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वन्स अपान ए टाईम इन कश्मीर

22 नवम्बर 2021

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अपनी  ज़िन्दगी  में  इंसान  अगर  एक  लम्बी उम्र  जीता  है  तो  ऐसे  कितने  मौके  आते  हैं जब  वह मरते  मरते  बचता  है।  आज  मैं,   मलिक  सफ़दर  हयात आज  पच्चासी  साल  का  हूँ… इतनी  लम्बी  ज़िन्दगी बिना  खतरों  के  नहीं  गुज़रती।

अपने इतिहास के पन्ने  अगर  मैं  पलटने  बैठ  जाऊं  तो  मुझे  याद  भी नहीं  होगा  कि कितनी  बार  मेरी  जान  जाते -जाते  बची है  और  कितनी  ही  बार  ऐसा  हुआ  है  जब  अपनी पुलिस  की  नौकरी  के  चलते मैंने  लोगों  की  जानें  ली हैं।   चालीस  की  उम्र  तक  मैंने  पुलिस  की  नौकरी  की है… फिर  देशभक्ति  की  भावना  ने  जोश  मार  तो नौकरी  छोड़  दी  और  स्वतंत्रता  संग्राम  से  जुड़  गया था। 

पंद्रह  साल  की  नौकरी  में  मैं  कांस्टेबल  से  हेड-कांस्टेबल, एस. आई. और  फिर  इंस्पेक्टर  बना  और तमाम  केसों  से  जुड़ा  मगर  एक  ऐसा  केस  था  जो मेरी  ज़िन्दगी  का  सबसे  अहम  हिस्सा  है  और  जिसमे मैं  एक  छोटी  ही  सही  पर  एक  क्रांति  का  अगुवा बना।

बहुत  पहले… बर्तानवी  हुकूमत  में– कश्मीर,जो  कभी  पंजाब  राज्य  का  हिस्सा  था, पर  टैक्स  न जमा  करने  के  कारण  अंग्रेज़ों  ने  उसे  अपने  कब्ज़े  में ले  लिया  था… और  जब  अँगरेज़  हुकूमत  कानून  की अमलदारी  कायम  करने  के  लिए  दूर  दराज़  के  गावों, गाँजर  क्षेत्रों  में  पुलिस  चौकियां  खोल  रही  थी, जहाँ चौधरियों, ठाकुरों, ज़मींदारों  की  सत्ता  चलती  थी।  तब ऐसे  ही  उत्तरी  कश्मीर  के एक  गावं  डेरा  जमाल  में मेरी  पोस्टिंग  हुई  थी– चौकी  इंचार्ज  के  तौर  पर।

डेरा  जमाल  में  ठाकुरों  का  सिक्का  चलता  था… सालों  से  वहां  जागीरदारी  की  प्रथा  चली  आ  रही थी।  पहाड़ियों  से  घिरा  खूबसूरत  गावं  था  डेरा  जमाल… तीन  तरफ  आसमान  चूमती  पहाड़ियों  का  नज़ारा होता  था– चौथी  तरफ  क्रमबद्ध  खेत  चले  गये  थे, जहाँ  चावल  की  खेती  की  जाती  थी। 

पहाड़ियों  की ओर सेब, आलू बुखारे, अखरोट, बादाम  के  बागान  थे या नागों, अनार  के  जंगल।  गावं  से  काफी  हट के  दस मील  दूर  स्थित  गिलगित  जाते  इकलौते  रस्ते  पर ज़ाफ़रान  की  काश्त की  जाती  थी।  बीच  में  ढलुवाँ छतों  वाले, लकड़ी  और  पत्थर  से  बने  मकानों  की घनी  आबादी  थी… लेकिन  बहुत  से  मकान  दूर  दूर और  बिखरे-बिखरे  से  भी  बने  हुए  थे। 

गावं  के पश्चिमी  सिरे  पर  ठाकुरों  का  बनवाया  रेस्ट  हाउस  था तो  पूर्वी  सिरे  पर  उनकी  विशाल  हवेली, जिसमे दसियों  की  तादाद  में  ठाकुर  महावर प्रसाद  के  वारिस रहते  थे।  वह  उस  क्षेत्र  के  मालिक  थे… माई  बाप थे।  उनके  पास  बेशुमार  ज़मीनें  थीं… उनके  पास बेशुमार  आदमी  थे। 

और  जहाँ  तक  मेरे  बारे  में… मैं  पठानकोट का  रहने  वाला  एक  मामूली  बंदा था, जो  हवलदार  के रूप  में  लाहौर  में  तैनात  हुआ  और  पहले  साल  में  ही हेड -कांस्टेबल  बन  गया था  और  हाल  ही  में  एस. आई.बना  दिया  गया  था  क्योंकि  नई चौकियों  के  लिए बहुत  से  नये  लोग  चाहिये  थे  और  मुझे  चौकी  इंचार्ज के  तौर  पर  डेरा  जमाल  भेज  दिया  गया  था– कानून का  राज  कायम  करने।

मैं  जिस  वक़्त  हाथों  में  होल्डाल  और  अटैची थामे  डेरा  जमाल  पहुंचा– दोपहर  के  दो  बज  रहे  थे। गिलगित  से  यहाँ  तक  घोड़े  या  टाँगे  से  आना  पड़ता था। सारे देश  में  भले  लू  और  गर्मी  का  मौसम  चल रहा  हो– यहाँ  का  मौसम  काफी  खुशगवार  था।

ठंडी- ठंडी  हवा  का  आनंद  लेता  मैं  एक  तरफ बढ़  रहा  था  कि  एक  ओर इकट्ठी  भीड़  पर  नज़र पड़ी।  इतनी  भीड़  होते  हुए  भी  वहां  शोर  नहीं  था… बस  एक  आवाज़  गूँज  रही  थी  और  वह  भी  डोगरी में  कुछ  कहा  जा  रहा  था।

क्या  माजरा  था…?

मुझे  जिज्ञासा  हुई… पास  पहुंचा  तो  देखा  एक गोल  में  आठ  दस  लठैत  खड़े  थे… तीन  घनी  मूंछ,रुआबदार  चेहरे  और  पगड़ी  वाले  युवक  और  एक जवान  खूबसूरत  लड़की  जिसके  दूध  से  गोर  बदन  पर कपड़े का  एक  रेशा  भी  नहीं  था… उस  गोरी  चिट्टी कश्मीरन  के  चेहरे  पर  अजीब  से  भाव  थे  और  आँखें शर्म  से  ज़मीन  में  गड़ी  जा  रही  थीं।  पहले  यह  मंज़र देख  में  शरीर  में  सिहरने  दौड़ीं  और  फिर  क्रोध  से मेरा  बुरा  हाल  होने  लगा।  एक  पगड़ी  धारी  युवक उसके  खुले  बाल  पकड़े डोगरी  में  कुछ  चिल्ला  रहा था।  यह  सब  देख  मेरे  लिये  स्वयं  पर  नियंत्रण  रखना मुश्किल  हो  गया।

“क्या  हो  रहा  है  यह?” मैंने  गरजती  हुई आवाज़  में  पूछा  और  एकदम  से  बिलकुल  सन्नाटा  छा गया।  हर  निगाह  मुझी  पर  आ  जमी… सभी  हैरत  में थे  कि ठाकुरों  को  रोकने  की  हिमाक़त  किसने  कर दी।  उन  तीनों  युवा  ठाकुरों  की भी  भृकुटियां तन गयीं।

“तू  कौन  है?” एक  ने  घृणास्पद  स्वर  में  पूछा।

“मेरा  नाम  मलिक सफ़दर  हयात  है  और  मैं सब  इंस्पेक्टर  हूँ।”

“वह  क्या  होता  है?”

“वह कानून  का  रखवाला  होता  है।”

“कानून…” दूसरे  ठाकुर  की  पेशानी  पर  बल पड़  गये, “कानून  तो  शहरों  में  होता  है… डेरा  जमाल में  कानून  का  क्या  काम?”

“ग़लतफहमी  है  यह  तुम  लोगों  की।  कानून सिर्फ  शहरों  में  ही  नहीं  जंगल  में  भी  होता  है।  यह जो तुम  जैसे  रसूख  वाले  लोगों  ने  जंगलराज  फैला रखा  है, अब  इसी  के  खिलाफ  हुकूमत  गावं-गावं पुलिस  चौकियां  खोल  रही  है  ताकि  कानून  गावों  में भी  हो… सिर्फ  शहरों  में  नहीं।”

उनकी  बातों  से  साफ़  लग  रहा  था  कि उन्हें  इस  बारे  में  जानकारी  नहीं  थी  और  इसीलिये  वह  काफी  बेचैन  हो  गये  थे।  उनमे  से  वह  जो  लड़की  को  पकड़े था, उसे  मेरी  तरफ  धकियाते  हुए  गुर्राया– “भूल  है  यह  तेरी, यहाँ  बरसों  से  हमारी  हुकूमत  चलती  आई  है  और  चलती  रहेगी।  यहाँ  सिर्फ  वही  होता  है  जो  हम  चाहते  हैं।  हमारी  मर्ज़ी  के  खिलाफ  यहाँ  न  कभी  कुछ  हुआ  है  और  न  कभी  कुछ  होगा।  इस  बात  को  तुम  भी  समझ ले  और  इस  गोबरी  को  भी  समझा दे।”

लड़की  मुझ  तक पहुंची तो मैंने  उसे संभाल लिया।

एक पल  के  लिये लड़की की निगाह मुझसे मिली… फिर  वह  एक  तरफ  भागती  चली  गयी।  मैंने उन ठाकुरों  को देखा जो अपने लठैतों के साथ ज़मीन रौंदते हवेली की दिशा में बढ़े चले जा रहे थे।  भीड़ भी छंटने लगीथी… तभी भीड़ में मौजूद एक हवलदार सैल्यूट करता मुझ तक आ पहुंचा।

“सलाम  जनाब… मैं हेड-कांस्टेबल अब्दुल वहीद  आपका  खैर  मकदम  करता  हूँ।  चलिये  इरविन साहब आप ही का  इंतज़ार  कर  रहे  हैं।” कह  कर उसने  मेरे  हाथ  से  होल्डाल ले लिया… हम एक तरफ बढ़ने लगे।

इरविन डिसूज़ा… वायसराय  के  खास आदमियों  में  से  एक  था  जो  उन  लोगों  में  शामिल था  जो  गावं-गावं पुलिस चौकियों की व्यवस्था कर  रहे थे।  इसी व्यवस्था के  कारण बढ़े हुए पदों  की  वजह  से मुझे  यह  तरक़्क़ी  मिली  थी।  हलाकि  इसमें  मेरे  पिछले अच्छे  रिकॉर्ड  का  भी  योगदान  कम  नहीं  था।

“कौन  थे  यह  लोग?” मैंने  चलते चलते  पूछा।

 “कौन? यह लोग… ठाकुर  थे… वीरेन, सोमेन, महेंद्र।” उसने  बड़े  आराम  से  जवाब  दिया।

“और  वह  लड़की।”

“वह… अफ़साना शाह।  बहुत  बहादुर  लड़की है  लेकिन  अब  शायद  शर्म  से  सर  न  उठा  पाये कभी।  वैसे  वह  ज़ाफ़रान  के एक  काश्तकार  हैदर शाह  की  इकलौती  लड़की  है।  पढ़ने  के  लिए  बाप  ने करांची  उसकी  खाला  के  यहाँ  भेज  दिया  था  और वहां  वह  ढेर  सी  बातें  पढ़  गयी।  गलत  क्या  है  सही क्या  है… इसे  सब  पता  चल  गया  और  यही  ज्ञान वह  यहाँ  के  जाहिल  लोगों  को  देना  चाहती  है।  वह देख  रहे हैं  जनाब… उजड़ा  सा  घर… वह  इसका स्कूल है, जिसे  अभी  घंटा  भर  पहले  उजाड़ा  गया  है। सबने  समझाया  कि वह  जो  पढ़ी  है  वह  सिर्फ  पढ़ने के  लिये  है।  असली  में  ऐसा  थोड़े  ही  होता  है  पर उसकी  समझ  में  न  आया  तो  इन  ठाकुरों  ने  समझाने का  यह  तरीका  अपनाया  कि उसका  यह  छोटा  सा स्कूल  तोड़   फोड़  डाला  और बेचारी  को  नंगा  करके पूरे  गावं  में  घुमा  दिया।  अब  वह  सबकुछ  समझ  गयी होगी।”

“तुम  एक  पुलिस  वाले  हो  कर  तमाशा  देख रहे  थे… उन्हें  रोकने  की  कोशिश  नहीं  की?”

