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सेव धर्म

22 नवम्बर 2021

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मैं खामोशी से उसे देख रहा था... वह मेरे सामने था लेकिन पर्दे पर था। यह पर्दा मेरे ख्यालों का था, मेरी कल्पनाओं का था... लेकिन वह कल्पना नहीं था, वह तो सुलगते हुए दिन और कालिख से भरी हुई रात की तरह हकीकत था।

वह... जो ज़ईफ हो चला था, जिसके चेहरे की झुर्रियों में सदियां लिखी हुई थीं, जिसकी भेदती हुई आंखें कह रही थीं कि देखो मुझे... मैं बहुत पुराना हूँ। तुम सब जिंदा इंसानों से कहीं ज्यादा पुराना। उसका शरीर जर्जर था... फटे, चिथड़ों की शक्ल में झूलते कपड़े उसकी चमकती पसलियों और पीठ से जा लगे पेट को छुपा पाने में असक्षम थे। उसके शरीर पर ढेरों जख्म लिखे हुए थे, जहां से खून मवाद रिस रहा था।

वह दूर दूर दिखती तपती रेत वाले रेगिस्तान में भटक रहा था... दूर एक खूबसूरत सा नखलिस्तान दिख रहा था, जिधर वह जा रहा था। रेत उसके बालों में भरी हुई थी और पतले से होंठों पर उसने प्यास तराश रखी थी। अब रेगिस्तान और प्यास तो पूरक हैं, पर प्यास किस चीज की थी... क्या खुद की पहचान की?

तभी एक टीले के पीछे से भेड़ों का झुंड बरामद होता है और अपने सींग आगे किये उसी बदहाल बूढ़े की तरफ भाग रहा था। बूढ़ा उनका शोर सुन कर उनकी ओर आकर्षित होता है और पूरी कोशिश करता है कि बच सके लेकिन नाकाम रहता है और उसका कमजोर जिस्म नुकीली सींगों से घायल हो कर रह जाता है... उसे गिराने के बाद भेड़ें वापस लौट जाती हैं।

मुझे उस बूढ़े पर तरस आता है और मैं पर्दे में घुस पड़ता हूँ... वह रेत पर फैला उखड़ी-उखड़ी सांसे ले रहा है। मैं उसे सहारा दे कर उठाता हूँ।

"कौन हो तुम?" बूढ़ा हैरान हो कर पूछता है।

"इंसान।" मैं मुस्करा कर जवाब देता हूं।

"हाँ... इंसान ही हो, इसीलिये सहारा दे रहे हो, वर्ना सींग मार रहे होते।"

"आप कौन हैं हजरत, और यह भेड़ें क्यों मार रही थीं आपको?"

"यही नहीं... और भी बहुत सी हैं, बस सबके रंग जुदा हैं लेकिन सबका मकसद मुझे किसी न किसी बहाने जख्म देना ही है, क्योंकि इन्हें लगता है कि यह इसी तरह मुझे जिंदा रख सकते हैं... यह सब मेरे फालोवर्स हैं।"

"क्या... आप हैं कौन?"

"इंसान हो कर भी मुझे नहीं पहचान पा रहे तो यह मेरी बदनसीबी है... फिर इन भेड़ों से क्या उम्मीद करूँ। मेरे होंठों पे लिखी प्यास पढ़ पा रहे हो... यह पानी की नहीं, पहचान की है कि मुझे कोई तो पहचाने कि मैं कौन हूँ और क्यों इस हाल में हूँ।"

"आपका मतलब... आप धर्म हैं? क्योंकि फिलहाल जो बदहाल सूरत आपकी है, वह धर्म की ही हो सकती है।"

"हाँ... पर काश मेरे फालोवर्स मुझे पहचान पाते। मुझे बनाया गया था कि लोग जीने का सही तरीका सीख सकें। सच बोलना और सच के साथ खड़े रहना सीख सकें। झूठ, बेईमानी, अन्याय के खिलाफ खड़े हो सकें। दूसरों के काम आ सकें... लेकिन उन्होंने किसी और रूप में ही डिफाईन कर लिया है। उन्होंने मुझे सर पटकने, घंटे बजाने या मोमबत्तियां जलाने तक सीमित कर दिया है... उन्होंने मुझे कमजोर और खतरे में पड़ी प्रजाति घोषित कर दिया है और हर तरफ मेरी हिफाजत के लिये लड़े जा रहे हैं।"

"आप जा कहां रहे थे हजरत?"

"वह हरियाली देख रहे हो... पहले दुनिया का ज्यादातर हिस्सा ऐसा था और अब ज्यादातर हिस्सा इस रेगिस्तान जैसा हो गया है और लगातार यह रेगिस्तान फैल रहा है। मैं वहां रहना चाहता हूँ लेकिन मेरे अपने मुझे मार-मार कर यहीं रोके हुए हैं और मेरे ही नाम पर पूरी दुनिया को नर्क जैसा रेगिस्तान बनाये दे रहे हैं। क्या कभी और मेरा हाल ऐसा हुआ था, क्या आज से ज्यादा बुरे हाल में था कभी मैं।"

"शायद नहीं... क्या मैं आपके किसी काम आ सकता हूं?"

"हो सके तो इन भेड़ों से कह दो कि मेरी फिक्र करना छोड़ दें... मैं खुद को संभाल सकता हूं। ब्लाक मोदी का हैशटैग उतना जरूरी नहीं, जितना सेव धर्म का है... मुझे बचाव की जरूरत है, खुद अपने मानने वालों से।"

"वे हम जैसों की नहीं सुनते जनाब, वे हमें काफिर, मुनाफिक, संघी वगैरह के तमगे लटका देते हैं हमारे सीने पर।"

"तो फिर जाओ... मैं बहुत परेशान हूँ अपने अनुयायियों से... अब और परेशान न करो।"

और वह बूढ़ा मुझे नजरअंदाज करके घिसटता हुआ, उम्मीद की जूतियों पर सवार उस भ्रामक नखलिस्तान की ओर चल पड़ता है... और मैं पर्दे से बाहर निकल आता हूँ।
 

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रचनाएँ
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कुदरत ने हमें कम नियामतें नहीं दीं, हमीं ने उनकी कद्र न की.. ऐसी ही एक नियामत है पानी जो कुदरत ने हमें भरपूर बख्शा है लेकिन जिस हिसाब से हम अंधाधुंध इसका उपयोग और दुरुपयोग कर रहे हैं, भविष्य में हमें वह दिन भी देखना पड़ेगा जब हम एक एक बूंद को तरसेंगे। "दो बूँद पानी" इसी भविष्य की झलक दिखाती है।
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