पली,
जब कहानी,
गांव की चौपाल पर,
पीपल की छांव में,
सुस्ताने बैठी!
पनघट से पानी भरी,
कटि पर घड़ा धरे,
थकी हारी पनिहारिन।
हर साख पर टांग दी,
अनगिनत स्मृतियां!
जो समय के साथ-साथ,
झर रहीं पत्ता बनी।
पनघट के बाट में,
जल भरी,
घड़ा उठाये पनिहारीन!
करती जो हंसी ठिठोली,
उनकी ही गूंज संग,
पानी की लहरें भी,
गा उठती गीत हैं,
साथ-साथ मिलकर।
पीपल भी साक्षी है,
छलक कर घड़े का पानी,
जब चूमती धरा को है,
कामिनीयों के आंखों में,
तब मेहंदी और चूड़ी की,
सपने सजाती है।
पायल की झनकार,
सृजन करती राग है,
गगरी की टकराहट!
चुहुल करती पनिहारिन,
जीवन की कैसी यह,
अनमोल राग है।
नज़रों के मिलते ही,
वो दिल को चुराती हैं।
सिर पर घड़ा धरे,
मन में एक आस लिये,
चिलचिलाती धूप में,
पानी का भार लिये,
चाल का संतुलन!
जीवन आधार है।
श्रम की गवाही,
दे रहा यह घड़ा,
कह रहे कदम तेरे,
संघर्ष की कहानी।
© ओंकार नाथ त्रिपाठी अशोक नगर बशारतपुर गोरखपुर उप्र।
(चित्र:साभार)