“मैं  पागल  हुआ  हूँ  जो  मुफत  में  अपनी  जान गंवाता।”

“मैंने  तो  रोका।”

“ग़लतफ़हमी  है  आपकी।  उन्हें  जो  करना  था वह  कर  चुके  थे।  अगर  उन्हें  इससे  आगे  कुछ  करना होता  तो  आप  कैसे  भी  नहीं  रोक  पाते  उन्हें।  डिसूज़ा साहब  बता  रहे  थे  कि आप  की  तरक्की  हुई  है।  आप तो  खुश  होंगे  लेकिन  यह  खुशफहमी  है  आपकी… मुझे  भी  कांस्टेबल  से  हेड-कांस्टेबल  बनाया  गया  है… पर  सच  तो  यह  है  के  क़ुरबानी  से  पहले  हमें  दूध जलेबी  खिलाई  गयी  है।  इन  फिरंगियों  ने  जो  ऐसी जगहों  पर  पुलिस  चौकियों  को  खोलने  का  सिलसिला चलाया  है  जहाँ  लोग  कानून  का  मतलब  ही  नहीं समझते… जिन्हें  हमारे  ओहदों  से  कोई  मतलब  ही नहीं  और  भेज  दिया  है  हमें  तरक्की  दे  कर  कानून का  राज  कायम  करने।  हो  सकता  है  के  सात  आठ सालों  में  कानून  का  राज  कायम  हो  जाये  लेकिन  तब तक  हमारे  जैसे  जाने  कितने लोग  शहीद  हो  चुके होंगे।  यही  वजह  है  की  ऐसी  एक  भी  जगह  एक  भी अँगरेज़  अफसर  नहीं  गया।” वहीद  तल्खी  से  बोलता गया। 

लेकिन  उसकी  बातों  में  दम था।

मैं  डिसूज़ा  तक  पहुँच  गया… मुझे  क्या  करना है, यह  समझा  कर, मुझे  अपने  फ़र्ज़  की  याद  दिला कर, एक  संतरी  और  सात  कांस्टेबल  का स्टाफ  दे  कर, चौकी  के  लिये  अहाते  वाला  एक  मंज़िला  मकान  दे कर  और  उसमें  खर्चने  के  लिए  माकूल  सरमाया  दे कर  शाम  को  इरविन  चला  गया।  जाते-जाते  उसने सख्त  ताक़ीद  की  थी  कि  जैसे  ही  मुझे  कोई  मामला हद  से  बाहर  जाता  लगे–- मुझे  फ़ौरन  गिलगित  में  नये  बने  थाने  में  सूचना  देनी  थी… जल्द-अज़-जल्द यहाँ  पुलिस फ़ोर्स पहुँच  जायेगी  लेकिन  यह  सवाल फिर  भी  अनपूछा  रह  गया  कि यह  जाहिल  उजड्ड ठाकुर  एकदम  से हमें नेस्तनाबूद  करने  पर  उतर  आये तो  दस मील  दूर  से  आने  वाली  मदद  के  आने  तक हम  बचेंगे  कैसे, जबकि  गिलगित का रास्ता भी  इतना अच्छा नहीं था कि फ़ौरन  आया  जाया  जा  सके।  हम कुल जमा दस  लोग थे… हथियार के नाम  पर  हमारे पास आठ लाठियां, दो  पिस्तौल, तीन  बन्दूक  और  थोड़े बहुत  कारतूस  थे।

खैर  खैर  करके  हम  चौकी  बनाने में जुट गये।

अट्ठारहवीं  सदी  का  मकान  था  जिसके  पिछले भाग  में  लकड़ी  की  टॉल  थी… मकान  का  बुरा  हाल था।  पूरे  स्टाफ  ने  मिल  कर  राजमिस्त्री, लुहार  और बढ़ई  के  साथ  उधड़े  प्लास्टर, फर्श  ठीक  किये, सड़ चुके  दरवाज़े  खिड़लियां  बदलीं, छतों  पर  मिटटी  डाल कर  उन्हें  टपकने  से  रोका, दो  कमरों  को  हवालात  की शक्ल  दी, बेंचों  और  मेज़ों  का  फर्नीचर  बनाया… सहन  में  उगी  बेतरतीब  घास  हटा  कर  ज़मीन  हमवार की।  वहां  बिजली  तो  थी  नहीं… माकूल  जगहों  पर कंदीलों  की  व्यवस्था  की।  सहन  में  खड़े  पीपल  के पेड़  के  नीचे  शाम  के  बैठने  का  ठीया  बनाया-– फिर टीन  के एक  बोर्ड  को  लाल  नीला  रंग  के  उस  पर सफ़ेद  रंग  से  लिख  दिया… डेरा  जमाल  पुलिस चौकी।

इस  सबमे  सात  दिन  लग  गये  और  इन  सात दिनों  में  इलाके  के  ठाकुरों, दबंगों  ने  हर  कोशिश  कर डाली  कि  हम  वापस  लौट  जायें।  दिन  में  हमारे खिलाफ  नारे  लगाते… चौकी  के  सामने  झगड़े  करते और  हमारे  बीच  में  पड़ते  ही  सारे  के  सारे  एक  हो जाते।  कहीं  हमारे  मिस्त्री  को  पीट  कर  भगा  देते  कहीं बढ़ई  को… गावं  की  नाली  चौकी  के  सामने  खोल  दी गयी। 

लकड़ी  की  ठेकी  की  तरफ  शाम  होते  ही  आग जलायी  जाती  और  जब  इधर  की  हवा  चलती  तो उसमे  मिर्च  झोंक  दी  जाती।  रात  को  कभी  पत्थर फेंकते  तो  कभी  घोड़ों, भेड़ों  की  लीद कागज़ों  में भरकर… और  हमारे  कुछ  बोलने  पर  सारे  एक होकर  लड़ने  मरने  पर  उतारू  हो  जाते। डेरा  जमाल का  शुमार  उन  इलाकों  में  होता  था  जहाँ  कभी  कानून पहुंचा  ही  नहीं  था।  जहाँ  के  ठाकुर, ज़मींदार, चौधरी आम  इंसानों  के  साथ  जानवरों  जैसा सलूक  करना अपना  पैदाइशी  हक़  समझते  थे… जहाँ  ज़ुल्म  सहते सहते  लोगों  की  चमड़ी  इतनी  मोटी  हो  चुकी  थी  की वह  फ़रियाद  करना  भी  हिमाक़त  समझते  थे।

जैसे  तैसे  चौकी  खुल  गयी… हम  ड्यूटी निभाने  बैठ  भी  गये  पर  लाख  रूपये  का  सवाल  यह था  कि क्या  कोई  मज़लूम  इन  ठाकुरों  ज़मींदारों  के खिलाफ  हमारे  पास  शिकायत  ले  कर  आयेगा  भी? अगर  नहीं  तो  इस  चौकी  का  मतलब  क्या  था… हमारी  ज़रूरत  क्या  थी? इन  हुक्मरानों  ने  लोगों  को इतना  धौंसिया  रखा  था  कि  यह  हमें  बीमारी  की  तरह देखते  थे… इन्हें  लगता  था  के  यह  हमसे  बोले  भी तो  ठाकुर  इन्हें  खा  जायेंगे।

उस  दिन  भी  ऐसा  ही  कुछ  हुआ  था… पानी अभी  बरस  के  हटा  ही  था।  गावं  में  मिटटी  की  सोंधी खुशबू फैली  हुई  थी… हालाँकि कच्चे  रास्ते  पर  काफी कीचड़  हो  गयी  थी। 

डेरा  जमाल  के एक  सिरे  पर चाय  मग्घी  का  एक  होटल  था।  बारिश  से  मौसम ठंडा  हो  गया  था-– चाय  पीने के  लिये  चार  कांस्टेबल वहीं  बैठे  थे  कि ठाकुरों  का  खास  मुंह  लगा  अब्दुल वहीँ  आकर  उन्हें छेड़ने  लगा  था… फिर  जब  बात बढ़  गयी  थी  तो  अब्दुल, वहीद  के  सर  पर  लाठी  मार दी  थी  जिससे  वहीद  का  सर  फट  गया  था।  दो कांस्टेबल  अब्दुल  को  पकड़  लाये  थे  और  एक  घायल वहीद  को  लेकर  गिलगित  चला  गया  था  क्योंकि नज़दीकी  अस्पताल  वहीँ  था।

अब शाम  हो  चुकी  थी… गावं  की  क़न्दीलें  जल चुकी  थीं।  चौकी  की  दो  क़न्दीलें  रोशन  थीं।  आसमान बादलों  से  ढंका था।  उस  घर  में  हमने  दो  कमरों  को हवालात  की  शक्ल  दी  थी… एक  में  अब्दुल  मौजूद था  जो  खामोश  था  मगर  अपनी  खूंखार  निगाहें लगातार  हम  पर  गड़ाए  था।  वह  लम्बा  चौड़ा  पठान था… उसे  यहाँ  तक  लाने  में  दोनों  हवलदारों  के  पसीने छूट  गये  थे।

मैंने  कुर्सियां  सहन  में  पेड़ के नीचे डलवा ली थी… हम वहीँ आकर  बैठ  गए  थे  और  ठाकुरों  के अगले कदम  के  बारे  में  सोच  रहे  थे।

“साहेब।” किसी  ने  हौले  से  पुकारा।

वहां हम  चार  जान  थे… हमने  उसे  देखा।  वह  एक  शाल  में  खुद  को  पूरी  तरह  छुपाये  था-– बस  चेहरा  भर  खुला  था  लेकिन  वह  भी  शाल  के  कारण  अँधेरे  में  था।

“क्या है?” मैंने  कड़कदार  आवाज़  में  पूछा।

वह  हमारे  सामने  कच्ची  ज़मीन  पर  उकड़ूँ  बैठ गया  और  हाथ  जोड़  लिये।

“मालिक,” वह  दबी  जुबां  में  बोला, “मेरा  नाम शौकत  अली  है, अगर  आप  लोग  मेरा  ज़िक्र  छुपाएँ तो  मैं  आपके  बहुत  काम  आ  सकता  हूँ।  मैं  ठाकुरों के  यहाँ  काम  करता  हूँ  लेकिन  मुझे  उनसे  बेपनाह नफरत  है।”

“तो  उनके  यहाँ  काम  ही  क्यों  करते  हो?” फ़ज़्लू  ने  पूछा।

“मज़बूरी  है  मालिक… हम  जो  नहीं  करना चाहते  साहब  वह  भी   पेट  करा  देता  है।  सारे  गावं वाले  मेरे  ही  जैसे  हैं, दिल  में  इन  ठाकुरों  के  लिये बेपनाह  नफरत  है  पर  कोई  सर  नहीं  उठा  सकता क्योंकि  उनके  पास  ताक़त  है।” बोलते-बोलते  उसकी आवाज़  काँप  गयी  थी।

 “तुम्हे  उनसे  कुछ  ज्यादा  ही  नफरत  मालूम होती  है।” जानकी  दस  ने  कहा।

“किसे  नहीं  है  मालिक… वह  जानवर  हैं।  उन्हें जब  तन  की  भूख  लगती  है  तो  गावं  की  किसी  भी औरत  पर  चढ़  दौड़ते  हैं, नहीं  आते तो  हुकुम  भिजवा देते  हैं  अब्दुल  जैसे  हरकारों  से  और  गावं  के  लोग खुद  चल  कर  अपनी  बहन  बेटी, बीवी  को  हवेली  में लुटने  के  लिये  छोड़  आते हैं।  पूरे  डेरा  जमाल  में चौदह  साल  की  भी  ऐसी  कोई  लड़की  नहीं  जो ठाकुरों  के  बिस्तर  तक  न  पहुंची  हो।”

“तेरे  साथ  क्या  हुआ?” बदलू  ने  उसके  चेहरे पर  नज़रें  टिकायीं।

“मैं  उनकी  ताक़त  के आगे  मजबूर  हूँ  मालिक… मेरी  बहन  बेटी  नहीं  मगर  एक  खूबसूरत  औरत  है, साल  भर  पहले  पुंछ  से  ब्याह  कर  लाया  था  लेकिन सुहागरात पहले  उन लोगों  ने  मनाई  थी।  तब  से अब तक  दो  दर्जन  बार  खुद  उसे  हवेली  छोड़  कर  आ चुका   हूँ।”

“एक मिनट,” इतनी  देर  में  मैं पहली बार  बोला, “तुम  कुछ  और  कहने  आये  थे।”

