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हे कृष्ण!

6 सितम्बर 2024

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तुम!
हंसते रहे हो, 
सदा ही,
अपशब्द पर भी,
जबकि- 
सामर्थ्य में,
कोई कमी,
नहीं रही तेरे।
संहार की,
असीमित शक्ति! 
सुदर्शन के बावजूद,
मुरली के,
प्रेम धुन से,
मोह लिया सबको।
वैभवशाली! 
राजमहल में,
दीन हीनता का,
पांव पखार कर,
मित्रता को,
पराकाष्ठा तक निभाया।
काल के,
कपाल पर,
काली दह में,
नृत्य करने वाले,
कर्म पथ पर,
सारथी बन,
गीता का उपदेश! 
देने वाले हे कृष्ण!
आपने-
जब तक,
बंशी पकड़ा,
प्रेम संदेश दिया।
और जब-
द्वारिकधीश हुए,
तब आप-
योगेश्वर कहलाये।
© ओंकार नाथ त्रिपाठी अशोक नगर बशारतपुर गोरखपुर उप्र।article-image
प्रभा मिश्रा 'नूतन'

प्रभा मिश्रा 'नूतन'

बहुत खूबसूरत लिखा है आपने ✅✅🙏👍

7 सितम्बर 2024

ओंकार नाथ त्रिपाठी

ओंकार नाथ त्रिपाठी

7 सितम्बर 2024

धन्यवाद आपको

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रचनाएँ
बस यूं ही कुछ
5.0
बस यूं ही कुछ! --------------------- "बस यूं ही कुछ" मेरी 'शब्द इन' पर आने लाईन प्रकाशित होने वाली सत्रहवीं किताब तथा पंद्रहवीं कविता संग्रह है।जैसा शिक्षक है उसी के अनुरूप ही इस संग्रह में ऐसी रचनाएं, संग्रहित हैं जो मन में आये चृते फिरते विचारों को शब्दों से सजाकर बस यूं ही कविता के रूप में परोसने का एक प्रयास है।इन रचनाओं में कोई भी रचना ऐसी नहीं है जो पूर्व नियोजित विचारों पर आधारित हो।इसमें संग्रहित विचार नितांत तात्कालिक हैं। आशा है पाठक जन को ये रचनाएं पसंद आयें। पाठकों के विचार, प्रतिक्रियाएं तथा आलोचनाएं मेरा उत्साहवर्धन करेंगी तथा मुझे प्रोत्साहित करने का कार्य करेंगी। © ओंकार नाथ त्रिपाठी अशोक नगर बशारतपुर गोरखपुर।
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हे कृष्ण!

6 सितम्बर 2024
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तुम!हंसते रहे हो, सदा ही,अपशब्द पर भी,जबकि- सामर्थ्य में,कोई कमी,नहीं रही तेरे।संहार की,असीमित शक्ति! सुदर्शन के बावजूद,मुरली के,प्रेम धुन से,मोह लिया सबको।वैभवशाली! राजमहल में,दीन

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शब्द!

6 सितम्बर 2024
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एक,शब्द वह है,जिससे लोग- खुद ब खुद,खिंचे चले आते हैं,इसकी सुगंध को,ढ़ुढ़ते हुए, भौंरों की तरह।लेकिन- जब यही शब्द! बहकते हैं,तब जीवन में,तूफान! और आंखों में,आंसुओ का सैलाब!!&nb

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प्रतिफल

7 सितम्बर 2024
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मेरी-आजादी! या यूं कहें कि-स्वाधीनता!! उन्होंने छीन ली,जिनकी- आजादी के लिए, मैंने-अपना सर्वस्व! न्योछावर किया।घर हो या बाहर,परिवार हो या समाज,सभी जगहों पर, अपनत्व की भावन

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शातिराना चालें !

8 सितम्बर 2024
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रिश्तों में,जब से,चली जाने लगीं, उनके द्वारा, शतरंज की,शातिराना चालें।तभी से,मैं भी,शतरंज का,शौकीन हो गया। अब घाव! सहने और देने, दोनों में,मैं माहिर हो गया।© ओंकार नाथ त्रिपाठ

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अपनी साया!

