आज वह फिर आया था, गाँव की गलियों में आवाजें लगाता। जैसे हमेशा आता था... बस 'नाक कान छिदवा लो' कि तर्ज पर 'दिमाग बदलवा लो' की सदायें देता।
हमेशा किसी न किसी घर में उसे कोई गहक मिल ही जाता था जहां नयी पीढ़ी का कोई इंसानी पौधा तैयार हो रहा हो, और उसे 'काम' मिल जाता था और उस नये पौधे का उसके हाथों संस्कार भी हो जाता था।
वह सर का ढक्कन खोलता था और बाप दादा का, पुरखों का दिमाग बच्चे के सर में फिट कर देता था... बच्चे का अपना दिमाग वह अपने पास रख लेता था। यह सिलसिला हजारों बरस से चला आ रहा था और वह पीढ़ी दर पीढ़ी अपने काम को अंजाम देता आ रहा था। यूँ उसकी कोई खास पहचान नहीं थी... कोई उसे पंडित कह देता था, कोई मौलाना तो कोई फादर। उसका नाम मायने नहीं रखता था... उसका काम मायने रखता था।
लेकिन आज जो हुआ था, वह उसके साथ पहले कभी नहीं हुआ था। चुनमुन बाबू ने अपने लौंडे छोटू का दिमाग बदलवाने के लिये उसे आमंत्रण दिया था और वह आज की कमाई के लिये चुनमुन के द्वारे पंहुच गया था।
लेकिन छोटू बिदक गया... उसने साफ मना कर दिया कि बाप दादाओं के दिमाग में अब वह ताजगी न रही... उनमें बसी सोच बूढ़ी हो चुकी है, और अब वह उसे ढोने के लिये तैयार नहीं। वह अपने ही दिमाग के साथ जियेगा।
हंगामा मचना ही था... इससे पहले ऐसा कभी नहीं हुआ था गाँव में। चार जमात लौंडा पढ़ क्या लिया, इसके तो पर निकल आये... छोटू के विषय में सबकी यही राय बनी। घरवालों ने समझाया... गाँव वालों ने हड़काया, लेकिन छोटू टस से मस न हुआ और आखिरकार उसे बिना काम पूरा किये खाली हाथ उस गाँव से लौटना पड़ा।
लेकिन छोटू का दुस्साहस बगावत माना गया... उसने बाप दादाओं के दिमाग को ढोने से इनकार कैसे कर दिया। लग गयी पंचायत और हाजिर होना पड़ा छोटू को। पूरा गाँव जमा हो गया चौपाल पे... आखिर माजरा क्या है? पहले तो ऐसा कभी न हुआ।
"क्यों रे छोटू... क्यों मना किया बाप दादा का दिमाग लगवाने से?" बेहद तंजया लहजे में पंचों की तरफ से पूछा गया।
"क्योंकि अब जमाना बदल रहा है। नयी नयी जानकारियाँ, नयी नयी सुविधायें हर तरफ आ रही हैं... क्यों हम सैकड़ों साल पुरानी रवायतों को पीढ़ी दर पीढ़ी ढोये चले जा रहे हैं।"
"कहना क्या चाहता है लड़के?"
"यही कि हमारी जिंदगी है, हमें तय करने दो कि हमें कैसे जीना है। क्या पहनना है, क्या खाना है, कैसे किसके साथ पेश आना है... खेतों में जा के नहीं हगना हमें। घर में शौचालय बनवाने दो। मंदिरों मस्जिदों की उतनी जरूरत न है हमें जितनी स्कूलों की है... सब सरकार ही न करेगी, हमें भी करना पड़ेगा।"
"बावला हो गया है... मंदिर मस्जिद की जरूरत हमेशा, हर दौर में रही है।"
"पर क्यों... घंटे बजाने के लिये, मत्था पटकने के लिये। कोई सुधार आ रहा है जिंदगी में? इंसानियत निभाते दिख रहे लोग कहीं... आज दुनिया में सबसे ज्यादा लड़ाइयां धर्म को ले कर ही तो लड़ी जा रही हैं।"
"तो चाहता का है लड़के... सब नास्तिक हो जायें।"
"नहीं। नास्तिक क्यों... नास्तिक तो हर उम्मीद खो देता है, उसमें किसी चीज का डर नहीं बाकी रहता... जरा सा आत्मनियंत्रण खोने पे वह सीधा बुराई पे उतर आता है और जब उसका कोई अपना, कोई कलेजे का टुकड़ा मौत की दहलीज पर पड़ा जिंदगी की आखिरी सांसे गिन रहा होता है तो सबसे बेबस नास्तिक ही होता है, क्योंकि न उसके पास कोई उम्मीद होती है, न वह दूसरे को उम्मीद दिला पाता है।"
"फिर... फिर क्या करें लड़के?"
"सोचो चाचा, सब धर्मों में कुछ अच्छाइयां हैं तो कुछ बुराइयां। एक दूसरे के साथ यह चल नहीं पाते। अल्लाह वाला भगवान को नहीं मानता और भगवान वाला अल्लाह को। सबके घर अलग-अलग बने हुए हैं... कैसे मुमकिन है हमें बनाने वाले अलग-अलग हों। एक करने की बात करो तो कोई अपना धर्म नहीं छोड़ना चाहता, क्योंकि उसे लगता है कि वही सही है, बाकी सब गलत। हिंदू चाहता है एक होने के नाम पर सब हिंदू हों जायें, मुसलमान चाहता है सब मुसलमान हो जायें और इसाई चाहता है सब इसाई हो जायें।"
"तो फिर... क्या करें?"
"क्यों न सब थोड़ा-थोड़ा पीछे हटें... क्यों न सब थोड़ा-थोड़ा आगे बढ़ें। हम सब धर्मों की बुराइयों को छोड़ अच्छाइयों को ग्रहण कर लें। क्यों न हमारा खुदा और भगवान अलग रहे, क्यों न बस ईश्वर के रूप में एक कर दें। क्यों न हम धर्म को घर की चौखट तक सीमित कर दें! क्यों न हम धर्म के नाम पे बांटने वाली सभी चीजों से किनारा कर लें? क्यों न हम अपना ध्यान पढ़ने लिखने, नौकरी रोजगार, मनोरंजन और जिंदादिली से भरपूर जिंदगी पर फोकस करें। क्यों हम दूसरों से या सरकार से कुछ सुधार की उम्मीद करें! क्यों न हम खुद जुट कर एक दूसरे की मदद से एक सुंदर स्वस्थ समाज का निर्माण करें? इनऑल, क्यों न हम हिंदु या मुसलमान से आगे बढ़ कर बस इंसान हो जायें?"
कह कर छोटू तो खामोश हो गया लेकिन हवा में वह सवाल छोड़ गया जो पंचों से लेकर गांव के हर शख्स के चेहरे पर पोस्टर की तरह चिपक गया था और उनकी सिकुड़ी हुई आंखें उस सवाल के जवाब को तलाशने की गवाही दे रही थीं।