“आप  लोगों  ने  अब्दुल  को  पकड़  कर  अच्छा नहीं  किया… वह  लोग  तो  पहले  से  ही  मौके  की तलाश  में  थे।  आज  आधी  रात  को  पूरी  ताक़त  से चौकी  पर  हमला  करेंगे  और  आप  सब  को ख़त्म  कर डालेंगे।”

यानि वह अवश्यम्भावी  घड़ी आ  ही  गयी।  यह तो  होना  ही  था… सवाल  यह  था  कि अब क्या  किया जाए? बात  तो  वही आई… जब  तक  गिलगित  से मदद  आती  हम  ख़त्म  हो  चुके  होते।  शौकत  तो  हाथ जोड़े “चलता  हूँ  मालिक” कह  कर  चलता  बना।  राम आसरे  वहीद  को  लिये  अस्पताल  गया  था… यहाँ  मैं, जानकी, फ़ज़्लू, बदलू  मौजूद  थे और  ननका लल्लन और  निजामू  गश्त  पर  थे। 

आखिरकार मैंने  फैसला सुनाया-–

“हमारे  पास  मुकाबले  लायक  न  आदमी  हैं  न हथियार।  लड़ने  से  पहले  ही  हार  निश्चित  है।  ऐसा  करो, निजामू, ननका और  लल्लन  को  बुला  लाओ-– हम  चौकी  का  ज़रूरी  सामान  हटा  देते  हैं, फिर निजामू  लल्लन  घोड़ों  से  गिलगित  चले  जायेंगे  और थाने में  जाके  सारे हालात  बताएँगे।  तब  तक, जब  तक हमारे  लिए  थाने  से  मदद  आ जाये… हम  अलग-अलग गावं  के  ही  किन्हीं  घरों  में  पनाह  लेंगे। चलो उठो-– हमारे  पास  वक़्त  बहुत  कम  है।”

हम  सब  उठ  खड़े  हुए।

बड़ी  अजीब  स्थिति  थी-– हम  पुलिस  वालों  को मुजरिमों  के  डर  से छुपना पड़ रहा था। 

हमने  चौकी का खास और ज़रूरी सामान पास के एक घर में रख दिया था जिसमे एक अकेला लुहार रहता था।  निजामू  और लल्लन घोड़ों से गिलगित रवाना हो गये थे।  मैंने  उनसे कह दिया था कि रास्ते  में अगर उन्हें वहीद और  राम  आसरे  मिल जाएँ  तो  उन्हें  भी  साथ  ही  वापस  लिए  जायें। जानकी, बदलू, ननका और  फ़ज़्लू अलग  अलग  घरों  में छुप गये  थे  और  खुद मैंने  गावं  के  सिरे  पर  मौजूद  घर छुपने  के  लिए  चुना  था  जो  दो  मंज़िला  था, ऊपरी छत तो  कश्मीर  के  बाकी घरों  की  तरह  ढलुवाँ  थी लेकिन  ऊपर  बाल्कनी  थी  जिससे  कंदीलों की  रोशनी में  गावं  की  धुंधली  तस्वीर  देख  जा  सकती  थी।  यह ज़ाफ़रान  के एक  सुखी  काश्तकार  हैदर  शाह  का  घर था  जो  अब  इसलिए दुखी  हो  चला  था  क्योंकि  ठाकुरों ने  उसकी  बेटी  को  सरेआम नंगा  करके किसी  को मुंह  दिखने  लायक  नहीं  छोड़ा  था  और  उसी  की वजह  से  वह  लोग  हैदर  शाह  से  दुशमनी  पर उतर आये  थे।

“चाय।‘”

मैंने  पीछे  मुड़ कर  देखा-– हाथ में  चाय  की  प्याली लिये  अफ़साना  खड़ी  थी।  उस  दिन  मैंने  उसके  वजूद को  बिना  कपड़ों  के  देखा  था  और  आज  उसका शरीर  फेरन  में  ढका  था।  सर  पर  दुपट्टा  बंधा  था। शमा  की  रोशनी  में  उसके  खूबसूरत  चेहरे  की  मुर्दनी साफ़  देखी  जा  सकती  थी।  उस  दिन  का  मंज़र  याद आते  ही  मेरे  शरीर  में  सिहरनें  दौड़  गयीं।

“अ-आप… सोयी  नहीं  अब  तक।” मैंने  प्याली  लेते हुए  कहा।

“मुझे  अब  रातों  को  नींद  नहीं  आती।” उसने  सादगी से  जवाब  दिया।

“हम्म्म… सचमुच  बड़ा  अज़ीयतनाक वाक़या  था।  मुझे लग  रहा  था  कहीं  आप  खुदकशी  न  कर  लें।”

“इतनी  बुज़दिल  नहीं  हूँ  मैं।”

“बहादुरों  वाला  काम  भी  तो  नहीं  किया  आपने।”

उसके  चेहरे  पर  नागवारी  के  भाव  आये।

“आप  किसलिये  शर्मिंदा  हैं… कि आपके  जिस्म  को यूँ  बेपर्दा  किया  गया… लेकिन  किसके  सामने… उन बुज़दिलों के सामने   जो  खुद  अपनी  बहन  बेटियों  को उन  ठाकुरों  के  हवाले  करते  आ  रहे  हैं।  किन  के सामने  नंगा  किया  गया… जो  खुद  नंगे हैं।  उन्हें आपको  नंगा  कहने  का  हक़  है  भला? चंद ताक़तवर लोगों  ने  आपको  नंगों  के  बीच  नंगा  कर  दिया  और आपने  हार  मान  ली।  आपको  क्या  लगता  है… आपके गावं  में  स्कूल  खोलते  ही  यहाँ  के  हालात  बदल जायेंगे… यह  जो  जमींदारों, ठाकुरों  की  हुकूमत  की प्रथा  है, यह  सदियों  से  चली  आ  रही  है… इसे  चंद लोगों  की  इक्का  दुक्का  कोशिशों  से  ख़त्म  नहीं  किया जा  सकता… हमारी  एक  पीढ़ी  चुक  जायेगी  तब जाकर  यहाँ  के  हालात  बदल  पाएंगे  और  अगर  हम अपनी  आने  वाली  नसलों  की  खुशहाली  चाहते  हैं  तो हमें  अपनी  क़ुर्बानी  देनी  ही  पड़ेगी। आप  को  स्कूल बंद  नहीं  करना  चाहिये  था… आप  लड़तीं  तो  दूसरों को  भी  लड़ने  का  हौसला  मिलता।  क्या करते  वह… फिर  नंगा  करते… लेकिन  देखने  वाली  आँखे  फिर  वहीं होती  जो  पहले  देख  चुकी  हैं।  आप  की  हार  ने  औरों के  भी  हौसले  पस्त  कर  दिये  होंगे। वह  देखिये… वह इब्लीसों  की  फ़ौज  आ  रही  है, हमारे  खात्मे  के  लिये। इन्हें  हम  तो  नहीं  मिलेंगे  लेकिन  यह  चौकी  का  वही हाल  करेंगे  जो  आपके  स्कूल  का  किया  था  लेकिन हमारी  यह  जंग  यहीं  नहीं  ख़त्म  होगी।”

“आप  शायद  ठीक  कहते  हैं… मुझे  हार  नहीं  माननी चाहिये  थी।  सदियों  से  चली  आ  रही  परम्पराएँ  एक दिन  में  तो  नहीं  बदलती। एक  बेमक़सद  ज़िन्दगी  जीने से  लाख  बेहतर  है  कि किसी  अच्छे  मक़सद  के  लिए मर  लिया  जाये।”

वह  मुड़  कर  चली  गयी।  उधर  नीम  अँधेरे  में  इब्लीसों की  फ़ौज  भी  लाठी, बल्लम, गंडासे, बंदूकें  लिए  चौकी की  ओर चली  गयी।  गावं  में  मुकम्मल  सन्नाटा  पाँव पसारे  था, जो  थोड़ी  देर  बाद  तोड़  फोड़  की  आवाज़ों ने भंग  कर  दिया।  हवाएँ  पुरसुकून अंदाज़  में  बह  रही थीं।  मैं  अंदर  कमरे  में  आ  गया… कमरे  में  सिगड़ी सुलग  रही  थी।  मैं कम्बल  ओढ़  के  पड़  गया… आधी रात  के  बाद  एक  आवाज़  कानों  तक  पहुंची  थी–-

“गावं  वालों… हमें  पता  है  उन  पुलिस वालों  को  तुम  में से  किसी  ने  अपने  घर  में  पनाह  दी  है।  जिसने  भी दी है-– वह  सामने  आये, वरना  बाद  में हमें  पता  चला  तो उस  घर  का  पूरा कुनबा  मौत  का  मुंह  देखेगा।”

फिर  मैं  सो  गया।

सुबह  मोटर  गाड़ियों  से  लगभग  सौ  पुलिस  वाले बंदूकों  समेत  एस. एच. ओ. की  अगुवाई  में  डेरा जमाल  पहुँच  गये।  निजामू, राम  आसरे, लल्लन  और वहीद  भी  उनके  साथ  थे।  हम  बाहर  आये  तो  पता चला  की  हममे  बदलू  और  ननका  कम थे।  क्या  वह ठाकुरों  के  हाथ  लग  गये  थे? लेकिन  हमें  पता  भी  तो नहीं  था  कि उन्होंने  रात  को  शरण  कहाँ  ली  थी।

हम  चौकी  पहुंचे  तो  तोड़  फोड़  के  बाद  चौकी  का नज़ारा  ही  बदल  गया  था… हवालात  का  ताला  टूटा पड़ा  था  और  अब्दुल  गायब  था।  आज  हम  बहुत लोग  थे… सभी  जुट  गये  तो  दोपहर  तक  चौकी पहले  से  भी  बेहतर  कंडीशन  में  आ  गयी।  वह  लोग हफ्ता  भर  का  राशन  साथ  लाये  थे।  खाना  बनाना  के लिये  डेगो का  इंतेज़ाम  करना  पड़ा।  इस  बीच  इतने सारे पुलिस  वालों  की  गहमागहमी  के  कारण  गावं वालों  की  गतिविधियाँ  ठप्प  ही  रहीं।

दोपहर के  खाने तक इरविन  भी  आ  गया… हमने  उसे सारे  हालात  बता  दिये।  बदलू  और  ननका  की गुमशुदगी  के  बारे  में  भी  बता  दिया।  खाने के बाद हमने  यह  तय  किया  कि ऐसा  तमाशा  फिर  दोबारा  न हो, इसके  लिये ज़रूरी  है  कि इन  ठाकुरों  को  कानून की  ताक़त  का  अंदाज़ा  कराया  जाये।  इनके  सारे चेलों, लठैतों  को  पकड़  के  धुनाई की जाये, फिर  गिलगित  में हफ्ता  भर  बंद  करके  छोड़ दिया  जाये  और  ठाकुरों को  भी  समझा  दिया  जाये।

खाने  के  बाद  खिली  हुई  धूप  में  काफिला  चल  पड़ा… ठाकुरों  के  खेतों  में  काम  करने  वाले  कारिंदों  को पकड़ा  गया।  खेतों  की  ओर बने  रेस्ट  हाउस  से  उनके लठैतों  को  पकड़ा  गया… फिर  हम  हवेली  पहुंचे… अंदर  घुसे  और  पुलिस  वाले  सारी  हवेली  में  फैल गये। सारे  लठैत  उनकी  बंदूकों  के  निशाने  पर  आ  गये।

सारे  ठाकुर  दहाड़ते  हुए  हवेली  के  मुख्य हाल  में  इकट्ठे हुए।  ठाकुर  महावर  प्रसाद  तो  रहे  नहीं  थे… उनके तीन  बेटे  ज़िंदा  थे-– रणबीर, रणधीर  और  बलबीर। रणबीर  के  चार  लड़के  थे-- धीरेन्द्र, गजेन्द्र, महेंद्र  और सुरेन्द्र।  रणधीर  के  भी  चार  बेटे  थे-- वीरेन, सोमेन, नरेन्  और  विपिन… और  बलबीर  के  तीन  बेटे  थे-- गिरीश, सुरेश  और  देवेश… इतने  दिनों  में  मैंने  उन सभी  को  जान  लिया  था।

“कौन  हैं  आप  लोग?” रणधीर  ने  गुर्राते  हुए  पूछा।

एस. एच. ओ. नवाज़  साहब  ने  उन  की  बात  का जवाब  दिया, “हम  आप  की  तरह  किसी  छोटे  से  गावं के  हाकिम  तो  नहीं  लेकिन  उस  हुकूमत  से  जुड़े  हैं जहाँ  कभी  सूरज  गुरुब  नहीं  होता।  आप  के  पास  चंद कारिंदे  हैं  तो  आप  खुद  को  ताक़तवर  समझते  हैं लेकिन  हमारे  पास  सैकड़ों  लोग  हैं  जो  लाठियां  नहीं गोलियां  चलाते हैं।  कल आप  लोगों  ने  जो  तमाशा किया, उसकी  रूह  में  ज़रूरी  है  कि आप  को  यह बताया  जाए  कि  कानून  कोई  चार  आठ  लोगों  वाली तंज़ीम  नहीं  जिसे  आप  कुचल  देंगे… यह  वह  तंज़ीम है  जिससे  जुड़े  लोग  आप  के  जिस्म  पर  मौजूद  रोयों से  ज्यादा  हैं  और  आप  जैसे  लोग  कानून  से  टक्कर लेने  की  हिमाक़त  नहीं  कर  सकते।  यह  बात  अगर आप  नहीं  समझते  हैं  तो  आप  के  सरों  पर  दस  जूते मार  कर  समझायी  जाये।”

सारे ठाकुर  कसमसा  कर  रह  गये।

“हमारे  दो  सिपाही  लापता  हैं-- वह  कहाँ  हैं?” इस बार  इरविन  ने  पूछा।

“हमें  नहीं  मालूम… कही भाग  गये  होंगे।” उत्तर रणबीर  ने  दिया।

“कल  चौकी  पर  हमला  करके  एक  मुजरिम  को किसने  छुड़ाया?”

