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तपस्‍वी नहीं था कोई मेरा 'मैंं'

26 अगस्त 2016

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‘मैं’ एक स्तंभ भावनाओं का

जिसमें भरा है कूट-कूट कर

जीवन का अनुभव

जर्रे- जर्रे में श्रम का पसीना

अविचल औ’ अडिग रहा

हर परीस्थिति में मेरा विश्वास

फिर भी परखता

कोई मेरे ही ‘मैं’ को कसौटियों पर

जब लगता छल हो रहा है

मेरे ही ‘मैं’ के साथ !

....

तपस्वी नहीं था

कोई मेरा ‘मैं’

पर फिर भी बुनियाद था

अपने ही आपका

‘मैं’ एक मान का दिया

‘मैं’ सम्मान की बाती संग

हर बार तम से लड़ता रहा

परछाईं मेरे ‘मैं’ की

बनता जब उजाला

मिट जाता अँधकार

जीवन का सारा !!

.....

एक चट्टान था मेरा ‘मैं’

जिसको टुकड़ों में

तब्दील करना मुश्किल नहीं तो

आसान भी नहीं था

हथेलियों में उभरेंगे छाले

ये सोचकर वार करना

मैं तूफानों के वार में था अडिग

जल की धार से पाया

मेरे मैं ने संबल

सोचकर तुम बतलाओ

कैसे डिग सकता है मेरा ‘मैं’ ????

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शब्द चयन , प्रवाह , भावनाओं की सरस् क्रम बद्धता के सुंदर संयोजन के लिए ह्रदय से बधाई | बहुत सुंदर |

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बेटियां होती दोनों कुल का मान स्वीकारो ये ! .... बिन बेटी के ना भाग्य संवरता जाना ना भूल ! .... बेटी होती है प्लस का एक चिन्ह जो जोड़े सदा ! .... बेटी नहीं है जिन्हें तरसते वो कन्यादान को ! .... बेटियां होती बिंदी रोली कुंकुम पूजा की पात्र ! .... बेटी सावन चूड़ी मेहँदी झूले मिल के कहें !

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‘मैं’ एक स्तंभ भावनाओं का जिसमें भरा है कूट-कूट कर जीवन का अनुभव जर्रे- जर्रे में श्रम का पसीना अविचल औ’ अडिग रहा हर परीस्थिति में मेरा विश्वास फिर भी परखता कोई मेरे ही ‘मैं’ को कसौटियों पर जब लगता छल हो रहा है मेरे ही ‘मैं’ के साथ ! .... तपस्वी नहीं था कोई मेरा ‘मैं’ प

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