अक्सर हमारे क्षेत्र के आसपास ही कुछ लोग एसे भी होते है जिन्हें हमने कभी देखा भी न हो न ही कभी उसका कोई जिक्र तक सुना हो....l
परन्तु गरीबी की पराकाष्ठा से रुबरु होते इन्हीं चंद लोगों में से यदि कोई हीरा निकलता है तब जाकर लोगों को इनके अस्तित्व का अहसास होता है.....l
यही परम्परा सदियों से प्रचलित है कि कुछ सक्षम लोग अपने निजी स्वार्थ के वशीभूत एसे व्यक्तियों की निरंतर अवहेलना करते चले आ रहे हैं...l
बस ये ही एक मुख्य कारण होता है कि गरीबी से अपने अस्तित्व की जंग लड़ने वाले व्यक्तियों की सोच का दायरा सीमित रह जाता है और वे उन सभी अधिकारों से वंचित रह जाते है जो उनके मूलभूत अधिकार है..l
एसी परिस्थितियों में यदि कोई अपने भविष्य को लेकर सपने देखना चाहे तो ये कैसे सम्भव हो सकता है...l
इन्हें तो हर दिन बस इस बात की फिक्र होती है कि आज का गुजर बसर कैसे होगा.....l
फिक्र तो बस वो आज की करते
कल का उनको कुछ पता नहीं
ये दोष गरीबी का है बन्दे
इसमे उनकी कोई खता नहीं .........l
खैर इन सब बातों से किसी को कोई फर्क़ नहीं पड़ता क्योंकि ये दुनिया सिर्फ उस हीरे की कीमत को ही महत्व देती है न कि उसे तराशने वाले कारीगर को.....l
गरीबी के दलदल से निकलकर सफलता के बादलों को चीरने वाले एसे ही एक शख्स के लोकनायक बनने तक के संघर्षों की कहानी आज में बताने जा रहा हूं जो कि एक सच्ची घटना पर आधारित है.....l
अपनी झूठी शान के मद में
तंज जो अक्सर कसते थे
आज वही पर कमल खिला
ये कीचड़ जिसे समझते थे
ये कहानी है मध्य प्रदेश के रीवा जिले मे रहने वाले अशोक की जिसने अपनी परिस्थितियों के प्रतिकूल होने पर भी हार नहीं मानी और सौ बार गिरकर वो जब उठा .......फिर तो उसे गिराने वाले मुश्किल वक़्त को भी उसके सामने झुकना पड़ा ......l
दरअसल इस कहानी की शुरुआत कुछ इस प्रकार हुई कि अशोक के पिता दिहाड़ी मजदूर का काम किया करते थे...और अशोक उनकी इकलौती सन्तान थी और इस तरह अशोक के पिता का एक छोटा सा तीन सदस्यीय परिवार जिसमें अशोक की मां भी शामिल है गरीबी में भी खुशहाली के साथ जीवन यापन कर रहा था......l
किरदारों का परिचय
बालू - अशोक का पिता
नैया- अशोक की मां
नैया......अरे कहा चली गई.....जल्दी कर मुझे जाना है....9:00 बज चुके है......फिर मालिक गाली देता है....दिहाड़ी पर जाते हुए बालू नैया से टिफिन मंगाता है l
काहे गाली देगा मालिक....उ तो खुद तुमका रात में देर से छोड़त है......थोड़ा देर हो गई तो का फरक पड़त है...l
बालू दिहाड़ी पर निकल गया और नैया अपने काम मे लग गई...l इधर अशोक जो कि अभी मात्र 5 वर्ष का था वो सड़क के किनारे अपनी झोपड़ी के बाहर बैठा स्कूल जाते हुए बच्चों को देखकर खुश हो रहा था l
अम्मा....अम्मा....बाबुजी कहे थे कि हमे भी स्कूल भेजेंगे.....देख बाहर सब थैला लेकर स्कूल जा रहे हैं....मैं भी स्कूल जाऊँगा अम्मा ... चल ना बाहर देख...नैया की साड़ी पकड़ कर अशोक उसे खींचते हुए बाहर लाता है और स्कूल जाते हुए बच्चों को देखने को कहता है l
हाँ बेटा तोहका भी भेजेंगे स्कूल.....चल अब जल्दी नहा ले....l
अशोक को खाना खिलाकर उसे सुलाने के बाद नैया सोच के सागर में डूबी बाहर ठंड की धूप में बैठी थी..l
नैया को इस बात की चिंता अंदर ही अंदर खाए जा रही थी कि क्या वो अशोक को इसी तरह झूठी दिलासा देती रहेगी ....क्या अशोक भी बालू की तरह ही दिहाड़ी पर जायगा....l
एक मां का दिल खुद के लिए भले ही कितना कठोर हो पर बात जब बच्चे के भविष्य की हो तो इस मोम से दिल में उठती हुई अग्नि इसे पूरा पिघला कर ही छोड़ती है....और इसी सोच में डूबी नैया को पता तक न चला कि कब दोपहर से शाम हो गई...l
खो कर बच्चों की खुशियों में
खुद का उसको होश नहीं है
एक मां के दिल की ममता है
इसमे दिल का कोई दोष नहीं है
अचानक ही जब नैया का ध्यान स्कूल से घर लौटते हुए बच्चों पर गया तो उसे एहसास हुआ कि शाम हो गई और वो चौखट से उठकर अशोक के पास जाकर उसे सोता हुआ देख अपने दिल की ममता के वशीभूत खुद की आंखों को गिली होने से रोक न पाई ......l
उस दिन उसने ये तय कर लिए की चाहे जो हो जाए पर अशोक भी बालू की तरह मजदूरी नहीं करेगा हम इसे स्कूल भेजेंगे......l
और फिर वो इस विषय पर चर्चा करने के लिए बालू के इंतजार में अपने काम में लग गई.....l