“हमें  क्या  पता-- होंगे  कोई  लोग।”

“वह  मुजरिम  आप  लोगों  का  ही  एक  आदमी  था।”

“हमारा कोई  आदमी  मुजरिम  नहीं… और  जो  मुजरिम होगा  वह  हमारा  आदमी  नहीं।”

और  अगले  पल  एक  तेज़  ‘चटाख’ से  हवेली  का  हाल गूँज  उठा।  इरविन  के  हाथों  की  उँगलियाँ  ठाकुर रणबीर  के  गोरे गाल  पर  छप गयीं।  सारे ठाकुर  गुस्से की  अधिकता  से  कांपने लगे  थे… जाने  कैसे  वह  खुद पर ज़ब्त  किये  थे।  रणबीर  की  तो  आँखें  खून  खून हो  उठीं  थीं।

“इतने  भोले  नहीं  हैं  हम  जितना  आप  समझ  रहे  हैं। हम  जानते  हैं  कि आपने  क्या  किया  है  और  क्या  कर सकते  हैं  लेकिन  न  हम  अंधी  हुकूमत  करते  हैं  और न  ही  अँधा  इन्साफ… हमें  इन्साफ  के  लिये सबूत चाहिए  होते  हैं  और  फिलहाल  हमारे  पास  न  सबूत है और  न  गवाह।  हमें  पता  है  कि सदियों  से  गुलामी  की मानसिकता  में  जकड़ी  ज़ुबान आप  के  खिलाफ  हमारी गवाह  नहीं  बनेगी  लेकिन  वह  गुलाम  इसलिये  हैं क्योंकि  वह  आप  को  सबसे  ताक़तवर  समझते  हैं… जब  उन्हें  यह  अहसास  होगा  कि हुकूमत  के  सामने आप  कुछ  भी  नहीं  हैं  तो  उनकी  सोच  बदलेगी  और जब  यह  बदलाव  आयेगा  तब  आप  के  खिलाफ  हमारे पास  हज़ार  जुबानें  होंगी  और  तब… आप  में  से  कोई नहीं  बचेगा।” कहते  हुए  इरविन  काफी  जोश  में  आ गया  था।

“और  हाँ--” नवाज़  साहब  ने  वार्निंग  दी, “कल  तक हमारे  दोनों  सिपाही  वापस  पहुँच  जाने  चाहिये  वरना आप  की खैर  नहीं।”

हम  वापस  हो  लिये… ठाकुरों  के  कारिंदों  में  शौकत भी  था  जो  हमारी  गिरफ्त  में  था, जिसने  सरगोशी  में मुझे  बता  दिया  था  कि कल  की  घटना  की  अगुवाई ठाकुर  बलबीर  ने  की थी  और  दोनों  सिपाही  उसी  की कैद  में  थे।  वह  यह  नहीं  बता  पाया  कि उन्हें  उन लोगों  ने  कहाँ  छुपाया  था।

लेकिन  अगले  दिन  तक  दोनों  सिपाहियों  की  वापसी न  हुई  और  हमने  उन्हें  सबक  सिखाने की  ठानी। पहले  गावं  में  एलान  किया  गया  कि दोनों  सिपाहियों ने  रात  को  जिन  घरों  में  पनाह  ली  थी, वह  सामने आएं-- उन्हें  कुछ  नहीं  किया  जायेगा।  बस  थोड़ी पूछताछ  करनी  है  लेकिन  जैसी  कि उम्मीद  थी… कोई सामने  न  आया।

ठाकुरों  के  कारिंदों  के  साथ  हमें  दिखावे  के  लिए शौकत  को  भी  बंद  करना  पड़ा  था।  अलबत्ता  वह औरों  की  तरह  बेहिसाब  धुनाई  से  बच  गया  था।  हाँ, दिखाने के  लिए  थोड़ा  तो  उसे  भी  मारना  पड़ा  था। उसी  ने ने  बताया  कि  ठाकुर  अक्सर  जिसे  बंधक बनाते  हैं, उसे  हवेली  के  तहखाने  में  रखते  हैं  लेकिन चूँकि  बात  सबूत  देने  की  थी  इसलिए  मुश्किल  ही  था कि उन्होंने  उन  दोनों  को  ज़िंदा  छोड़ा  हो।

हम  दोपहर  को  हवेली  पहुँच  गये।  हमने  उनका तहखाना  देखने  की  इच्छा  ज़ाहिर  की  तो  उन्होंने  बड़ा विरोध  किया … बड़े  कसमसाई  लेकिन  अंततः  उन्हें मानना  ही  पड़ा।

तहखाना  खोला  गया… लेकिन  वहां  कुछ  मिला  नहीं। उन्हें  भी  तलाशी  की  उम्मीद  रही  होगी  इसलिये वह जो  भी  आपत्तिजनक  रहा  होगा, वह  सब  हटा  दिया गया  होगा  लेकिन  यह  नाकामी  नवाज़  साहब  को  बुरी तरह  खेल  गयी  और  उन्होंने  उस  हमले  के  अगुवा ठाकुर  बलबीर  सिंह  को  ही  हथकड़ी  लगा  दी।

फिर  गावं  के  बीच  से… पूरे  गावं  के  लोगों  के  सामने बलबीर  सिंह  को  आम  आदमी  की  तरह  खींचते  हुए चौकी  तक  लाया  गया।  पूरे गावं  में  अजीब  सा माहौल  हो  गया… उन्हें  लग  रहा  था  कि ठाकुर  अब ज़मीन  आसमान  एक  कर  देंगे  लेकिन  शाम  तक  जब कुछ  न  हुआ  तो  उन्हें  ताज्जुब  हुआ… आस  पास  के दस  गावों  तक  यह  बात  चर्चा  का  विषय  बन  गयी। उलटे  जब  चौकी  के  सहन  में  इंट्रोगेशन  के  चलते बलबीर  सिंह  को  पीटा  गया  तो  इस  नज़ारे  को  भी लगभग  पूरे  गावं  ने  देखा।

ठाकुर  को  कुछ  कबूलना  तो  था  नहीं… हमारे  पास उसके  खिलाफ  कोई  प्रत्यक्ष  गवाह  भी  नहीं  था। शौकत  भी  सामने  आने  को  राज़ी  न  हुआ  और मज़बूरी  में  हमें अगली  सुबह  बलबीर  सिंह  को  छोड़ना पड़ा।  पहले  सोचा  गया  गया  था  कि दो  तीन  रोज़ पुलिस  का  जलवा  दिखाने  के  बाद  पुलिस  फ़ोर्स  कुछ कर  जायेगी  लेकिन  इरविन  की  सलाह  पर  फ़ोर्स  ने हफ्ता  भर  रुकने  का  फैसला  कर  लिया।  हाँ, इरविन खुद  दो  दिन  बाद  चला  गया।

आज  घटना  के  बाद  तीसरा  दिन  था… पुलिस  पार्टी के  आने  के  बाद  हमने  स्थायी  रूप  से  कुछ  घोड़ों  का प्रबंध  कर  लिया  था।  एक  बढ़िया  नस्ल  का  घोड़ा खुद  मेरे  लिए  था… शाम  होते ही  मैंने गश्त  का  इरादा किया  और  घोड़ा  लेकर  चल  पड़ा।

बारिश  का  मौसम  शुरू  हो  चुका था… आज  सुबह से ही  रिमझिम  लगी  थी।  इस  वक़्त  हालाँकि  आसमान बिलकुल  साफ़  था।  बस  बादलों  के  कुछ  आवारा टुकड़े  तैरते  दिख  रहे  थे… हाँ, अब  हवा  में  ठण्ड बढ़ने  लगी  थी। 

टहलते-टहलते  मैं  उस  ओर निकल आया  जिधर  बाग़  थे-- नागे, सेब  और  आलूबुखारे  के बाग़।  आलूबुखारे  पक  चुके  थे, सेब  पक  रहे  थे। अखरोट  के पेड़ों  पर  अखरोट  भी  आ चुके  थे।  एक अखरोट  के  पेड़  के  नीचे  ही  अफ़साना  बैठी  थी।  मुझे शायद  उसने  दूर  से  ही  पहचान  लिया  था, इसीलिए उसके  चेहरे  पर  ख़ुशी  सी  दौड़  गयी  थी।  उसके जिस्म  पर  भूरे  रंग  का  फेरन  था  और  सर  पर  लाल दुपट्टा  लिपटा हुआ  था।

“आदाब।” उसने  दूर  से  ही  कहा।

“आदाब।” जवाब  देते  मैंने  घोड़ा  रोक  दिया, “कब  से हो  यहाँ?”

“दोपहर  से… मुझे  यह  जगह  बहुत अच्छी लगती है, अब तो  बस  जाने  ही  वाली  थी।”

मैंने आस पास नज़र  दौड़ाई… दूर दूर  सुरमई पहाड़ खड़े  थे  जिनकी  चोटियों  पर  जमी  बर्फ  आसमान  की सुर्खी  से  साथ  लाल  हो  उठी  थी… चारों  तरफ  खेत बाग़ान… पास ही छोटे  बड़े  गोल  पत्थरों की  गोद पर गुज़रती  दूध  सी  नदी  और  दूर  दूर  खड़े  अखरोट  के पेड़… नज़ारा  वाकई  दिल  को  छू  जाने  वाला  था।

“चलिये, छोड़  देता  हूँ  आप  को।” मैंने  धीरे  से  कहा।

फिर  हम  साथ  साथ  आबादी  की  तरफ  बढ़ने  लगे।

“आप  को  यूँ  अकेले  आबादी  से  दूर  डर  नहीं लगता?”