9 सितम्बर 2024
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पूरी-जिंदगी मेरी,धीरे-धीरे- खुश फहमी में,एक-एक दिन करके,गुजरती रही।आंख तो तब,खुली की खुली रह गयी,जब पीछे!मुड़कर देखा,सिर्फ मेरा साया ही,मेरे साथ चलते पाया।जवानी पूरी,जुनून से भरी रही,फुर्सत कहां

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अकेला कभी भी, नहीं रहा

13 सितम्बर 2024
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दिन की,शुरुआत से लेकर, शाम!ढलने तक,कभी तुम रही,और कभी-तेरी! यादें रहीं।अकेला!कभी भी, मैं नहीं रहा,तेरे बगैर।© ओंकार नाथ त्रिपाठी अशोक नगर बशारतपुर गोरखपुर उप्र। &nbs

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कितनी बेवकूफ हो

14 सितम्बर 2024
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तुम!कितनी,बेवकूफ हो,कि तेरा- झूठ! पकड़ लेता हूं मैं।और- मैं भी!कोई कम, मूर्ख नहीं, जो हर बार! तुझ पर,यकीन! कर लेता हूं।© ओंकार नाथ त्रिपाठी अशोक नगर बशारतपुर गोरखपुर

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अधूरी पड़ी किताब!

25 सितम्बर 2024
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मैं!रबर से,हमेशा ही,मिटाता रहा,लोगों की उन-गलतियों को,जो सामाजिक! नहीं रही।और-अपनी,सच्चाइयों को,लिखने से,बचाता रहा, पेंसिल को।इसका!अमिट छाप, छुटता गया,जीवन के,काल खण्ड पर।लोगों को,दिया

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शून्य!

27 सितम्बर 2024
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हम!शून्य होकर भी,सीखते रहे,शून्य के, आकार से,शून्य का महत्व।देते रहे,विश्व को,इसके- महत्व का ज्ञान। तभी तो,आज!दुनिया को,गिनती आयी।तब!क्यों न?हम!एक दुसरे के,पीछे का,शून्य बनकर, एक द

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आज जो तुम हो!

28 सितम्बर 2024
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आज!जो तुम हो,वो कल वाली,नहीं लगती।आज जो हो,कल पता नहीं, वो रहोगी,या नहीं रहोगी।लेकिन! कम से कम,इसी तरह,कल भी रहो,यही फिर,कह रहा हूं मैं,जैसे कल! कहा करता था।फिर भी,तुम समझोगी, मुझे

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स्त्री!

28 सितम्बर 2024
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आखिर!स्त्री ही,क्यों? जिम्मेदार होती है,वंश बेला!बढ़ाने के लिए?उसे बांझ!कहा जाता रहा है,आज तक!मां ने बनने के लिए।लेकिन!अभी तक,नहीं ढ़ूंढ़ा जा सका,बांझ का पुलिंग शब्द।जिससे- लिखा जा सके,जिंदग

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कहोगे, बतायें नहीं!

29 सितम्बर 2024
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अरे!इतनी,बेरुखी भी,अच्छी नहीं। जरा! नजदीकी, बनाये रखो,मुझसे तो सही।जिंदगी! मेहमान है, चार दिन की,जब चली जायेगी,तो कहोगे कि-बताये नहीं।© ओंकार नाथ त्रिपाठी अशोक नगर बशारतपुर गो

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मुस्कुराएं!

1 अक्टूबर 2024
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चलो,अगर सच!बोल, नहीं सकते,तो- कम से कम,सच!! सुनने की,आदत तो डालें।क्या हुआ? वक्त कठीन है,मुस्कुराएं!और प्रतिक्रिया दें।तेरी-खामोशी ही,हर ग़लत प्रश्न का,सही उत्तर होगी।मत भागो!&nbsp

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आखिर कब तक?

4 अक्टूबर 2024
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कभी-कभी, तुम!अपनी भी शिकायतें!सुन लिया करो।केवल!ज़माने में उलझकर, अपने आपको,कब तक?करते रहोगे, बेगाना?आखिर! कब तक?सहते रहोगे,प्रेम के बटवारे का दंश!तुमने,जो प्रेम!मुहब्बत, फ़िक्र!&n

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हक़!

8 अक्टूबर 2024
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इस!ग़लत फहमी में,मत रहना, कि- जो तुम! अर्जित किये होवह सब,तेरा है।जब!हवा के,झोंके आते हैं, तब-अपने ही पत्तों पर,पेड़ों का भी,हक़!नहीं रह जाता।© ओंकार नाथ त्रिपाठी अशोक नगर बश

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एक दिन!

10 अक्टूबर 2024
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एक दिन! जब वह-खाक में,मिल गया! तब उसके,दौलत का,हिसाब! लगाया गया।जोड़ घटाकर, कुछ भी, नहीं मिला,उसको।वह तो,खाली हाथ ही,सब छोड़कर! चला गया।© ओंकार नाथ त्रिपाठी अशोक नगर बशार

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टा!...टा!!...रतन!!!

