सृजक हूँ रचता रहता हूँ। महल शब्दों का गढ़ करके ढहाता, ढहता रहता हूँ।
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घूर तक की जहाँ होती है बन्दगीन बने यंत्र, जिन्दा रहे जिन्दगीहर तरफ प्यार का, बसता संसार हैप्राणि का प्राणि पर, पूरा ऐतबार हैन तो घटता गगन, न ही घटती जमींगाँव है वो जहाँ, रहते हैं आदमीगाँव से शुचि धरा,
<div><br></div><div>कहाँ हो तुम मेरे मन मीत?</div><div><br></div><div><br></div><div>मेरी सूनी अँगना