“अगर  डर  ठाकुरों  से  बचने  का  है  तो  कौन  सी औरत  घर  के  अंदर  रह  कर  भी  महफूज़  है… उन से  बचने  के  लिये ही  तो  मेरे  वालिद  ने  मुझे  पढ़ाई  के बहाने  बाहर  भेज  दिया  था।”

“स्कूल  खोलने  का  इरादा  किया  या  फिर…”

“वह  तो  कल  से  शुरू  हो  गया… वह  हमारा  ही  घर है।  दो मज़दूर  लगा  कर  उसे  ठीक  करा  लिया।  कल शाम  ही  महेंद्र  और  सोमेन  मुझे  धमकाने  आये  थे लेकिन  इस  वक़्त  पुलिस  फ़ोर्स की मौजूदगी  में  वह वैसा  दोबारा  नहीं  कर  सकते  थे  इसलिये  दस  गलियां सुना  कर  चले  गये।  अलबत्ता  उन्होंने  पूरे  गावं  में मुनादी  करा  दी  है  कि जिसने  भी  अपने  बच्चे  को पढ़ने  मेरे  पास  भेजा, उसके  घर में  कोई  ज़िंदा  नहीं बचेगा।  इसलिये  मेरा  स्कूल  तो  खुल गया  मगर  पढ़ने वाला  एक  भी  बच्चा  वहां  नहीं।  आप ने  ठीक  कहा था… यह  जंग  एक  दो  इंसानों  की  नहीं  है… यह सदियों  से  चली  आ  रही  गुलामी  की  प्रथा  से  लड़ने की  है… इसे एक झटके  से  एक  दिन  में  ख़त्म  नहीं किया  जा  सकता।  इसके  लिये तो  सालों  साल  लग  जायेंगे।  ठाकुरों  के  लठैतों  की  गिरफ़्तारी  और  छोटे ठाकुर  की  गिरफ़्तारी  और  पिटाई  से  इन  लोगों  के दिलों  में  उन  का  खौफ  कुछ  कम  तो  हुआ  है  लेकिन मिटा  नहीं  है।  इन्हें  अब  भी  लगता  है  कि ठाकुर  आप लोगों  से  बदला  ज़रूर  लेंगे।”

“पर  वह  कामयाब  नहीं  होंगे  और  हम  लगातार  यह साबित  करते  रहेंगे  कि  वह  सबसे  ताक़तवर  नहीं  हैं। धीरे-धीरे  तब  लोगों  को  यह  ज़रूर  लगेगा  कि यह खाकी  वर्दी  उनसे  ज्यादा  ताक़तवर  है  और  उस  दिन हमारी  जीत  होगी।”

 

बातें  करते  करते  हम  आबादी  तक  पहुँच  गये  थे लेकिन  वहां  गावं  वालों  का  हजूम  मौजूद  था  जिसमे सबसे  आगे  थे  मशाल  लिये  मंझले  ठाकुर।

सभी की तंज़िया निगाहें हम पर मर्कूज़ थीं। फिर गावं का मुखिया निहाल बट्ट, जो ठाकुरों का ही आदमी था, मँझले ठाकुर के इशारे पर बोला— “पुलिस बाबू… यह शरीफों का गावं है…किसी शहर का तवायफ बाज़ार नहीं जो आप गावं की बहन बेटियों के साथ रंगरलियां मनाते फिरें।”

“क्या बकवास कर रहे हो! किसके साथ रंगरलियां मना रहा हूँ मैं।” मेरा जी चाहा कि मैं उसे कस के थप्पड़ जड़ दूँ लेकिन इतने लोगों की मौजूदगी की वजह से कसमसा कर रह जाना पड़ा।

“इसके साथ,” वह अफ़साना की तरफ ऊँगली उठा कर चिल्ला पड़ा, “इस लड़की के साथ रंगरलियां मना रहे हैं आप। नरसों रात आप इसके साथ इसके घर पर थे… मैंने अपनी आँखों से देखा और आज फिर इसके साथ बाग़ में अपनी हवस की प्यास बुझा  कर आ रहे हैं… आज यह है कल इसकी जगह हमारी बहन बेटी भी हो सकती है। यह सब यहाँ नहीं चलेगा पुलिस बाबू… क्यों  भाइयों, बोलते क्यों नहीं।”

भीड़ एकदम से जोश में आकर चिल्लाने लगी… मुझे पता था कि जुबानें उन ग्रामीणों की थी पर शब्द उन ठाकुरों के थे, लेकिन इन जाहिलों को कैसे  समझाया  जाए। वस्तुस्थिति वाकई अजीब हो चली थी। एकदम से बने इन हालात में अफ़साना भी घबरा गयी थी। हम अपनी सफाई दे सकते थे लेकिन बहरे कर दिये गये उन कानों तक वो सफाई पहुंचनी मुश्किल लगी। अब मंझले ठाकुर डोगरी में कुछ  चिल्लाने लगे थे और भीड़ का जोश था कि बढ़ता ही जा रहा था। इस माहौल में एक ही  चीज़ उन्हें शांत कर सकती  थी— हवाई फायर। मैंने पिस्तौल की तरफ हाथ बढ़ाया ही था कि एक पत्थर आकर मेरे सर पर लगा।

फिर न जाने कितने हाथ एकदम से मुझ पर टूट पड़े… अफ़साना की एकाध चीख ही मेरे कान तक पहुँच सकी, फिर कुछ भी सुनाई देना बंद हो गया।  घूंसे लातें सहते मेरा जिस्म एकदम से गर्म हो  गया।

तभी गोली चली… सभी थमक गये।

दो गोलियां और चलीं और सन्नाटे में शोर सा गूंजा… फिर सभी भाग खड़े हुए।  मैंने बड़ी मुश्किल से आँख खोली तो नवाज़ साहब मुझ पर झुके हुए थे।  इसके बाद मैं बेहोश हो गया।

फिर होश आया तो गिलगित के सरकारी अस्पताल में था। पूरे शरीर में चोटें आई थीं— जहाँ तहाँ पट्टियां दिख रही थीं।एक हाथ टूट गया था, जो अब प्लास्टर के खोल में कैद था।पूरे बदन में चोटों का एहसास हो रहा था… जहाँ तहाँ टीसें उठ रही थीं। मेरा हौसला बढ़ाने के लिये नवाज़ साहब वहां मौजूद थे।

दो रोज़ बाद मुझे ज़रूरी इंस्ट्रक्शंस के साथ अस्पताल से डिस्चार्ज कर दिया गया। मैं टूटा हाथ लिये डेरा जमाल आ गया।  इस बार मुझे घटना के दोषियों के बारे में पता था लेकिन क्या सजा देता मैं उन गुलामों को। ननका और बदलू के बारे में अब भी कुछ पता नहीं था…ननका पुलवामा का रहने वाला था और बदलू रंगकोट का… दोनों के घर उनकी गुमशुदगी की खबर पहुंचा दी गयी थी। फिर दो दिन बाद ठाकुरों को एकबार फिर चेता कर नवाज़ साहब फ़ोर्स लेकर चले गये। ननका और बदलू की जगह दो दूसरे कांस्टेबल राम औतार और अमरजीत को यहाँ छोड़ गये।

शाम के वक़्त चौकी के सहन में कुर्सी डाले मैं फ़ज़्लू के साथ बैठा था कि अफ़साना आ गयी। उसके शरीर पर वही कश्मीरी लिबास था और हाथ में एक डिब्बा।

“आदाब मलिक साहब।” वह मुस्कराते हुए बोली।

“आदाब ̶  आओ आओ। खैरियत तो है।”

“जी ̶  आज मैंने शीर खोरमा बनाया था ̶  सोचा आप को भी चखा दूँ।”

“अच्छा… लाओ। मुझे बहुत पसंद है।” मैंने डिब्बा उसके हाथ से लेकर खोला… उसने दूसरे हाथ में पकड़ा चमचा थमा दिया। खुद वह ज़मीन पर उकड़ूँ बैठ गयी।

“अरे-अरे क्या करती हो… उठो उठो। फ़ज़्लू, एक कुर्सी लाओ।”

“आप बैठिये बीबीजान।” फ़ज़्लू उठता हुआ बोला, ”तब तक मैं बन्दूक की सफाई कर लेता हूँ।”

फ़ज़्लू भीतर चला गया… उसकी खाली कुर्सी पर अफ़साना बैठ गयी और मैं बड़े आराम से शीर कोरमा खाने लगा।

“तुम्हें मेरे पास आते डर नहीं लगा ̶  गावं वाले फिर तुम पर इलज़ाम लगाएंगे।”

“उन्हें भी पता था कि उनके इलज़ाम में कितनी सच्चाई थी।  मुखिया के बहकावे में वह आ तो गये थे लेकिन बाद में सब अफ़सोस कर रहे थे।” उसने नीचे देखते हुए कहा।

फिर काफी देर हम दोनों के बीच चुप्पी छायी रही ̶  मैंने शीर खोरमा ख़त्म कर दिया।

“एक बात पूछूँ?” उसने निगाहें उठा कर मुझे देखा।

“हां-हां पूछो।” मैंने फ़ज़्लू का लाया गिलास भर पानी गटकते हुए सर हिलाया।

“अ…आपकी शादी हो गयी?” पूछते हुए उसकी आवाज़ जाने क्यों काँप सी गयी थी।

“अभी नहीं… लेकिन तय है। मैं पठानकोट का रहने वाला हूँ… मेरे परिवार में मां के सिवा कोई नहीं। मेरी एक खाला बनिहाल में रहती है… उसी की बेटी है समरीन। बचपन से मेरी शादी तय है लेकिन देखो होती कब है।”

“आप बहुत चाहते हैं उसे।”

“पता नहीं। अब पता हो कि किस लड़की से शादी होने वाली है तो उसे लगाव तो हो ही जाता है, लेकिन उसे मुहब्बत का नाम देना ठीक नहीं।”

वह थोड़ी देर पाँव के अंगूठे से ज़मीन कुरेदती रही, फिर उठ खड़ी हुई और डिब्बा चम्मच लेकर “आदाब” कर के चली गयी। शाम गहराने लगी थी। राम आसरे कन्दीलें रोशन करने लगा और मैं एक छोटी गश्त के लिये उठ खड़ा हुआ।

शरीर की बाकी चोटें तो आठ नौ दिन में ठीक हो गयी थीं लेकिन हाथ ठीक होने में दो महीने लग गये थे। इस बीच सेब और आलूबुखारे की फसल तैयार हो गयी थी। उन्हें उतार लिया गया था… अब अखरोट भी पेड़ों से उतारे जाने लगे थे। बारिश के मौसम का अंत हो चुका था और अब आगे सख्त जाड़े और बर्फ़बारी के  मौसम का इंतज़ार था।

इस बीच गावं में जो सदियों से होता आ रहा था, वही अब भी हो रहा था ̶  झगडे, ख़ूनख़राब, बलात्कार… सारे  कर्म होते  थे लेकिन रिपोर्ट लिखाने चौकी आने की ज़हमत कोई नहीं उठाता था। यही  वजह थी कि स्थापना के तीन माह बाद भी चौकी का रजिस्टर सूना ही रहा। ठाकुरों ने टकराने के बजाय कतरा के निकल जाने का नियम बना लिया था… हां, उनके हुक्म के चलते गावं का कोई बच्चा पढ़ने नहीं बैठा और अफ़साना का स्कूल भी चौकी के रजिस्टर की तरह खाली ही रहा। वह तो बुरी तरह हताश हो चली थी।

सुबह का वक़्त  था… अभी सूरज नहीं निकला था। आसमान पर सफेदी फैली हुई थी। पंछी शोर मचा रहे थे। गावं में जाग हो गयी थी…कल मिटटी का तेल ख़त्म हो गया था जिसे गिलगित से लाना पड़ता था, इसलिए सुबह का नाश्ता हमें गावं के इकलौते होटल से करना था।  रोज़मर्रा की हाज़तों से फारिग होकर मैं होटल की तरफ चल पड़ा… मेरे साथ रामऔतार भी था।  उसे नाश्ता करके गिलगित निकल जाना था।

बीच गावं में मुखिया के घर के पास ही एक देहाती सात आठ साल के बच्चे को पीट रहा था और वह रोता हुआ कुछ चिल्ला रहा था। देहाती भी कुछ चिल्ला रहा था लेकिन उनकी बातें डोगरी में हो रही थीं। मुझसे रहा न गया तो मैंने देहाती का हाथ पकड़ लिया।

“अरे-अरे, क्यों मार रहे हो बच्चे को।”

“साहेब… यह मेरा बच्चा है। मैं इसे पीट भी सकता हूँ… मार भी सकता हूँ।”

“हाँ ज़रूर-ज़रूर…” मैं थोड़े नरम लहज़े में बोला, ”लेकिन कोई वजह भी तो हो भाई।”

“वजह है न साहेब…यह कहता है पढ़ेगा। अफ़साना बाजी इसे पढ़ाएंगी।” फिर उसने भीगी आँखों के साथ हाथ जोड़ दिये, ”और साहेब…आप को तो मालिकों का हुक्म  पता ही होगा। हम जानते हैं कि पढाई अच्छी बात है मगर इसकी पढाई मेरे पूरे परिवार को ख़त्म करा डालेगी।”

“ओह…तो यह बात है। अच्छा बताओ कि हममें और ठाकुरों में कौन ज्यादा ताक़तवर है। ठाकुरों ने जो हमारे खिलाफ ताक़त दिखाई वह रात के अँधेरे में चोरों की तरह दिखाई लेकिन हमने…दिन दहाड़े तुम सब की आँखों के सामने उनके लठैतों को पकड़ा, हफ्ता भर बंद रख के पीटा… छोटे ठाकुर को पकड़ का खींचते हुए चौकी ले गये… कितने ही लोगों के सामने उन्हें पीटा गया। क्या बिगाड़ सके वह हमारा…फिर भी उनसे ज्यादा ताक़तवर होने के बावजूद मुझे तुम लोगों ने ̶  ठाकुरों ने नहीं… तुम लोगों ने पीट लिया… और हम सैकड़ों होते हुए भी…हुकूमत से जुड़े होते हुए भी— हम तुम्हारा कुछ नहीं बिगाड़ सके। जानते  हो क्यों… क्योंकि तुम एक नहीं अनेक थे… तुम एक समूह थे… एक भीड़ थे… अनेक होते हुए भी एक थे। इसी ताक़त की वजह से तुम हमें मार पाने में कामयाब हुए और अगर इस्तेमाल कर सको तो यही ताक़त तुम्हारा सबसे बड़ा हथियार है।”