12 अक्टूबर 2024
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हे!दानवीर!!कलियुग में,दान के, हे महान!कर्ण!!यूं तो,सारा जन,न तो,आपकी,संस्थाओं से,कभी! जुड़ा रहा, न ही आप से।फिर भी, आपकी, सहृदयता! उदारता,और-मानवता वादी, सोच ने,कायल

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प्रेम,की भाषा!

14 अक्टूबर 2024
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निदान! आलिंगन में,सर्वथा! मौजूद रहा है।अनुवाद! चाहतों का, स्पर्श!सदैव करता रहा।आलिंगन हो,या स्पर्श! दोनों प्रेम को,परिभाषित करते हैं।यही तो-भाषा है प्रेम की।© ओंकार नाथ त्रिपा

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कुछ देर, सुस्ता लें!

18 अक्टूबर 2024
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चलो!कुछ देर,सुस्ता ले,एकांत की छांव में,फकीर बनी,ऐ जिन्दगी! तूं थक गयी होगीभागते-भागते।मुझे!पता है,तेरे चेहरे में,छिपा बैठा,मानव!सहम उठा है,सच्चाई का,कत्ल देख कर।यही तो,दुनिया है!इसे जैसे-जैसे,&n

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भूजा!

21 अक्टूबर 2024
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वह!यही कोई,पैंतालीस या-पचास वर्ष की रही होंगी।सुन्दर! कद काठी पर,सलीकेदार! जंचता हुआ,कीमती, सलवार सूट!उसकी सुन्दरता में,चार चांद लगा रहा था।वह! आकर, मेरे बगल में,खड़ी हो गयी,&

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दर्द!

25 अक्टूबर 2024
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चलो!बांट लें,दर्द!एक दुसरे का,मिलकर,हम तुम!न जाने कब!जिंदगी की,शाम!ढल जाये।© ओंकार नाथ त्रिपाठी अशोक नगर बशारतपुर गोरखपुर उप्र। (चित

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जो जलते हैं

28 अक्टूबर 2024
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चलो!जो जलते हैं,उन्हें भी, मनाया जाये।दीयों के बजाय! उन्हीं से,उनके अंदर का,अंधेरा मिटाया जाये।ताकि-वह भी,समझ सकें,जलने की कीमत।तमस!उनके मन से, इस तरह मिटाकर, धरा को जग मगाया

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झूठ और सच

29 अक्टूबर 2024
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सच!रो बैठा,देखो कैसे?झूठ के आगे,साजिश से,होकर लाचार।झूठ को,कामयाबी में,सुकून लगी,सो वो दौड़ पड़ा।सच्चाई!सुकून को ही,कामयाबी समझ,ठहरी सी रही।वो!क्या से क्या? करते रहे,ख्वाहिशों के लिए।झूठ की,उम्र!

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नफ़रत!

30 अक्टूबर 2024
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ऐसा नहीं, कि-मैं तुमसे,नफ़रत करता हूं।लेकिन! तुमसे मुझे,पहले जैसा,प्रेम भी नहीं है।फिर भी, एक रिश्ता!तुमसे आज भी है,ठीक पहले जैसा ही है।वक्त! ग्रहण लगाया,मेरे हौसलों पर,जब-जब

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अब!

1 नवम्बर 2024
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अब!मुड़कर, पीछे!क्या देखें?जो-नहीं था,अपना!पीछे छूट गया।जो!अपने रहे,वही!साथ चले।© ओंकार नाथ त्रिपाठी अशोक नगर बशारतपुर गोरखपुर उप्र।

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बच्चा!

1 नवम्बर 2024
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बच्चा!बैठने लगा,इसके लिए अब,खिलौना चाहिए।यह अब,चलने लगा,चलो इसके लिए- वाकर खरीदते हैं।धीरे-धीरे, नर्सरी से होकर,कालेज और-युनिवर्सिटी की पढ़ाई। तरह-तरह के खर्च,फिर- ऐसे करते हैं,वैस

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आशनाई!

2 नवम्बर 2024
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उसने कहा-चलो!चांद दिखाते हैं,तुम्हें! लेकिन- इसके पहले, अपने घरों का,चिराग तो बुझा लो।मैं तो,करता रहा,वफाओं का,तकाजा तुमसे!तेरी! हर झूठी, तसल्ली ने,तलबगार बनाया।तबाही!आशनाई की

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सबूत!

