,बादलों ने,डपट दिया, और-जानती हो,उसी के, प्रकाश में,नहाई!तुम्हें देखकर,चंदा!पानी-पानी, हो गया।© ओंकार नाथ त