इस बीच आते-जाते सारे लोग वहीँ खड़े होकर हमारी बातें सुनने लगे थे। मैंने अपनी बात जारी रखी–-

“याद रखो— तुम भी भी मेरी और ठाकुरों की तरह  इंसान हो। तुम्हारी पैदाइश गुलामी करने के लिये नहीं हुई। तुम भी आज़ाद इंसान हो और तालीम ही तुम्हे आज़ाद होने का एहसास दिल सकती है।  तुमने नहीं हासिल की पर इन मासूम बच्चों को तालीम हासिल करने से मत रोको… कुछ नहीं बिगड़ेगा तुम्हारा— अगर तुम उसी तरह एक हो जाओ जैसे उस दिन मेरे खिलाफ एक हो गये थे। चलो बेटे।”

वह शख्स देखता रहा और मैं उसके बेटे को लिये अफ़साना के स्कूल आ गया, जहाँ रोज़ की तरह आज भी अफ़साना सूनी आँखों से किसी तालिब इल्म  का इंतज़ार कर रही थी। एक बच्चे को पाकर उसे वैसी ही ख़ुशी मिली जैसे किसी प्यासे को पानी मिलने पर होती है। वह उसे पढ़ाने बैठ गयी।

मैंने भी पास के एक घर से एक कुर्सी माँगा ली और वहीँ जम गया। रामऔतार ने मुझे वहीं नाश्ता ला दिया और खुद गिलगित चला गया। अफ़साना पूरी तवज्जो से उस अकेले बच्चे को पढ़ा रही थी… सूरज अब निकल आया था। यह नया सूरज उस बच्चे के नाम था जिसे ठाकुरों का खौफ पढ़ने से न रोक सका… जो भी  यहाँ से गुज़रता, उसे हैरत होती। धीरे-धीरे वहां ढेर से बच्चे जमा हो गये और दिलचस्पी से उस इकलौते बच्चे को पढ़ते देखने लगे।

“बच्चों,” मेरे पुकारने पर वह मुझे देखने लगे, ”क्या देख रहे हो… यह तालीम का फल तुम्हारे लिये ही है। आगे बढ़ो और हासिल कर लो। कोई नहीं रोक सकता तुम्हे… मैं हूँ न। तालीम ज़हन को रोशन करने के लिये होती है… क्या तुम हमेशा अपने बुज़ुर्गों की तरह अँधेरे में डूबे रहोगे… इन अंधेरों ने तुम्हारे बाप-दादाओं पर कितने ज़ुल्म ढाये हैं… क्या तुम उनसे छुटकारा नहीं चाहते?”

बच्चे कश्मकश में दिख“बेटे,” मैंने उस पढ़ने वाले बच्चे से कहा— “तुम्हारे दोस्त कश्मकश में हैं। इन्हें वही डर रोक रहा है जो तुम्हे नहीं रोक पाया। इन्हें बुलाओगे नहीं।”

बच्चा खड़ा हो गया और उनसे मुखातिब होकर बोलने लगा, ”पहला हर्फ़ है अलिफ…अलिफ से अल्लाह। अल्लाह सबसे बड़ा है… दूसरा हर्फ़ है बे… बे से बुराई… बुराई इंसानों को अल्लाह से दूर कर देती है। बाजी कहती है हमें सिर्फ अल्लाह से डरना चाहिये… किसी इंसान से जो डरते हैं वह बुज़दिल कहलाते हैं और हम बुज़दिल नहीं हैं।”

बच्चे की बात बच्चों की समझ में आयी।  वह ख़ुशी ख़ुशी पढ़ने बैठ गये। अफ़साना की आँखें ख़ुशी से भीग गयीं और मेरे इशारे पर वह फिर उन्हें पढ़ाने लगी। इस छोटे से स्कूल को देखते लोगों में सरगोशियाँ शुरू हो गयीं। यह ठाकुरों की सल्तनत में बगावत का नया बिगुल था जिसकी आवाज़ उनके कानों तक ज़रूर पहुंचनी थी। तकरीबन एक घंटे बाद बड़े  ठाकुर अपने लाव लश्कर के साथ बड़े आक्रामक मूड में हाजिर थे। पूरे गावं में एकदम से सन्नाटा सा खिंच गया। हालाँकि वहां मुझे देख उनके तेवर थोड़े नरम ज़रूर पड़े।

“गंगवा,” बड़े ठाकुर की गरजदार आवाज़ पर सारे देहाती काँप उठे, ”हमारे मना करने के बावजूद तेरा बेटा पढ़ने बैठा।”

गंगवा नामक शख्स ने झपट कर बड़े ठाकुर के पाँव पकड़ लिये और गिड़गिड़ा उठा—“माफ़ी चाहता हूँ बड़े मालिक… हमने तो अपनी अब तक की ज़िन्दगी आपके जूतों में गुज़ार दी है बड़े मालिक और बची खुची भी आपके पैरों में ही गुज़ार देंगे लेकिन मेरे बेटे को पढ़ लेने दीजिये… उसे उसकी मर्ज़ी की ज़िन्दगी जी लेने दीजिये… बड़े मालिक। पढ़ लेने दीजिये उसे…।”

“दूर हट।” क्रोध से उफनती आवाज़ के साथ बड़े ठाकुर ने गंगवा  के मुंह पर लात जड़ दी और वह परे लुढ़क गया।

उसे सहारा देकर मैंने उठाया।

“बड़े ठाकुर… अब मेरी सुनिये। यह छोटा सा स्कूल चल रहा है, इसे चलने दीजिये वरना यहाँ आसपास आठ दस मील तक किसी भी गावं में कोई स्कूल नहीं है। हम कोशिश करेंगे तो अंग्रेज़ सरकार यहाँ एक बड़ा सा स्कूल खोल देगी। यह हिंदुस्तानी हैं… आप इन्हें दबा सकते हैं, मजबूर कर सकते हैं लेकिन  उस स्कूल से अंग्रेज़ जुड़े होंगे जिन पर आप की कोई पेश नहीं चलेगी। जिन्हें आप दबाने की कोशिश करेंगे तो आप सारे के सारे सालों के लिये जेल में नज़र आएंगे। और हाँ— एक  चेतावनी आप को जाती तौर पर मैं देता हूँ कि इस बार किसी सबूत या गवाह की ज़रूरत नहीं  पड़ेगी क्योंकि मेरे सामने ही आप इन लोगों को धमकाने आये हैं। अब इस स्कूल में पढ़ने वाले किसी बच्चे पर या इनके घर वालों पर आपने कोई ज़ुल्म किया तो आपके कुनबे के किसी और शख्स का कुछ बिगड़े न बिगड़े लेकिन आप अंग्रेज़ हुकूमत के हाथ सीधे-सीधे मौत की सजा पाएंगे।”

अंगारे बरसाती निगाहों से सभी को घूरते बड़े ठाकुर अपने लश्कर के साथ कूच कर गये।

इस घटना को हफ्ता गुज़र गया… अफ़साना बड़ी खुश थी कि उसका स्कूल फिर चालू हो गया था। सुबह से दोपहर तक, जब तक स्कूल चलता, दो कांस्टेबल बंदूकें लिये वहीँ बैठे रहते…इस सब को देखते गावं वालों की सोच भी थोड़ी बदली थी।

फिर एक दिन सुबह-सुबह आकर अमरजीत ने यह मनहूस खबर सुनाई कि किसी ने रातीराता हैदर शाह की ज़ाफ़रान की फसल बर्बाद कर डाली थी… लेकिन इस बर्बादी का ज़िम्मेदार सीधे ठाकुरों को भी नहीं ठहराया जा सकता था क्योंकि हैदर शाह की दुश्मनी पास के चौहरा गावं के चौधरी शाह ज़मान से भी चलती थी और अब वह पागल हो रहा था।

मैं सीधा हैदर शाह के घर की तरफ रवाना हो गया।

जिस घड़ी मैं वहां पहुंचा, वहां कोई नहीं था… घर का बड़ा दरवाज़ा खुला पड़ा था। मैं अफ़साना को पुकारता भीतर दाखिल हुआ।  पूरे घर की हर चीज़ बिखरी पड़ी थी… मैं हर तरफ नज़र दौड़ाता आँगन में पहुंचा। हैदर शाह वहां पड़ा था… उसकी आँखें फटी हुई थीं और मुंह खुला। शरीर में कोई हरकत नहीं थी और हाथ की मुख्य नस कटी हुई थी जहाँ से अब भी खून बह रहा था। बांह के पास खून का थाल इकठ्ठा हो चुका था। हैदर शाह के मुर्दा जिस्म के पास ही एक चाकू पड़ा था जिसके फल पर खून साफ़ दिख रहा था।

फिर मैं पूरे घर में फिर गया लेकिन अफ़साना कहीं नहीं थी।

हैदर शाह की लाश वैसे ही पड़ी थी।  पहली नज़र में देखने पर यह सीधा ख़ुदकुशी का केस लगता था लेकिन मेरी नज़र में यह क़त्ल था।

माना कि हैदर शाह का नुक्सान हुआ था लेकिन क्या यह नुकसान इतना बड़ा था कि वह खुदकशी कर ले। मुझे यह बात जमी नहीं… फिर उस सूरत में अफ़साना को घर होना चाहिये  था।

मैं अफ़साना को आवाज़ें लगाता बाहर निकला… मुझे साफ़ लग रहा था कि हैदर शाह को ख़त्म करके अफ़साना को उठाया गया है लेकिन यह हरकत किसकी हो सकती थी… ठाकुरों की या ठाकुरों की दुश्मनी की आड़ में चौधरी शाह जमान की?

बाहर  मेरा घोडा तैयार था…मैं घोड़े पर सवार होकर सीधा अफ़साना के स्कूल पहुंचा जहाँ उसके विध्यार्थी मौजूद थे। मैं घोड़े से उतर कर उनके पास आ गया।

“देखो बच्चों… तालीम इंसान को अपने एक आज़ाद इंसान होने का अहसास दिलाती है… ज़िन्दगी जीने के दस रास्ते दिखाती है। तालीम की यही रोशनी तुम्हारे बाप दादाओं को नहीं मिली और उन्होंने अपनी ज़िन्दगी गुलामी करते करते हुए ठाकुरों के जूतों में गुज़ार दी। वह लोग तुम से भी यही चाहते हैं और इसीलिये वह लोग नहीं चाहते कि तुम लोग पढ़ सको।  जब वह तुम्हें पढ़ने से नहीं रोक सके तो तुम्हारी अफ़साना बाजी को ही उठा लिया। अगर तुम अफ़साना बाजी को चाहते हो… अगर तुम लोग तालीम पाना चाहते हो तो सबसे पहले ज़ुल्म के खिलाफ सर उठाना सीखो।”

सारे बच्चे मुझे देखते रहे और मैं घोड़े पर सवार होकर वहां से रवाना हो गया।

पहले  मैं सीधा चौकी पहुंचा— वहां  ज़रूरी निर्देश देकर चौहरा गावं की ओर रवाना हो गया जो कोई डेढ़ कोस की दूरी पर उत्तर पश्चिम में स्थित था।

वह गावं डेरा जमाल से छोटा था, जिसके बीच में चौधरी की हवेली खड़ी थी… यह ठाकुरों जितनी बड़ी तो नहीं थी लेकिन फिर भी थी शानदार। मैंने दरवाज़े से अपने आने की खबर भिजवाई और थोड़ी ही देर में मुझे भीतर बुला लिया गया। एक नौकर मुझे सजी धजी बैठक में छोड़ गया, जहाँ जब तक शाह ज़मान आता तब तक मेरे लिये बादाम भरा दूध का गिलास आ चुका था।

“आदाब।” उसने  धीरे से कहा और बैठ गया… वह खूब गोरे चेहरे और काली दाढ़ी वाला लम्बा  चौड़ा आदमी था।

मैंने उसके अभिवादन का उत्तर दिया।

“दूध पीजिये जनाब।” उसने आग्रह किया।

गिलास होंठों से लगा कर एक लम्बा घूँट भर कर मैंने उसे वापस रख दिया— “मैं आपसे कुछ पूछताछ के लिए आया हूँ चौधरी साहब।”

“पूछिए।” उसके माथे पर बल पड़े।

“हैदर शाह से आपकी क्या दुश्मनी थी?”