4 नवम्बर 2024
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तुम!पूछती हो न?कि रोज तुम!सुप्रभात और-शुभ रात्रि! क्यों भेजते हो?तो आज!बता देता हूं,यह मेरे-जिंदा होने सबूत है।जिस दिन! यह न पहुंचे, तुम समझ लेना, मैं नहीं हूं।© ओंकार नाथ त्रिपाठी

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जो..... चाहोगे

5 नवम्बर 2024
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मेरे में,कमियों का,भण्डार! तुम्हें मिलेगा, और-खुबियों की,तिजोरी भी है,मेरे पास।अब!यह तो,तुम पर,निर्भर करता है।तुम जो,देखना चाहोगे,वही!पाओगे मुझमें।© ओंकार नाथ त्रिपाठी अशोक नगर बशारतपुर गोरख

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जंगल की राख पर

7 नवम्बर 2024
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जंगल की,राख पर,उगे हुए, ये शहर!छीन लिये हैं,गांव की,मासुमियत! और अपनापन।भूख से सिकुड़ती, अंतड़ियों के,भूगोल ने,रोटी की,खातिर! इतिहास!! लिखा शहरों का।वह!निकली,अपने गांव से,बच्च

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साया में तुम!

18 नवम्बर 2024
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ठहरी हुई, रात!सिहरती, ठीठुरती हुई,सकुचाती,सर्द सांस ले रही है।हलचल है,कोलाहल भी,लेकिन- सन्नाटा पसरा है तम में।सहसा कोई, पदचाप!एक गर्माहट दे जाती है,ओवरकोट सी।फिर भी,एक चादर सी,तन ग

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चांद!

20 नवम्बर 2024
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कल!छत पर,तुम रात में,गयी थी क्या? क्योंकि- चांद!बादलों में,छुपकर,कुछ!भुनभुना रहा था।© ओंकार नाथ त्रिपाठी अशोक नगर बशारतपुर गोरखपुर उप्र। &nbsp

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चंदा!

20 नवम्बर 2024
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कल!चांद ने,फिर! चुगली की, तेरी,चांदनी में,बादलों से,छिपकर।तब!कड़क कर,बादलों ने,डपट दिया, और-जानती हो,उसी के, प्रकाश में,नहाई!तुम्हें देखकर,चंदा!पानी-पानी, हो गया।© ओंकार नाथ त

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हद!हो गयी,

21 नवम्बर 2024
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हद!हो गयी यार!!आज!फिर चांद ने,चांदनी से,कानाफूसी की।जब तुम! रात को,बगीचा में,घूम रही थी।© ओंकार नाथ त्रिपाठी अशोक नगर बशारतपुर गोरखपुर उप्र।

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बनारस की सुबह!

22 नवम्बर 2024
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पौ!फट रही है,पुरबीनी!अध जगी सी,ऊंघ रही,अंगड़ाइयां ले।प्राची!लाल चुनरी ओढ़े,पूजा की, थाल लिये खड़ी है।सहसा! तेरी आवाज़,मंदिरों की,घंटीयां सी लगीं।क्यों न,तेरा नाम! बनारस की,सुबह लिख दूं।

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ये रास्ता!

25 नवम्बर 2024
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आज!ये गलियां, जिनसे,गुजर रहा हूं,जानी- पहचानी सी लगती हैं।यहां की,खुशबू!तेरे-सांसों जैसी,तथा- यहां की धूलि में,तेरी!फोटो दिखती है।अब तो!यह निश्चित है कि-ये रास्ता! तेरी दर को जाता

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रुनझुन की आवाज!

29 नवम्बर 2024
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झींगुरों ने,युगलबंदी कर ली,कल रात को,तेरी!पायलों के,झंकार के विरुद्ध।मैं भ्रमित! सारी रात, अकनता रहा,रुनझुन की आवाज।© ओंकार नाथ त्रिपाठी अशोक नगर बशारतपुर गोरखपुर उप्र। ‌&

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अरे! रुको,

30 नवम्बर 2024
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अरे!रुको,पेशोपेश में, मत पड़ो।मैं तुमसे,किसी प्रकार की,कोई भी बात ,नहीं करुंगा।मुझे तो, सिर्फ! यह बताना है,कि- अब मैं!शहर छोड़ रहा हूं।© ओंकार नाथ त्रिपाठी अशोक नगर बशारतपुर गोरखपु

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मन!

2 दिसम्बर 2024
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मन!कहता रहा, 'है' को-स्वीकार करो।लेकिन! बेचारा दिल,यह तो, बच्चा निकला।वह!'था' पर ही,लट्टू की तरह, नाचता रहा। जो!उसका,'आज'! हुआ ही नहीं। © ओंकार नाथ त्रिपाठी अशोक नगर

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