“थी से क्या मतलब…आपको क्या लगता है कि अब ख़त्म हो गयी है। अरे जब तक हम ज़िंदा हैं यह दुश्मनी भी ज़िंदा रहेगी।”

“वजह क्या है इस झगडे की?”

“ज़मीनों का झगड़ा है साहब… कुछ ज़मीनें हैं जो मेरे कब्ज़े में हैं। वह उन पर अपना दवा करता है।”

“क्या यह दुश्मनी इतनी गहरी है कि इसके लिये वह आपका या आप उसका क़त्ल करने की सोच लें।” मैंने बात को दूसरे रुख से रखा और वह थोड़ी देर के लिये सोच में पड़ गया।

“छोटे छोटे गावों में ज़मीन जायदाद के झगडे तो होते ही रहते हैं और इसके लिये यूँ तो कभी-कभी नौबत क़त्ल की भी आ जाती है मगर ऐसा तभी होता है जब दोनों पार्टी बराबर की हों। हाँ हमारा झगड़ा हमारे बापों के ज़माने से चल रहा है लेकिन ऐसी कोई कोशिश हमारी तरफ से इसलिये नहीं हुई कि ज़मीनें तो हमारे पास हैं ही, वह दावे करते रहें… और ऐसी कोई कोशिश उनकी तरफ से इसलिये नहीं हुई कि वह एक अमीर किसान भर हैं और हम चौधरी… हमसे टकराना उनके बस की बात नहीं।”

“आपने हैदर शाह की बेटी अफ़साना को देखा है?”

“तब देखा है जब वह आठ  साल की थी— फिर तो हैदर शाह ने उसे कहीं बाहर भेज दिया था। आप उसके बारे में क्यों पूछ रहे हैं?”

अभी तक उसकी बातों से नहीं लग रहा था कि उसे हादसे के बारे में कुछ भी पता है। मैंने बात को उलटी तरफ से रखा— “क्योंकि आज तड़के हैदर शाह का क़त्ल हो गया… रात उसकी फसल बर्बाद कर दी गयी और उसकी बेटी अफ़साना को गायब कर दिया गया… और यह काम आपके सिवा कोई नहीं कर सकता।”

वह एकदम से खड़ा हो गया… गोरा चेहरा गुस्से से तमतमा गया, मुट्ठियाँ भिंच गयीं… एकबारगी उसका वजूद कांप सा गया। वह लहराती आवाज़ में बोला, “आप तमीज की हद लांघ रहे हैं… तोहमत लगा रहे हैं मुझ पर। गावं में ज़रूर रहता हूँ लेकिन कानून के बारे में जानता हूँ… क्या सबूत है आपके पास कि मैंने ऐसा किया है… जिसके बारे में मुझे अभी आपके मुंह से सुन कर पता चल रहा है कि ऐसा हुआ है।”

इसके बाद वह वहां रुका नहीं…कालीन रौंदता बाहर निकल गया। अब मेरे लिए वहां रुकना बेकार था।

मैं वापस लौट पड़ा।

शाह ज़मान के साथ बातचीत में लगा नहीं कि वह गुनहगार था। ज़मीनों के झगड़े में इतना बड़ा कदम तब नहीं उठाया जा सकता था जब ज़मीनें पहले से ही एक ताक़तवर आदमी के कब्ज़े में हों। अब मुझे यकीन हो गया कि सारा किया धरा ठाकुरों का ही है।

मैं वापस डेरा जमाल पहुंचा तो कांस्टेबल हैदर शाह की लाश ले आये थे। वहां पोस्टमार्टम की व्यवस्था तो थी नहीं… लाश का पंचनामा कर दिया गया। सारे कांस्टेबल अफ़साना की तलाश में दौड़ा दिये, लेकिन वह न मिली। शाम तक जब अफ़साना वापस न आई तो हैदर की मिटटी हमने कर दी।

इस बीच सारे गावं में खुसुर फुसुर चलती रही लेकिन ठाकुरों की तरफ से कोई सुनगुन नहीं हुई… जिससे मुझे पक्का यकीन हो गया कि घटना के पीछे वही थे। मुझे उम्मीद थी कि शौकत मुझ तक पहुंचेगा लेकिन वह भी न आया और उसी के इंतज़ार के कारण वक़्त हो गया और मैं तलाशी के लिए हवेली न जा सका। अलबत्ता दो हवलदारों को मैंने हवेली पर नज़र रखने के लिये ज़रूर भेज दिया।

रात गुज़री… सुबह हुई तो हवा में नया शोशा तैर रहा था…अंग्रेज सरकार के हाथ फांसी की सजा पाया भटिंडा का एक मुजरिम गुरबचन उस इलाके में देखा गया था। अगर वह यहाँ आया है तो देर सवेर अंग्रेज सिपाही भी ज़रूर पहुंचेंगे। मैंने उसकी तरफ से ध्यान हटा लिया और रोजाना के कामों से फारिग होने लग गया।

उस वक़्त मैं दातून कर रहा था जब गावं का सोलह सत्रह साल का एक लड़का हांफ़ता हुआ मुझ तक पहुंचा-- “साहब… वह… वह… उधर…”

वह ठीक से बोल नहीं पा रहा था लेकिन एक तरफ इशारा कर रहा था। मेरी समझ में यही आया कि हो न हो कोई बात ज़रूर है। मैं तेज़ी से उसके साथ उस तरफ बढ़ लिया… उधर कुछ खेत थे जिधर बहुधा लोग सुबह सवेरे शौच कि लिये जाते थे। दो खेतों के बीच मेढ़ पर कोई पड़ा तड़प रहा था।

मैं तेज़ी से लपक कर उस तक पहुंचा… और यह देख कर सन्न रह गया कि वह मेरा ही कांस्टेबल फ़ज़्लू था। उसके शरीर पर चाकू या छुरे के कई घाव थे, जहाँ से रिसता खून खेत की गीली मिटटी में जज़्ब हो रहा था। मैंने उसे उठाने की कोशिश की… पर वह तड़पने के कारण गिर पड़ा…उसके चेहरे पर और आँखों में बेपनाह दर्द के भाव थे।

“फ़ज़्लू… फ़ज़्लू… बोल, किसने किया है यह… बोल फ़ज़्लू… बोल…”

उसने मुंह तो खोला पर अलफ़ाज़ के बजाय खून ही बाहर आया— तब मुझे उसकी गर्दन पर भी एक घाव दिखा। तब तक वहीद और रामऔतार भी पहुँच गये थे… फ़ज़्लू ठंडा पड़ने लगा। हमारी समझ में कुछ नहीं आ रहा था कि हम क्या करें… और हमारे देखते-देखते फ़ज़्लू की ज़िन्दगी ख़त्म हो गयी। अब वह मुर्दा हमारे सामने पड़ा था… और उसका तमाम खून मेरी पतलून और बनियान पर लग  गया था।

हम उसे उठा कर चौकी ले आये।

जानकी और अमरजीत को हमने थाने रिपोर्ट के लिये भेज दिया और खुद छानबीन में लग गये कि आखिर क्या हुआ होगा… मेरे कुछ मातहतों का ख़याल था कि भटिंडा से फरार गुरबचन की हरकत हो सकती थी, तो कुछ का ख्याल था कि गुरबचन के नाम की आड़ में यह ठाकुरों का ही काम था लेकिन कोई प्रत्यक्ष गवाह न मिला जो ठीक-ठीक बता सकता कि क्या हुआ था और दोपहर तक की नाकाम छानबीन के बाद हम चौकी आकर बैठ गये और थाने से आने वाले लोगों का इंतज़ार करने लगे।

लेकिन शाम तक न ही थाने से कोई आया और न ही अमरजीत और जानकी वापस लौटे… तब मजबूरन हमें फ़ज़्लू का कफ़न दफ़न भी करना पड़ा…इस बीच हमें अफ़साना की भी कोई खबर न मिली थी।

फ़ज़्लू की मिटटी के बाद रामऔतार को चौकी में छोड़ कर मैं बाकी बचे चारों कांस्टेबल के साथ हवेली जा पहुंचा। इस मर्तबा बड़े ठाकुर ने हमें बड़े प्यार से बैठक में बिठाया।

“हमें आपके सिपाही के साथ हुए हादसे का पता चला… अफ़सोस हुआ। कहिये मैं आपकी क्या खिदमत कर सकता हूँ।” बड़े ठाकुर की यह अदा चौंकाने वाली थी।

“मेरे सिपाही की जान लेकर आपने जो जुर्म किया है उसकी सजा आपको ज़रूर मिलेगी।” मैंने पूरी सख्ती के साथ कहा तो एक पल के लिए उनके चेहरे के भाव बदले पर अगले पल वह फिर सामान्य हो गए।

“बिना सबूत इलज़ाम लगा रहे हो इंस्पेक्टर।”

“क्यों— आपके सिवा और कौन है इधर जो हमें क़त्ल करने का मंसूबा बनाये।”

“आजकल सुना है-– सरकार का एक ख़ास दुश्मन भी इधर ही है।” उनका इशारा गुरबचन की तरफ था।

“वह भी आप ही का छोड़ा शोशा है ताकि काम आप करें और नाम उसके आये।”

“ठीक है… तो ऐसे ही  सही— जाओ, उसे पकड़ो और साबित करो कि तुम्हारे सिपाही का क़त्ल उसने नहीं किया। मुझे क्या बताने आये हो।”

“मैं हवेली की तलाशी लेना चाहता हूँ।”

“बड़े शौक से।” कहते हुए वह खड़े हो गये।

उम्मीद के खिलाफ उनका यूँ तलाशी के लिये राज़ी हो जाना साफ़ इशारा करता था कि अफ़साना हवेली में नहीं थी। हम उठ खड़े हुए।

“मुझे गुरबचन की ही नहीं अफ़साना की भी तलाश है और आपकी रज़ामंदी यह बताने के लिए काफी है कि वह यहाँ नहीं हैं। हमें उम्मीद नहीं कि वह आपके रेस्ट हाउस में भी होंगे लेकिन हमारी तलाश जारी है और जैसे ही वह हमें मिले… आपकी आज़ादी के दिन ख़त्म।” मेरे लिए खुद को सम्भालना मुश्किल हो रहा था जबकि बड़े ठाकुर शांत दिख रहे थे।

हम वापस लौट आये।

रात हो चुकी थी… चौकी आकर पता चला कि अमरजीत और जानकी अभी तक नहीं लौटे थे। पता नहीं कहाँ फँस गये थे। गावं में सन्नाटा खिंच चुका था… लोग घरों में दुबक चुके थे… इस वक़्त हमारे पास भी सोने के सिवा कोई ऑप्शन नहीं था।

रात तो सोये… सुबह उठे तो लल्लन भी मर चुका था— उसका पूरा शरीर नीला पड़ा हुआ था। साफ़ ज़ाहिर था कि उसकी मौत सांप के काटने से हुई थी लेकिन यूँ एक के बाद एक मौत इत्तेफ़ाक़ नहीं हो सकती। ज़रूरी नहीं सांप यहाँ डसने के लिये आया हो… उसे लाया गया भी हो सकता था। मुझे किसी भारी गड़बड़ का आभास हो रहा था। लल्लन की लाश देखने के बाद मैंने सबसे पहला काम यह किया कि निजामू और रामऔतार को थाने की ओर रवाना कर दिया और खुद वहीद और राम आसरे को लिये गावं में भटकता लोगों की सुधबुध लेने लगा कि शायद कहीं से कोई सुराग मिल जाये।  पीछे  चौकी में अकेली लल्लन की लाश पड़ी थी।

भटकते हुए मैं अफ़साना के स्कूल के पास से भी गुज़रा… वहां आज तीसरे दिन भी उतने ही बच्चे मौजूद थे। शायद उन्हें उम्मीद थी कि उनकी अफ़साना बाजी किसी जादू के ज़ोर से लौट आएँगी।

दोपहर तक कोई सुराग न मिला तो हम वापस चौकी लौट आये… जहाँ सन्नाटा भांय-भांय कर रहा था।  पीछे ठेकी वाले से मैंने कह दिया कि दो कुन्टल लकड़ी गावं के श्मशान में पहुंचा दे। अब तो लल्लन का अंतिम संस्कार भी हमें ही करना था।

अभी मैं आफिसनुमा कमरे में बैठा हालात के बारे में गहराई से सोच ही रहा था कि तमाम आहटें गूँज उठीं। मेरे साथ ही वहीद और रामआसरे  भी उधर देखने लगे।

दरवाज़े पर बड़े ठाकुर प्रकट हुए… साथ ही उनके कुनबे के और  कई बेटे भतीजे भी थे… सभी के हाथों में बंदूकें थीं। वह सभी अंदर घुस आये… उनके पीछे ही अब्दुल घुसा— उसके साथ ही एक लम्बा चौड़ा सरदार भी था। मैंने पिस्तौल की ओर हाथ बढ़ाया ही था कि सारी बंदूकें मेरी तरफ तन गयीं और बड़े ठाकुर का कहकहा मेरे कानों में सुराख़ कर गया।

“तुम क्या समझते थे… तुम्हारे जैसे चंद अदने से लोग हमसे टक्कर ले सकते हैं— हमसे! अरे हम चुप थे तो इसलिये कि हमें मौके का इंतज़ार था।”

बड़े ठाकुर के इशारे पर अब्दुल ने आगे बढ़ कर मेरे होलस्टर से पिस्तौल निकाल लिया।

“यह गुरबचन है,” उन्होंने उस सरदार की ओर इशारा किया, “गोरी सरकार की गिरफ्त से भाग कर यह इधर ही आया था तो हमने इसे पनाह दी जिसका बदला इसने तुम्हारे दो सिपाहियों को हलाक करके दिया। हाँ— इस बार हमें मालूम था कि तुम मदद के लिये अपने सिपाही थाने की ओर दौड़ाओगे, इसलिये हमने पहले ही अपने आदमी वहां तैनात कर दिये थे और तुम्हारे दो बार में गये चारों सिपाही रास्ते में ही हमारे हाथ लग गये और अब तो घाटी की गहराइयों में उनकी लाशें चील कव्वे खा रहे होंगे। अब तो यह दोनों भी यूँ ही गायब हो जायेंगे और तुम भी… क्या साबित होगा? यही कि गुरबचन इस इलाके में आया था— तुम लोगों ने इसे गिरफ्तार करने की कोशिश की और यह तुम सबको ठिकाने लगा कर यहाँ से निकल गया। इसे हम रंगून अपने रिश्तेदारों के पास भेज देंगे।”

“अफ़साना कहाँ है?”

“हमारे पास ही… वह तो पहली लड़की है जिसने हमारे खिलाफ आवाज़ उठायी। उसे हम कैसे छोड़ देते। उसके बाप की फसल अब्दुल ने बर्बाद की थी और फिर हैदर शाह को भी इसी ने ही ठिकाने लगाया था और अब बारी उस लड़की की है। ले चलो।” बड़े ठाकुर के हुक्म पर कई बंदूकें हम तीनों के जिस्मों से सट गयीं और हमें चलने का इशारा किया। हम बंदूकों के साये में कसमसाते हुए बाहर आ गये।

बाहर आते ही अब्दुल चार बंदूकधारी कारिंदों और गुरबचन के साथ वहीद और राम आसरे को लिये खेतों की ओर चल पड़ा। यह सोच कर मेरा दिल काँप उठा कि वह लोग उन दोनों को क़त्ल करने के लिये ले  जा रहे थे लेकिन अंजाम तो मेरा भी यही होना था। यह सोचते ही ठण्ड के बावजूद मेरा जिस्म पसीने से चिपचिपा हो उठा। यह काफिला जिधर से भी गुज़रता— लोग दहशत से भरे देखते रह जाते।  यह काफिला मुखिया के घर के सामने रुका और फिर कारिंदे बाहर रह गये… मुझे लिये ठाकुर परिवार अंदर आ गया।

मुखिया का मकान दो मंज़िला और काफी बड़ा था… बीच आँगन में मेरे हाथ बाँध कर डाल दिया गया। फिर अफ़साना को सामने लाया गया। आज वह फिर नंगी थी। उसके जिस्म पर कोई कपड़ा नहीं था लेकिन आँखों में उम्मीद सी थी जो मुझे इस हाल में पड़े देख कर बुझ गयी। मैंने उसके चेहरे को देखा… न वहां शर्म थी, न डर… बस शिकस्त थी।

“इसी लड़की ने लोगों को बताया था न  कि बगावत किसे कहते हैं। आज इसे हम वह सजा देंगे कि लोग बगावत नाम के इस लफ्ज़ को भूल जायेंगे।” बड़े ठाकुर ने गुर्राते हुए कहा और अपने लड़कों को इशारा करके चले गये।

पीछे बचे उनके ग्यारह जवान लड़के…  दस बंदूकें लिये अफ़साना की तरफ पीठ करके खड़े हो गये और पीछे बचा एक जवान ठाकुर अफ़साना पर चढ़ बैठा। अफ़साना को भी शायद इसी अंजाम की  उम्मीद थी— उसने कोई विरोध नहीं किया लेकिन मेरा खून खौल उठा। मैंने उठने की कोशिश की— उसी पल बंदूकों की बटों के कई वार मेरे जिस्म पर हुए और मैं कराह कर रह गया।

मुझे अपनी आँखें बंद कर लेनी पड़ीं… यह सिलसिला तब तक चला जब तक उन ग्यारहों ने अपने तौर पर उसे बलात्कार की सजा न दे डाली। इसके साथ ही सूरज गुरूब का वक़्त भी हो चला था।  बाहर ठाकुरों के कारिंदों ने पूरे गावं को इकठ्ठा कर लिया था। जब सभी निपट चुके तो अफ़साना को बाहर खींच ले जाया गया… उसके पीछे ही मुझे भी। अफ़साना की हालत से ऐसा लग रहा था जैसे वह जीते जी मुर्दा हो चुकी हो।  गावं के सभी लोगों की निगाहें हम दोनों पर टिकी थीं।

“गौर से देखो तुम लोग,” बड़े ठाकुर गरज रहे थे— “यह वही लड़की है जिसकी नज़र हमारे जूतों से उठ कर हमारी आँखों तक पहुंची। यह वही लड़की है जिसने हमारे सामने बोलने की— हमारे खिलाफ खड़े होने की जुर्रत की। हम कुछ दिन चुप क्या रहे—  तुम लोगों ने हमें कमज़ोर समझ लिया। आज तुम्हें हम दिखाएंगे कि हम क्या हैं… इस लड़की और इस बदबख्त पुलिस वाले को वह सजा देंगे कि इन्हें और तुम सबको यह अहसास हो सके कि तुम सब गुलाम हो और तुम्हारी पैदाइश सिर्फ हमारी जूतियां चाटने के लिये हुई है।”

मैंने सामने देखा, जहाँ एक कमरे भर की बिना छत दीवार वाली मस्जिद बनी हुई थी, जिसे इस्लामाबाद से आये कुछ मुसलमानों ने आबाद किया था… जो इस्लाम की तब्लीग करते थे। क्या खुदा के घर के सामने यह ज़ुल्म होगा?

बड़े ठाकुर ने अफ़साना को खींच कर अपने सामने डाल दिया, “अब यह मेरा हुक्म है कि तुम में से हर मर्द इसके साथ जिना करेगा… तब तक, जब तक कि यह मर नहीं जाती और जो मेरा हुक्म नहीं मानेगा— वह गोली का शिकार होगा। गंगवा… तूने ही इसकी वकालत की थी न… पहले तू ही आ।”

तभी एक सनसनाता हुआ पत्थर आकर ठाकुर साहब के सर पर लगा। ठाकुर के मुंह से एकदम ही कराह निकल गयी… उनका सर फट गया और खून माथे पर बहने लगा। सभी की निगाहें उधर उठीं, जहाँ गंगवा का बेटा… अफ़साना का तालिब इल्म आँखें चढ़ाये खड़ा था। बंदूकें उस ओर तनीं… बड़े ठाकुर गुस्से से उबलते, धरती रौंदते बच्चे तक पहुंचे और एक भरपूर थप्पड़ बच्चे को जड़ दिया— बच्चा ज़मीन चाट गया।

“ठाकुर साहब।”

थप्पड़ की चोट माँ की कोख पर लगी। बच्चे की चीखती माँ को और कुछ न सूझा तो उसने वहीँ पड़ा एक पत्थर खींच मारा, जो बड़े ठाकुर के मुंह पर लगा और वह चीखते हुए वहीँ बैठ गये। मंझले ठाकुर ने गोली  चला दी, जो उस औरत के जिस्म में कहीं लगी— वह पछाड़ खा कर वहीँ गिर पड़ी और तभी एक दूसरे बच्चे ने एक पत्थर उठा कर मंझले ठाकुर के सर पर जड़ दिया। छोटे ठाकुर दनदनाते हुए उस बच्चे की ओर बढे ही थे कि अब उस बच्चे की माँ ने एक पत्थर उठा कर तान दिया— उन्हें रुक जाना पड़ा।

मुझे हवा में एक परिवर्तन की गंध आई… फ़ज़ा बदलती सी लगी। गावं वालों के चेहरे बदल गये।  गोली खाकर गिरी औरत को संभालता गंगवा मंझले ठाकुर के सामने आ गया।

“मालिक— मुझे भी गोली मार दीजिये, क्योंकि आज के बाद न तो मेरे हाथ आपके आगे जुड़ेंगे और न यह सर आपकी चौखट पे झुकेगा।” वह घायल सी आवाज़ में बोला।

“यह तू कह रहा है!” बड़े ठाकुर मुंह पकडे उबल पड़े— “तेरी सात पुश्तें हमारी गुलामी करती आई हैं। तेरे बाप दादाओं ने हमारी जूतियां चाटी हैं।”

“मालिक—दौर बदलते भी हैं।”

“पर तुम नहीं बदलोगे… तुम लोग बदलने की कोशिश करोगे तो सारे के सारे मारे जाओगे।” बड़े ठाकुर बुरी तरह दहाड़ उठे तो भीड़ से निकल कर एक बुज़ुर्ग सामने आ खड़े हुए।

“ठाकुर साहब… खुदा कसम आज हमने मरने की ठान ली है। आपके पास उतनी गोलियां नहीं होंगी जितने हमारे पास सीने हैं। आप मारेंगे भी तो आधे बच जायेंगे और सैकड़ों सालों से ठाकुरों के अपनी मौत मरने का जो इतिहास रहा है वह आज बदल जायेगा।” शब्द चाबुक की तरह ठाकुरों की चेतना पर पड़े और निगाहें उन गुलामों पर जम गयीं जिनके हाथों में धीरे-धीरे अब पत्थर आने लगे थे।

तड़—तड़… मुझे उन जंज़ीरों के टूटने की आवाज़ आई जिसमे वह सदियों से जकड़े हुए थे… मैंने शुक्राने की साँस लेते हुए आँखें बंद कर लीं।

किसी ने मेरे बंधे हाथ खोले तो देखा, धूल उड़ाता हाकिमों का काफिला वापस जा रहा था। मैंने आसमान  की जानिब देखा… सूरज डूब गया था, साथ ही डुबा ले गया था उस मानसिकता को, जो उन लोगों को यह सिखाती  थी कि उनका जन्म सिर्फ ठाकुरों की जूतियां चाटने के लिए ही हुआ है। यह तो शुरुआत भर थी— अब तो  ऐसा तब तक होगा, जब तक यह परिवर्तन स्थायी नहीं हो जाता। मुझे ख़ुशी हुई कि इतनी क़ुर्बानियाँ बेकार नहीं गयीं। मैं लपक कर अफ़साना के पास पहुंचा, ”अफ़साना…आँखें खोलो अफ़साना… तुम्हारी ज़िन्दगी ख़त्म नहीं हुई है। आज से तो नई शुरुआत हुई है… तुम्हें पूरी ज़िन्दगी जीनी है… मेरे साथ… मरहूम हैदर शाह की बेटी बन कर नहीं… मालिक सफ़दर हयात की शरीके हयात बन कर। मैं अपनाउंगा तुम्हे… अफ़साना।”

“लेकिन आपकी शादी तो तय…” बेहद कमज़ोर सी आवाज़।

“समरीन अमीर है, पढ़ी लिखी है, उसे तो कोई भी लड़का मिल जायेगा लेकिन तुम्हें मेरी… मेरी मुहब्बत की… मेरे साथ और सहारे की ज़रूरत है।”

उसका काँपता वजूद मेरे आगोश में समां गया…मैंने उसे कस कर भींच लिया। सामने वाली मस्जिद में अब मगरिब की अज़ान होने लगी थी।

 
 

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रचनाएँ
दो बूँद पानी
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